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Friday, 26 April, 2024
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निरस्त कानून के तहत कोयला घोटाले में तीन अधिकारियों को दोषी ठहराया गया

सरकारी अधिकारियों ने एचसी गुप्ता और दो अन्य आईएएस अधिकारियों को भ्रष्टाचार निवारक कानून की धारा 13(1)(डी)(iii) के तहत दोषी ठहराए जाने पर आक्रोश व्यक्त किया.

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नई दिल्ली: सरकारी कर्मचारियों की एक पुरानी नाराज़गी पिछले सप्ताह दोबारा सामने आई, जब कोयला घोटाला मामले में तीन आईएएस अधिकारियों को उस कानूनी प्रावधान के तहत दोषी ठहराया गया जिसे हाल ही में रद्द कर दिया गया था.

भ्रष्टाचार निवारक कानून 1988 में इसी साल, इसकी धारा 13 के उस हिस्से को निरस्त करने के लिए संशोधन किया गया था,जोकि सरकारी कर्मचारियों के आपराधिक कदाचार से संबंधित है.

पूर्व कोयला सचिव एचसी गुप्ता तथा दो अन्य आईएएस अधिकारियों समेत पांच लोगों के खिलाफ़ सीबीआई ने कानून की जिन धाराओं के तहत मामला चलाया उनमें धारा 13(1)(डी)(iii) भी शामिल थी. इन सब पर यूपीए सरकार के कार्यकाल में दो कोयला खदानों के आवंटन में अनियमितता बरतने का आरोप लगाया गया था. (धारा 13 के उक्त अंश को निरस्त किए जाने से काफी पहले मामले में चार्जशीट दाखिल की जा चुकी थी.)

विवादित प्रावधान के अनुसार एक सरकारी कर्मचारी आपराधिक कदाचार का दोषी माना जाएगा, यदि सरकारी पद पर रहते हुए, वह बिना सार्वजनिक हित के किसी भी व्यक्ति के लिए कोई कीमती चीज या आर्थिक लाभ प्राप्त करता है.

अस्पष्ट भाषा में वर्णित प्रावधान में ‘सार्वजनिक हित’ का कोई निश्चित मतलब तय नहीं था, और इसके तहत कदाचार से अनजान होने के बावजूद अधिकारियों को अपराध में शामिल माना जा सकता था. कदाचार होने का तथ्य मात्र किसी अधिकारी को उस मामले से जोड़ने के लिए काफी था.

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‘तहेदिल से स्वागत’

जहां आलोचकों ने धारा 13 में संशोधन को भ्रष्टाचार निवारक कानून को हल्का बनाने का प्रयास बताया था, सरकारी अधिकारियों ने इसका स्वागत करते हुए कहा था कि इससे मामले में झूठा फंसाए जाने के डर के बिना बड़े फैसले करना आसान हो सकेगा.

संशोधन किए जाने के कुछ सप्ताह बाद दिप्रिंट से बातचीत में आईएएस एसोसिएशन के अध्यक्ष राकेश श्रीवास्तव ने कहा था, ‘हम तहेदिल से इस कदम का स्वागत करते हैं क्योंकि, कम से कम, अब किसी मामले में संबंधित अधिकारी के दुर्भावनापूर्ण इरादे को साबित करना होगा.’

उन्होंने कहा, ‘साथ ही, निर्दोष अधिकरियों को अब सिर्फ इसलिए दंडित नहीं किया जा सकेगा कि अनजाने में किए गए किसी गलत फैसले से सरकार को आर्थिक नुकसान हुआ है.’

जैसा कि उम्मीद थी, आईएएस अधिकारियों गुप्ता, केएस क्रोफ और केसी समारिया को इस सख्त प्रावधान के तहत दोषी ठहराए जाने पर अनेक आईएएस अधिकारियों ने सोशल मीडिया पर अपनी भड़ास निकाली है.

आईएएस एसोसिएशन के सचिव अभिषेक चंद्रा ने दिप्रिंट से कहा, ‘इस कानून ने प्रक्रियागत भूलों के लिए भी अधिकारियों को दोषी माना.’

उन्होंने कहा, ‘अधिकारियों के पास दिन भर में 50-60 फाइलें आती हैं. यदि हम हर फाइल में लिखी प्रत्येक बात की सत्यतता तय करने में लग जाएं तो किसी के लिए भी फैसले लेना संभव नहीं होगा.’

चंद्रा ने कहा, ‘यदि ईमानदार अधिकारियों का यही हश्र होता है, तो फिर मैं लालफीताशाही से ही संतुष्ट हूं.’

उन्होंने कहा, ‘यदि कोई अधिकारी रिश्वत लेते पकड़ा जाता है या उसे भ्रष्टाचार के किसी मामले में पकड़ा गया है, तब निश्चय ही उसके खिलाफ़ मामला चलना चाहिए, और ज़रूरी हुआ तो उसे सलाखों के पीछे डाला जाना चाहिए. पर किसी अधिकारी को सिर्फ इसलिए अपराधी मान लेना बेतुका है कि किसी की राय में कोई काम बेहतर ढंग से हो सकता था.’

उनकी राय में ‘यह टाडा कानून के खत्म होने के बाद भी उसके तहत लोगों को दोषी ठहराते जाने जैसा है.’

चंद्रा आतंकवादी एवं विघटनकारी गतिविधि (निवारण) कानून का उल्लेख कर रहे थे. इस कानून के तहत मानवाधिकार उल्लंघन के आरोपों के बाद सरकार ने इसे खत्म हो जाने दिया था.

‘एक आवश्यक प्रावधान’

हालांकि वरिष्ठ वकील प्रशांत भूषण धारा 13(1)(डी)(iii) को आवश्यक बताते हैं. उन्होंने भ्रष्टाचार निवारक कानून में संशोधन को चुनौती देते हुए दलील दी है कि इसने कानून को अप्रभावी बना दिया है और भ्रष्टाचार के अवसर बढ़ गए हैं.

उन्होंने कहा, ‘धारा 13(1)(डी)(iii) इसलिए लाई गई थी कि रिश्वत के प्रत्यक्ष सबूत जुटाना अक्सर संभव नहीं हो पाता है. साथ ही, कोई ज़रूरी नहीं कि हमेशा कदाचार का कारण रिश्वत ही हो. किसी अधिकारी को अच्छी पोस्टिंग, पदोन्नति आदि का लाभ भी दिया जा सकता है.’

भूषण ने कहा, ‘एचसी गुप्ता मामले की बात करें तो उन्हें मालूम था कि अयोग्य कंपनियों को आवंटन किए जा रहे हैं, इसलिए ज़ाहिर है उन्होंने अपने अधिकारों का दुरुपयोग किया.’

पर चंद्रा इस दलील को खारिज करते हुए सवाल करते हैं कि क्यों बड़े लोगों को छूट जाने दिया गया और सिर्फ तीन अधिकारियों के पीछे पड़ा गया.

उन्होंने कहा, ‘सचिव स्तर के किसी अधिकारी को 500 करोड़ रुपये से अधिक के वित्तीय मामलों में निर्णय को मंज़ूरी देने तक का अधिकार नहीं होता. मंत्रिमंडल सर्वोच्च प्राधिकरण है… उसकी सहमति के बिना ये तीनों अधिकारी फैसले लेने की स्थिति में भी नहीं थे.’

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