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Friday, 22 November, 2024
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सिविल सेवकों को सजा के रूप में दी गई पोस्टिंग का शगल तो बदल गया है लेकिन इससे जुड़ी शर्मिंदगी आज भी है कायम

दिप्रिंट ने जिन अधिकारियों से बात की वे पनिशमेंट और गैरेज पोस्टिंग को अलग- अलग मानते हैं . उनमें से कई कम काम काज वाले विभाग मे डाले जाने के अपमान से डरते हैं.

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दिल्ली, मुंबई और यहां तक कि चंडीगढ़ भी वैसे शहर हैं जहां हर कोई रहना चाहता हैं. दूसरी ओर, अरुणाचल प्रदेश, नागालैंड और लद्दाख बकवास जगहें मानी जाती हैं. भारत की भारी-भरकम नौकरशाही के गलियारों में पोस्टिंग (नियुक्ति) के साथ हमेशा दंड या इनाम वाला कारक जुड़ा होता है. यह वह माध्यम या उपकरण है जिसे राजनैतिक आकाओं द्वारा अपने माततहत काम करने वाले अधिकारियों को, विशेष रूप से विदेश, प्रशासनिक, पुलिस और राजस्व सेवाओं में सेवा करने वाले अधिकारियों को, डराने और नियंत्रित करने के लिए किया जाता है.

इन अनौपचारिक और अलिखित नियमों ने ही ‘गैरेज पोस्टिंग’, ‘सूटकेस अधिकारी’, ‘काला पानी’ जैसे शब्दों को जन्म दिया है. खासतौर से, पूर्वोत्तर की प्रतिष्ठा काफी खराब है. वप्पला बालचंद्रन, एक राष्ट्रीय सुरक्षा विशेषज्ञ और सेवानिवृत्त आईपीएस अधिकारी, जो विशेष सचिव, कैबिनेट सचिवालय आदि के रूप में भी काम कर चुके हैं, वो कहते हैं, ‘पूर्वोत्तर के लोग मध्य भारत के अधिकारियों को ‘सूटकेस अधिकारियों’ के नाम से बुलाते हैं. वे अपने सूटकेस के सहारे ही वहां रहते हैं और हर वक्त उम्मीद करते हैं कि उन्हें जल्द ही वहां से ट्रांस्फर कर दिया जाएगा.’

भले ही केंद्र में एक नियुक्ति समिति है और राज्यों में मुख्यमंत्री कार्यालय के अधीन भी ऐसी ही समितियां हैं, मगर दिप्रिंट ने जिन भी सिविल सेवकों से बात की, उन्होंने स्वीकार किया कि किसी भी अधिकारी को उसकी जगह बताने के मकसद से सभी नियुक्तियां सत्ताधारी सरकार की इच्छा के अनुसार ही की जाती हैं. बिना किसी निर्धारित नियमों के स्थानांतरण, पद से हटाने और पोस्टिंग (नियुक्ति) की प्रक्रिया को आम तौर पर ‘शेक-अप’ के रूप में देखा जाता है लेकिन इसके फायदे और नुकसान दोनों हैं. किसी भी अधिकारी को सबक सिखाने के लिए सरकारें अक्सर उन्हें सुदूर या कम विकसित क्षेत्र में भेज देती हैं. लेकिन, इसी प्रक्रिया में उस खास जगह के लिए भी प्रतिकूल धारणा बन जाती है.

‘कोई निष्पक्षता नहीं, कोई नियम नहीं’

पिछले कई सालों में इस चलन में बहुत कम बदलाव आया है लेकिन पोस्टिंग कैसे की जाती है, इस बारे में अस्पष्टता का आलम तब सामने आया जब गृह मंत्रालय ने हाल ही में दो आईएएस अधिकारियों, जो पति- पत्नी थे उनका उस समय तबादला कर दिया गया जब एक मीडिया रिपोर्ट ने दावा किया कि उन्होंने अपने कुत्ते को घूमने के लिए एक स्टेडियम को जल्दी बंद कर दिया था. सरकार ने इस आरोप की जांच शुरू करने की भी जहमत नहीं की. हालांकि इस रिपोर्ट प्रकाशित होने के कुछ ही घंटे बाद और सोशल मीडिया पर व्यक्त की जा रही नाराजगी के बीच, इस दंपत्ति को अलग कर दिया गया और उन्हें अलग-अलग पोस्टिंग थमा दी गई. वरिष्ठ आईएएस अधिकारी संजीव खिरवार को लद्दाख स्थानांतरित कर दिया गया, और उनकी पत्नी रिंकू दुग्गा को अरुणाचल प्रदेश भेज दिया गया.

ये दोनों पोस्टिंग (नियुक्तियां) एजीएमयूटी (अरुणाचल प्रदेश-गोवा-मिजोरम और केंद्र शासित प्रदेश) कैडर का हिस्सा हैं और ये दोनों अधिकारी भी इसी कैडर के हैं. एजीएमयूटी कैडर के तहत किसी भी अधिकारी को पूर्वोत्तर राज्यों या अन्य केंद्र शासित प्रदेशों में तैनात किया जा सकता है. हालांकि, इन तबादलों को एक सजा के रूप में दिखाया गया था जिसके वजह से आक्रोश उत्पन्न हुआ.

टी आर रघुनंदन, एक पूर्व आईएएस अधिकारी, दंडात्मक नियुक्ति को तदर्थ (एड-हॉक) और मनमाना मानते हैं: उनका कहना है, ‘कोई निष्पक्षता नहीं है, कोई बारीकियां नहीं हैं और कोई नियम नहीं है. यह पहले से चली आ रही परंपराओं की परिणति है लेकिन इस सरकार के तहत चीजें अधिक धूमिल हो गई हैं. उन्हें किसी अधिकारी या कानून की कोई परवाह नहीं है.’

रघुनंदन ने अपने उन अनुभवों को याद किया जब वह और उनकी पत्नी, जो एक भारतीय लेखा परीक्षा और लेखा सेवा (आईएएएस) अधिकारी हैं, को भिन्न- भिन्न स्थानों पर तैनात किया गया था. वे कहते हैं, ‘यह एक काफी कष्टदायक अनुभव था क्योंकि उस समय मेरी पत्नी गर्भवती थी. वह एकदम अकेली थी और हम अपने बच्चे को खोने ही वाले थे. मेरे बेटे का जन्म एक आपात स्थिति में हुआ था. मुझे अपनी वरिष्ठ अधिकारियों की ओर से बहुत सी जातिवादी बदजुबानी का सामना करना पड़ा जो हमारे अंतर्जातीय विवाह पर सवाल उठाते थे.’


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अनौपचारिक ढंग से निकाला जाना

आधुनिक भारतीय इतिहास उन ‘शक्तिशाली’ सिविल सेवकों के उदाहरणों से भरा है जिनका कद राजनीतिक नेताओं द्वारा छोटा कर दिया गया. प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने 1986 में अपने विदेश सचिव एपी वेंकटेश्वरन, आईएफएस, को एक सार्वजनिक मंच पर पद से हटा दिया था.

वेंकटेश्वरन ने यह घोषणा की थी कि गांधी सार्क देशों की राजधानियों का दौरा करेंगे लेकिन एक महीने बाद ही पीएम ने कहा कि उनकी इस्लामाबाद जाने की तत्काल कोई योजना नहीं है. जब एक पाकिस्तानी पत्रकार ने उन दो बयानों में विसंगतियों की ओर इशारा किया तो राजीव गांधी ने कहा, ‘आप जल्द ही एक नए विदेशी सचिव से बात कर रहे होंगें’. इसी वाकये ने 35 वर्षों के सेवा में अपने शानदार करियर के बावजूद इस अधिकारी को अनौपचारिक रूप से बाहर का रास्ता दिखा दिया.

भारत की पहली महिला आईपीएश अधिकारी किरण बेदी को कई बार ‘पनिशमेंट’ वाले तबादलों का सामना करना पड़ा क्योंकि उन्होंने खुद की बात पर कायम रहने और सत्तारूढ़ सरकार की मांगों को नहीं मानने का फैसला किया था. बेदी के तबादलों की श्रृंखला दिल्ली से गोवा में उनके स्थानांतरण के साथ तब शुरू हुई, जब उन्होंने डीसीपी, यातायात के रूप में, पूर्व प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी के करीबी शक्तिशाली नौकरशाहों पर जुर्माना ठोक दिया था.

व्हिसलब्लोअर को  बनाया जाता है निशाना 

अक्सर, सरकारों का खेल बिगाड़ने का खतरा उत्पन्न करने वाले अधिकारियों को पनिशमेंट पोस्टिंग दी जाती है. मिसाल के तौर पर आईएएस अधिकारी अशोक खेमका का 33 साल की सेवा में 52 बार तबादला हो चुका है. इनमें से ज्यादातर तबादले इसलिए हुए क्योंकि उन्होंने व्हिसलब्लोअर (राज फास करने वाले) की भूमिका निभाई और सरकारी विभागों में अनियमितताओं की पहचान की.

दिप्रिंट के साथ हाल ही में एक साक्षात्कार के दौरान बात करते हुए पूर्व कोयला और शिक्षा सचिव और एक रिटायर्ड आईएएस अधिकारी अनिल स्वरूप ने बताया कि कैसे एक दशक से अधिक समय पहले उनके कैडर वाले राज्य में एक राजनीतिक व्यक्ति के खिलाफ मामला शुरू करने का आदेश जारी करने की वजह से उनका तबादला कर दिया गया था. उन्होंने कहा, ‘एक समय ऐसा भी था जब मैं इन तबादलों के प्रति बेपरवाह हो गया था और मैंने इसे एक और असाइनमेंट (कार्यभार) के रूप में लिया.’

आईपीएस अधिकारी डी रूपा, जिनका कथित तौर पर भ्रष्टाचार के खिलाफ खड़े होने के लिए अपने करियर के 20 वर्षों में कम से कम 42 बार तबादला हो चुका है, कहती हैं कि पनिशमेंट पोस्टिंग जैसी कोई चीज होती ही नहीं है. वे कहती हैं, ‘यह अधिकारी लोग ही हैं जिन्होंने अनौपचारिक रूप से कुछ नियुक्तियो को प्राइम (खास) या नॉनडेस्क्रिप्ट (मामूली) और पनिशमेंट पोस्टिंग के रूप में इकट्ठा कर दिया है.’ हालांकि, रूपा स्वीकार करती हैं कि केवल दागी अधिकारियों का ही तबादला नहीं किया जाता है, बल्कि ऐसे व्हिसलब्लोअर भी होते हैं, जिन्हें ‘नॉनडिस्क्रिप्ट’ पद मिलते हैं. वे कहती हैं, ‘नॉनडिस्क्रिप्ट पदों को पनिशमेंट पोस्टिंग के रूप में वर्णित करना अनुचित है क्योंकि इन जगहों पर भी अच्छे अधिकारियों की आवश्यकता होती है.’ हालांकि, हर कोई इसे इस तरह नहीं देखता, और इन पदों को ना चाहने वाले लोग आज भी इन पोस्टिंग का वर्णन करने के लिए ‘काला पानी’ जैसे शब्द का इस्तेमाल करते हैं. माना जाता है कि काले पानी को पार करने वाला व्यक्ति अपनी प्रतिष्ठा खो देता है.

भारत में ऐसी कई सारी ‘काला पानी’ वाली नियुक्तियां हैं जो सिर्फ पूर्वोत्तर तक सीमित नहीं हैं. पूर्व, मध्य और दक्षिण भारत में क्रमशः छत्तीसगढ़, बिहार, ओडिशा, पश्चिम बंगाल, केरल जैसे राज्यों के कई जंगली और अल्प विकसित क्षेत्र हैं जहां नियमित रूप से अधिकारियों को उन्हें सबक सिखाने के लिए ट्रांसफर किया जाता है.

टी आर रगुनंदन, जो अब लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय प्रशासन अकादमी (मसूरी) में अतिथि व्याख्याता (गेस्ट लेक्चरर ) हैं, बताते हैं कि कैसे कर्नाटक जैसे कुछ राज्य कुछ पदों के लिए किसी गैर-कन्नडिगा के तुलना में एक कन्नड़ अधिकारी को अधिक पसंद करते हैं और कैसे वहां भी कुछ क्षेत्रों को ‘कालापानी’ के रूप में माना जाता है. वे कहते हैं, गुलबर्गा (कालाबुरागी) ऐसा ही एक जिला है. कोई भी वहां नहीं जाना चाहता और सरकार उनके सिर पर गुलबर्गा में संभावित स्थानांतरण की धमकी लटकाए रहती है.’

गैराज बनाम पनिशमेंट पोस्टिंग

दिप्रिंट ने जिन अधिकारियों से बात की उन्होंने पनिशमेंट और गैरेज पोस्टिंग के बीच फर्क बताया. कई लोगों को काम ना करने वाले या कम काम करने वाले विभाग में पार्क किए जाने (बिना मतलब के खड़ा किए जाने) के अपमान का डर सताता रहता है. एक आईएएस अधिकारी कहते हैं, ‘हम इसे ‘गैरेज पोस्टिंग’ कहते हैं, क्योंकि इसका मतलब यह होता है कि किसी अधिकारी को खराब प्रदर्शन करने वाले किसी ऐसे विभाग या मंत्रालय में एक कार की तरह ‘पार्क’ किया गया है, जिसका कोई महत्व नहीं है.’

सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय में सचिव के रूप में अपनी सेवा देने वाली रिटायर्ड आईएएस अनीता अग्निहोत्री के अनुसार, इस तरह के तबादले, पनिशमेंट या गैरेज पोस्टिंग, कभी भी जनहित में नहीं होते हैं. उनका कहना, ‘दुख तब होता है जब सरकार कुछ बुनियादी सिद्धांतों और इस सेवा के अनुशासन का पालन करने वाले अधिकारियों के साथ मनमाने ढंग से ऐसा करती है. सरकार स्पष्टीकरण मांग सकती है या फिर विभागीय जांच शुरू कर सकती है लेकिन मनमाने ढंग से तबादला कोई रास्ता नहीं हो सकता.’ उन्होंने एक उदाहरण याद किया जब सुंदरगढ़ (उड़ीसा में) साक्षरता अभियान का नेतृत्व करते हुए अचानक से उनका तबादला कर दिया गया था. नतीजतन, इस सारी परियोजना को भारी नुकसान हुआ.


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आगे की राह

एक वरिष्ठ आईपीएस अधिकारी, जिनका 50 से अधिक बार तबादला हो चुका है उन्होंने सुझाव दिया कि सरकार उन्हें शिकायत के निवारण के लिए एक माध्यम प्रदान करे. इस अधिकारी ने कहा ‘एक स्थानांतरण समीक्षा समिति (ट्रांसफर  रिव्यू कमिटी) होनी चाहिए, जिसके समक्ष पीड़ित अधिकारियों को अपना पक्ष रखने का अवसर मिल सके. न्यायिक प्रक्रिया का सहारा लेना इतना महंगा और परेशानी भरा है कि कोई भी अधिकारी अब इस तरह का रास्ता अपनाने की हिम्मत नहीं करता.’

राजनीतिक नेता भी कुछ क्षेत्रों या विभागों को उनके ध्यान के योग्य नहीं मानकर इस तरह की रूढ़ियों को बनाए रखने के दोषी हैं.

आम आदमी पार्टी के सांसद राघव चड्ढा की उस हालिया टिप्पणी से काफी आक्रोश फैल गया था जिसके तहत उन्होने एक साक्षात्कार में कहा था कि अच्छा काम ना करने वाले अधिकारियों को आदिवासी मामलों के विभाग में ट्रांसफर किया जा सकता है.

जब साक्षात्कारकर्ता ने उन्हें टोका और इस टिप्पणी पर सवाल उठाया, तो चड्ढा ने जवाब दिया, ‘हां मुझे यह पता है. मैं बस अपनी बात  समझाने की कोशिश कर रहा था. या फिर उन्हें ऐसे मामले में बागवानी या पशुपालन विभाग में भी स्थानांतरित किया जा सकता है.’

एक अन्य वरिष्ठ आईपीएस अधिकारी, जिन्होंने सीबीआई और केंद्र सरकार के कई अन्य पदों पर कार्य किया है, का मानना है कि सरकार को इन तबादलों के इर्द गिर्द व्याप्त नकारात्मकता को दूर करने के लिए और अधिक सक्रिय होना चाहिए. वे कहते हैं, ‘इन इलाकों को बढ़ावा देने के लिए सरकार को इन स्थानों को इनाम वाली पोस्टिंग की तरह बनाना चाहिए. इसे ऐसे स्थानों के रूप में प्रस्तुत किया जाना चाहिए जहां केवल सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करने वाले अधिकारी ही जाएंगे. यह सरकार ही है जो पूर्वोत्तर राज्यों जैसे स्थानों के लिए इस तरह का लांछन पैदा करती है और इसे इस तरह से बढ़ावा देती है.’

(इस खबर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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