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Wednesday, 20 November, 2024
होमदेशझारखंड के सारंडा का यह आदिवासी शिक्षक, हर दिन 10 किमी. पैदल चल कर बच्चों को पढ़ाने आता है

झारखंड के सारंडा का यह आदिवासी शिक्षक, हर दिन 10 किमी. पैदल चल कर बच्चों को पढ़ाने आता है

शिक्षक फ्रांसिस मुंडा कहते हैं- वह एक स्वयंसेवी संस्था में काम करते हैं. उन्हें 6 हजार रुपए महीने मिलते हैं लेकिन 31 मार्च तक का कॉन्ट्रैक्ट खत्म होने पर भी इन 3 गांवों के बच्चों को पढ़ाना नहीं छोड़ेंगे.

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सारंडा: एशिया के सबसे बड़े साल के वृक्षों का जंगल. घना होने की वजह से जहां दिन में भी सूरज की रोशनी बमुश्किल ही आती है. जहां लौह अयस्क, सोना के खदान हैं. 2009 तक यह इलाका पूरी तरह माओवादियों के कब्जे में रहा, जहां खनन हो सके इसके लिए माओवादियों को हटाने के नाम पर सारंडा एक्शन प्लान बनाया गया. कंपनियों को खनन के लिए अवैध तरीकों से अनुमति देने के लिए केंद्रीय मंत्री रही जयंती नटराजन पर सीबीआई जांच तक चल रही. उसी जंगल के एक गांव रांगरिंग में पहली बार स्कूल खुला है.

10 बाई 8 का यह स्कूल चारों तरफ लकड़ी और ऊपर पुआल से ढंका हुआ है. पुआल के ऊपर पॉलिथिन लगा है, वह भी फटा हुआ. बारिश होने पर तत्काल स्कूल बंद करना पड़ता है. बावजूद पहली बार यहां के बच्चे पढ़ रहे हैं. गांव में इससे पहले आज तक कोई नहीं पढ़ा था.

टीन के डब्बे पर शिक्षक फ्रांसिस मुंडा बैठे हैं. जमीन पर पॉलिथिन बिछा एक साथ बच्चे बैठे हैं. यह किसी कक्षा में नहीं, बस पढ़ रहे हैं. बीते 6 महीने की पढ़ाई में ये अक्षर पहचान रहे हैं. जन गण मन याद कर चुके हैं. पहाड़ा सीख चुके हैं. यहां आसपास के तीन गांवों के 62 बच्चे पढ़ रहे हैं.

सारंडा के जंगल स्वागत करता लगा एक बोर्ड | आनंद दत्ता

रांची से 220 किलोमीटर दूर सैडल चौराहा और फिर वहां से 15 किलोमीटर सुनसान और पहाड़ी रास्तों से होते हुए आप स्कूल पहुंच सकते हैं. रास्ते में कभी पांच तो कभी तीन किलोमीटर तक कोई घर नहीं, बस जंगल दिखाई देते हैं.

शिक्षक फ्रांसिस मुंडा खुद मात्र 10वीं पास हैं. बताते हैं, मैं हर दिन सुबह 8 बजे घर से पैदल निकलता हूं. पहाड़ों-जंगलों के अंदर-अंदर 10 किलोमीटर से ज्यादा का सफर पैदल तय करता हूं. खदान वाले ट्रकों के लिए रास्ते तो बने हैं, लेकिन वह इतनी ऊंचाई वाले हैं, लिहाजा साइकिल से आना संभव नहीं. इसलिए जंगल के बीचोबीच पैदल चलकर ही पहुंचता हूं. दो जगहों पर लगभग एक किलोमीटर का चढ़ान है, ये रास्ता मुझे सबसे अधिक थका देता है. दोपहर 3 बजे स्कूल से निकलता हूं, फिर पैदल ही 5 बजे घर पहुंचता हूं. ऐसा वह पिछले 6 महीने से लगातार कर रहे हैं.

 

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चापाकल, बिजली अभी भी गांव वालों के लिए सपना

गांव में एक भी चापाकल नहीं, बिजली नहीं है. लोग गड्ढे में जमा पानी से नहाते हैं, वहीं कपड़ा धोते हैं और वही पानी पीते भी हैं. सीधे शब्दों में कहें तो एक भी सरकारी योजनाएं आज तक नहीं पहुंची है. गांव के लोगों का मुख्य पेशा खेती और केंदू पत्ता तोड़ कर उसे बेचना है. साथ ही जंगली जड़ी-बूटी भी बेचते हैं. हां अभी के मौसम में चींटी और उसकी चटनी भी बेच रहे हैं.

स्कूल की छात्रा नंदी गगराई कहती हैं कि उसके माता-पिता दोनों ही जंगल में पत्ते तोड़ने का काम करते हैं. स्कूल में मंगलवार और शनिवार को बच्चों की उपस्थिति थोड़ी कम होती है. क्योंकि अधिकतर बच्चे अपने माता-पिता के साथ जंगल में केंदू पत्ता तोड़ने और फिर उसे बेचने चले जाते हैं. कमाई का एकमात्र जरिया यही है.

फ्रांसिस कहते हैं वह बच्चों को इतना पढ़ाना चाहते हैं कि वह कस्तूरबा गांधी आवासीय विद्यालय पहुंचने लायक बन जाएं. वहीं लड़कों को मिडिल और हाई स्कूल तक पहुंचाना चाहते हैं. बीते साल 15 नवंबर को बिरसा मुंडा जयंती पर इन बच्चों के बीच प्रतियोगिता कराई गई थी लेकिन पैसे के अभाव में आज तक पुरस्कार नहीं दिया जा सका है. उन्हें इसका मलाल है.

उन्होंने बताया कि मैं 10वीं पास हूं. माता-पिता के गुजर जाने के बाद आगे की पढ़ाई जारी नहीं रख सका. इसके बाद मजदूरी करने लगा. इस बीच पंचायत चुनाव भी लड़ा लेकिन हार गया. खदानों में मजदूरों के साथ हो रहे शोषण के खिलाफ भी आवाज उठाते रहे.

जंगल एरिया का नजारा | आनंद दत्ता

हॉस्पिटल नहीं, जंगल के रास्ते में ही हो जाती है बच्चों की डिलीवरी

इस गांव में पहुंचना कितना मुश्किल है इसे ऐसे समझिये. गांव के राजा सुंडी अपनी पत्नी पुतली सुंडी के साथ एक दिन पहाड़ी चढ़ कर राशन लाने बाजार जा रहे थे. बीच रास्ते में गर्भवती पत्नी को दर्द हुआ. वह आगे नहीं बढ़ पाई. पति ने अपना कपड़ा खोला और पत्नी को जंगल में ही लिटा दिया. सुनसान जगंल में कराहती पत्नी ने वहीं बच्चे को जन्म दिया. मंगलवार का दिन था, सो बच्चे का नाम मंगल रख दिया. गांव के सभी बच्चे लगभग इसी तरह पैदा हुए हैं.

इस स्कूल ने गांव वालों की उम्मीदें जगा दी है. ग्राम प्रधान विजय अंगरिया कहते हैं, वह खुद तो कभी पढ़ नहीं पाए, बच्चे सुधर जाएंगे. वहीं गीता गगराई कहती हैं, उनके पास तो कपड़ा खरीदने तक की औकात नहीं है. बच्चे पढ़ जाएंगे तो शायद जीवन बदल जाए.

फ्रांसिस मुंडा खुद मेगाहातूबुरू में रहते हैं. यहां स्टील अथॉरिटी ऑफ इंडिया (सेल) आइरन की ओर से खनन का काम करते हैं. वहां से रांगरिंग हर दिन आते हैं, चाहे हालात कैसे भी हो. वह कहते हैं- जंगल में वैसे तो कोई दिक्कत नहीं होती है, बस जानवरों का डर रहता है. इस 6 महीने में कई बार भालू ने घेरा है लेकिन वह बच-बचाकर किसी तरह स्कूल और फिर वहां से घर पहुंच ही जाते हैं. उनकी इच्छा है कि जिस दिन स्कूल का पक्का भवन बन जाएगा, वह अपने पैसे से गांव वालों को भोज देंगे.

इतने दुरूह इलाके में ही आकर वह क्यों पढ़ा रहे हैं. फ्रांसिस कहते हैं- एक स्वयंसेवी संस्था है जहां वह काम करते हैं. वह उन्हें इस काम के बदले 6 हजार रुपए महीने देती है. 31 मार्च तक का कॉन्ट्रैक्ट है. वह चलता रहे या फिर खत्म हो जाए, इन तीन गांवों के बच्चों को पढ़ाना नहीं छोड़ेंगे.

असर संस्था की एक रिपोर्ट के मुताबिक झारखंड में 5वी तक के 34 प्रतिशत बच्चे ही दूसरी कक्षा के पाठ पढ़ पाते हैं. वहीं 70 प्रतिशत छात्र तीसरी तक नहीं पढ़ पाते हैं. आठवीं कक्षा तक के 56 प्रतिशत बच्चों को भाग देना नहीं आता.

केंद्रीय बजट 2020 में शिक्षा के लिए 99,300 करोड़ रुपए का प्रावधान किया गया है. उसमें रांगरिंग जैसे गांव कहां आते हैं यह तो शोध का विषय है. देश के ऐसे इलाके जहां स्कूल ही नहीं खुले हैं, भला वहां शिक्षा का अधिकार जैसे कानून भी रेंगते नजर आते हैं. ऐसे में रांगरिंग जैसे गांव में स्कूल का पहली बार पहुंचना और वहां फ्रांसिस मुंडा जैसे शिक्षकों का समर्पण ही इस राज्य में शिक्षा की स्थिति को बेहतर बना सकता है.

रांगरिंग गांव की सूरत बदलने की ओर एक कदम बढ़ा चुका यह स्कूल फिलहाल कोविड-19 की वजह से बंद चल रहा है. उम्मीद की जानी चाहिए कोविड के बाद की दुनिया में इन गांवों के बच्चों के लिए भी नई सुबह होगी.

(आनंद दत्ता स्वतंत्र पत्रकार हैं)

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