नई दिल्ली: अपने वकीलों से घिरे हुए और मीडिया के सवालों की आवाज़ों के बीच, सुरेंद्र कोली बुधवार देर शाम जेल से बाहर निकला. उसने मास्क पहन रखा था, नज़रें झुकी हुई थीं और वह चुपचाप एक गाड़ी में बैठ गया — लगभग 20 साल बाद एक आज़ाद इंसान की तरह.
कोली, जिसे कभी 2005-2006 के निठारी हत्याकांड में मौत की सज़ा सुनाई गई थी, पत्रकारों से बात करने से बचता रहा. सुप्रीम कोर्ट द्वारा उसके खिलाफ आखिरी लंबित बलात्कार और हत्या के मामले में बरी किए जाने के एक दिन बाद वह जेल से बाहर आया.
मुख्य न्यायाधीश बी.आर. गवई और जज सूर्यकांत और विक्रम नाथ की पीठ ने आदेश दिया कि उसे “तुरंत रिहा किया जाए”, यह कहते हुए कि लंबे समय तक चली जांच के बावजूद असली अपराधी की पहचान कानूनी मानकों के अनुसार साबित नहीं हो सकी.
जेल अधिकारियों ने बताया कि कोली शांत और स्थिर स्वभाव का था. वह ज़्यादातर अपने में रहता था और सोमवार को सुप्रीम कोर्ट का फैसला सुनने के बाद भी ज़्यादा प्रतिक्रिया नहीं दी.

कोली से कुछ मिनट पहले पैरोल पर रिहा हुए एक कैदी ने उसे ‘डॉक्टर साहब कोली’ कहकर संबोधित किया, लेकिन इसका कोई कारण नहीं बताया.
इस फैसले के साथ ही, कोली, जिसे कभी फांसी की सज़ा दी गई थी, दिसंबर 2006 में गिरफ्तारी के बाद पहली बार जेल से बाहर निकला — आज़ाद व्यक्ति के रूप में.
फांसी की सज़ा से बरी होने तक
कोली, जो व्यापारी मोनिंदर सिंह पंढेर का घरेलू कर्मचारी था, उस पर आरोप था कि उसने निठारी इलाके के कई बच्चों का अपहरण, बलात्कार और हत्या की. दिसंबर 2006 में पंढेर के बंगले के पीछे नाले से कम से कम आठ बच्चों के कंकाल मिलने के बाद इन हत्याओं का खुलासा हुआ.
दोनों पर कई मामलों में एक जैसे सबूतों के आधार पर आरोप लगाए गए. सालों बाद, इलाहाबाद हाईकोर्ट ने जांच में गड़बड़ियों, भरोसेमंद न होने वाले इकबालिया बयानों और प्रक्रिया में हुई गलतियों का हवाला देते हुए, 12 मामलों में दोनों को बरी कर दिया.
जुलाई में, सुप्रीम कोर्ट ने इन बरी किए जाने के फैसलों को बरकरार रखा और कहा कि कोली और पंढेर के खिलाफ इस्तेमाल किए गए सबूत “न्यायिक जांच में टिक नहीं पाए”.
कोली की हालिया क्यूरेटिव पिटीशन (अंतिम पुनर्विचार याचिका) उस एकमात्र मामले से जुड़ी थी, जिसमें अब तक उसकी सज़ा और फांसी का आदेश कायम था.
अपने फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने माना कि यह मामला “क्यूरेटिव इंटरवेंशन” (अंतिम हस्तक्षेप) के लिए ज़रूरी कड़े मानकों को पूरा करता है.
कोर्ट ने कहा कि कोली का इकबालिया बयान कानूनी रूप से गलत था और जिन चीज़ों की बरामदगी दिखाई गई, वे “कानूनी शर्तों पर खरी नहीं उतरीं.” बेंच ने टिप्पणी की जब सबूत नाकाम हो जाएं, तो “एकमात्र कानूनी नतीजा यही होता है कि सज़ा को रद्द किया जाए, चाहे अपराध कितना भी भयावह क्यों न हो.”
‘सिस्टम की कमज़ोरी’
कोली की वकील पयोषी रॉय ने इस फैसले को “19 साल की लंबी लड़ाई के बाद राहत का पल” बताया, लेकिन साथ ही कहा कि यह फैसला भारतीय न्याय प्रणाली की “गहरी और अंधेरी खामियों का आईना” भी है.
उन्होंने दिप्रिंट से कहा, “यह फैसला हमारे सिस्टम की कमज़ोरी और भारत में मौत की सज़ा कैसे काम करती है, दोनों को उजागर करता है.”
उन्होंने कहा, “यह वही केस है जिसे सुप्रीम कोर्ट ने दो बार अपील और रिव्यू में देखा था और हर बार मौत की सज़ा को बरकरार रखा था. आज वही कोर्ट, उसी सबूतों के आधार पर, खुद मान रही है कि पहले उसे बरी कर देना चाहिए था और उसने गलती की थी.”
2014 से कोली का प्रतिनिधित्व सीनियर एडवोकेट योग मोहित चौधरी, एडवोकेट पयोषी रॉय और सिद्धार्थ शर्मा कर रहे हैं.
रॉय ने कहा कि यह फैसला भले उनके सालों के प्रयास को सही साबित करता है, लेकिन इससे कोली के परिवार ने जो झेला, वह मिटाया नहीं जा सकता.
उन्होंने कहा, “वह और उसका पूरा परिवार तबाह हो गया. मीडिया ने इसमें बड़ी भूमिका निभाई. शुरुआती वर्षों में उसे बलात्कारी, नरभक्षी और ‘नोएडा का दरिंदा’ तक कहा गया.”
रॉय ने बताया कि “उसके परिवार की नौकरियां चली गईं; वो गरीब और हाशिये पर जीने वाले लोग हैं जिन्हें सिर्फ ज़िंदा रहने के लिए ‘निठारी के नरभक्षी’ का टैग अपने से अलग करना पड़ा.”
उन्होंने आगे कहा, “हालांकि, यह एक राहत का पल है, लेकिन यह किसी भी तरह से खुशअंत वाली कहानी नहीं है. उनमें गहरी निराशा है. उसने खुद अपनी जिरहें कीं, खुद अपना केस लड़ा — सिर्फ इस पल तक पहुंचने के लिए.”
रॉय ने जांच प्रक्रिया की भी आलोचना की और इसे “झूठ और बनावट पर आधारित केस” बताया.
उन्होंने कहा, “यह ऐसा मामला नहीं था जिसमें सबूत मेल नहीं खा रहे थे — उन्हें पता था कि वह गलत व्यक्ति के पीछे पड़े हैं.”
उन्होंने बताया कि कोली को उसका इकबालिया बयान लेने से पहले 60 दिनों तक हिरासत में रखा गया था.
उन्होंने कहा, “यह पल अदालतों और जांच एजेंसियों के लिए गहरी सोच और आत्ममंथन का समय है — यह समझने का कि कैसे बार-बार एक ही पैटर्न दोहराया जाता है — यानी अपराध होता है, फिर सनसनी फैलाई जाती है, भयानक और ‘नरभक्षी’ जैसे नैरेटिव गढ़े जाते हैं ताकि सबूतों की गहराई से जांच ही न हो. यह हमेशा कमज़ोर और हाशिये पर खड़े लोगों को बलि का बकरा बनाकर ताकतवरों को बचाने की कहानी रही है.”
कोली की रिहाई के साथ भारत के सबसे भयावह आपराधिक मामलों में से एक का अंत हुआ — एक ऐसा केस जिसने अपने डरावने पहलुओं से देश को झकझोर दिया और समाज की सामूहिक चेतना पर गहरा निशान छोड़ा.
फिलहाल, कोली 19 साल की कैद से आज़ाद हो गया है, लेकिन उसके पीछे रह गए हैं कई परेशान करने वाले सवाल — न्याय, जांच और जनभावनाओं के अंधे गुस्से के साये पर.
(इस रिपोर्ट को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)
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