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Saturday, 23 November, 2024
होमदेशरेजिडेंट वेलफेयर एसोसिएशन का ‘तानाशाही गणराज्य’- एक दूसरी बड़ी समस्या जो कोविड ने देश में पैदा की

रेजिडेंट वेलफेयर एसोसिएशन का ‘तानाशाही गणराज्य’- एक दूसरी बड़ी समस्या जो कोविड ने देश में पैदा की

कॉलोनी, अपार्टमेंट्स और इलाक़ाई हिसाब से निवासियों द्वारा चुना गईं आरडब्लूएज़ या मैनेजमेंट बॉडीज़, दिल्ली-एनसीआर से लेकर बेंगलुरू तक भारतीय महानगरों का एक प्रमुख आधार बन गई हैं.

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दिल्ली के नवजीवन विहार में एक सब्ज़ी विक्रेता ने कहा कि मार्च में उसे और दो अन्य लोगों को स्थानीय वेल्फेयर एसोसिएशन ने ज़बर्दस्ती उस पॉश कॉलोनी से बाहर कर दिया. अनलॉक के कई महीनों के बाद आख़िरकार सितंबर में उन्हें अंदर आने दिया गया वो भी तब जब उन्होंने मदद के लिए पुलिस से गुहार लगाई.

मार्च में जैसे ही कोविड-19 लॉकडाउन शुरू हुआ पड़ोसियों, मकान- मालिकों और आरडब्लूएज़ के हाथों डॉक्टरों को परेशान करने और उन्हें ज़बर्दस्ती बाहर करने की धमकी की ख़बरें आने लगीं. डॉक्टर्स कोविड-19 से लड़ाई में अगले मोर्चे पर थे और उन्हें संक्रमण का ख़तरा माना जा रहा था. इसी तरह का अनुभव उन एयरलाइन क्रू मेम्बर्स का भी रहा, जो कोविड-19 महामारी के दौरान विदेशों में फंसे भारतीयों को वापस लाने के काम में लगे थे. एयर इंडिया ने मजबूरन एक बयान जारी करके आरडब्लूएज़ की कड़ी निंदा की.

एनसीआर के गुड़गांव और नोएडा जैसे उपनगरों की आवासीय सोसाइटियों से भी ख़बरें आईं कि घरेलू काम करने वालों को लिफ्ट इस्तेमाल करने से रोक दिया गया. इन आदेशों का मक़सद कोविड संक्रमण के ख़तरे से बचना बताया गया. गुड़गांव की एक सोसाइटी में कथित रूप से एम्प्लॉयर्स से कहा गया कि घरेलू काम करने वालों को लॉबी से ही लें और वहीं पर छोड़ें. ताकि वो लिफ्ट इस्तेमाल न करें. इसी तरह नोएडा की एक सोसाइटी ने लिफ्ट पूरी तरह बंद ही कर दी, जिससे उन्हें मजबूरन कई-कई माले सीढ़ियां चढ़कर जाना पड़ा.

पिछले महीने, बेंगलुरू के टेक हब व्हाइटफील्ड में एक आवासीय परिसर की आरडब्लू ने सर्कुलर जारी किया, जिसमें कहा गया कि पुलिस ने सभी सोसाइटियों से उनके यहां रहने वालों की जानकारियां मांगी हैं. ‘ख़ासकर’ किराए पर या अकेले रहने वाले अविवाहित/स्पिंसटर्स के बारे में. सर्कुलर के मुताबिक़, जो शहर में चल रहे कथित ड्रग रैकेट की जांच के दैरान जारी हुआ, ये अनुरोध तब आया जब पुलिस को पता चला कि ‘दूसरी सोसाइटियों में किराए के अपार्टमेंट्स में रहने वाले कुछ अविवाहित लोग नार्कोटिक्स/ड्रग्स रखने में शामिल पाए गए’. जो ब्यौरा मांगा गया उसमें ‘आपके अपार्टमेंट में रह रहे अविवाहित/स्पिंसटर का नाम, कॉन्टेक्ट नंबर’, यदि वो ‘अविवाहित/स्पिंसटर देर रात आते या जाते हों, तो उनका गाड़ी नंबर’, और ‘संदिग्ध गतिविधायां’ (देर रात की पार्टियां) आदि शामिल थीं.

दिप्रिंट को बाद में पुलिस से पता चला कि वो नोटिस फर्ज़ी था. व्हाइटफील्ड के पुलिस उप अधीक्षक (डीएसपी) ने बताया कि ग़लत जानकारी फैलाने के आरोप में उन्होंने सोसाइटी के खिलाफ कार्रवाई शुरू कर दी है. उन्होंने आगे कहा कि पुलिस ने आरडब्लूएज़ को सतर्क रहने के लिए कहा था. ‘लेकिन हमारा मतलब ये नहीं था’.

कॉलोनी, अपार्टमेंट्स और इलाक़ाई हिसाब से, निवासियों द्वारा चुना गईं आरडब्लूएज़ या मैनेजमेंट बॉडीज़, दिल्ली-एनसीआर से लेकर बेंगलुरू तक भारतीय महानगरों का एक प्रमुख आधार बन गई हैं.

जैसे-जैसे शहरों में ज़्यादा से ज़्यादा गेट वाली कॉलोनियां सोसाइटियां और अपार्टमेंट परिसर बनते जा रहे हैं, उनमें ऐसे छोटे समुदाय विकसित हो रहे हैं, जो ख़ुद को बाहरी दुनिया से संरक्षित रखते हैं और उनकी आरडब्लूएज़ एक अहम रोल अदा करती हैं. वो प्रशासन के साथ स्थानीय मुद्दों को उठाती हैं और अपनी सीमाओं के अंदर सुरक्षा आदि का बंदोबस्त करती हैं.

कोविड-19 महामारी जैसे चुनौती भरे समय में सरकारी अभियानों को ज़मीनी स्तर पर लागू कराने में ये संस्थाएं अहम भूमिका निभाती हैं.

लेकिन बहुत बार ये ऐसे आदेशों को लेकर सुर्ख़ियों में आ जाती हैं, जो निजी पूर्वाग्रह और सनक का नतीजा नज़र आते हैं और जिनका कोई क़ानूनी आधार नहीं होता.

मसलन, बहुत सी आरडब्लूएज़ किराएदार के तौर पर अविवाहित लोगों और पालतू जानवरों को रखने पर पाबंदी लगा देती हैं. कोविड-19 के दौरान दिल्ली और एनसीआर में बहुत सी आरडब्लूएज़ ने सरकार की ओर से लॉकडाउन नियमों में ढील दिए जाने के बाद भी घरेलू नौकरों और वेंडर्स की एंट्री पर पाबंदी को बरक़रार रखा- या उनके अंदर आने पर विवादास्पद शर्तें लगा दीं.

आरडब्लूएज़ ने कोविड-19 के दौरान अपनी कुछ विवादास्पद पाबंदियों को अपने निवासियों की सुरक्षा के लिए आवश्यक क़दम बताते हुए उन्हें जायज़ ठहराया है. लेकिन उनके व्यवहार की लगातार शिकायतें मिल रही हैं और बहुत से लोग उनके रवैये को तानाशाही और एकतरफा बता रहे हैं.

आरडब्लूए कैसे बनी

आरडब्लूएज़ सरकार का हिस्सा नहीं हैं. आरडब्लूएज़ स्वैच्छिक संगठन होते हैं, जिनका गठन सोसाइटीज़ रजिस्ट्रेशन एक्ट 1860 के अंतर्गत किया जाता है. इनके पास कोई वैधानिक शक्तियां नहीं होतीं, लेकिन ये एक मेमोरेण्डम ऑफ एसोसिएशन से शासित होती हैं, जो इनके उद्देश्य और कार्यों की रूपरेखा तय करता है. इन्हें एक विधिक व्यक्ति माना जाता है, जो मुक़दमा कर सकता है, या जिसके कार्यों के लिए उसपर मुक़दमा किया जा सकता है. लेकिन से संस्थाएं क़ानून के ख़िलाफ जाकर कोई नियम नहीं बना सकतीं.

इंस्टीट्यूट ऑफ इकॉनमिक ग्रोथ में समाजशास्त्र के प्रोफेसर, संजय श्रीवास्तव का कहना था, ‘आरडब्लूएज़ शहरीकरण का नतीजा हैं. 1970 के दशक में सहकारी आवास आंदोलन ने, शहरी शासन में आरडब्लूएज़ के एक बड़ी भूमिका निभाने का रास्ता साफ किया’.

उन्होंने आगे कहा, ‘1950 और 1960 के दशक में, सरकारें शहरों का निर्माण कर रहीं थीं, और उन्हें शहरों की ज़रूरतें पूरी करने में सक्षम माना जाता था. लेकिन बाद के दशकों में, स्थिति बदल गई’.

शहरों के विस्तार के साथ ही, सहकारी आवासों की मांग बढ़ती गई. इस रुझान के नतीजे में, 1969 में नेशनल को-ऑपरेटिव हाउसिंग फेडरेशन (एनसीएचएफ) ऑफ इंडिया का गठन हुआ, जो को-ऑपरेटिव हाउसिंग सोसाइटियों को बढ़ावा देने, और उनके कामकाज को सुगम बनाने वाली, एक शीर्ष संस्था थी.

इस मूवमेंट से भी आरडब्लूएज़ का विकास हुआ. हालांकि दोनों का मक़सद अपने निवासियों की भलाई को देखना है, लेकिन हाउसिंग को-ऑपरेटिव्ज़ और आरडब्लूएज़ कुछ मायनों में अलग हैं. हाउसिंग को-ऑपरेटिव्ज़ अकसर पुराने इलाक़ों में होती हैं, जहां इनका प्रमुख काम होता है संपत्ति का निर्माण और उसकी देखरेख. ये को-ऑपरेटिव्ज़ अलग अलग राज्यों के को-ऑपरेटिव एक्ट्स,और को-ऑपरेटिव सोसाइटी नियमों के हिसाब से चलती हैं.

इस बीच आरडब्लूएज़, नागरिक सुविधाओं की कुशल आपूर्ति की ज़रूरत के चलते वजूद में आईं, और ये अकसर सरकारी अधिकारियों और निजी व्यक्तियों के बीच वार्ताकार का काम करती हैं. अगर निवासियों को लगता है कि गाड़ियां उनकी लेन से, नियमित रूप से तेज़ी से निकलती हैं, जिससे पैदल चलने वालों को ख़तरा पैदा होता है, तो आरडब्लूए सरकार के पास जाकर सड़क पर स्पीड-ब्रेकर्स बनवाने का अनुरोध कर सकती है.

अन्य चीज़ों के अलावा, निवासियों की सुरक्षा की चिंताओं को देखते हुए, आरडब्लूए कॉलोनी के गेट्स पर गार्ड्स तैनात करके, प्रवेश प्रतिबंधित कर देती है.

इनका पंजीकरण सोसाइटी रजिस्ट्रेशन एक्ट के तहत होता है- ये क़ानून जनहित में लगी सोसाइटियों पर नज़र रखता है- लेकिन एक्सपर्ट्स ने दिप्रिंट को बताया, कि आमतौर पर इनके कामकाज को नियंत्रित करने के लिए कोई उप-नियम नहीं हैं.

कोविड-19 संकट के बीच, आरडब्लूएज़ ने सोशल मीडिया ग्रुप्स के ज़रिए, अपने निवासियों को आसपास के कोविड मामलों से, अवगत रहने में मदद की है.


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महामारी के दौरान गाइडलाइन्स उल्लंघन के मामलों को क़ाबू रखने में भी, ये सरकार की सहायक बनकर उभरी हैं.

स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय ने, महामारी के मद्देनज़र आरडब्लूएज़ के लिए, अनेक एडवाइज़रियां और गाइडलाइन्स जारी की हैं, जिनमें गेट वाली कॉलोनियों में बाहर से आने वालों की स्क्रीनिंग, और परिसर के अंदर सोशल डिस्टेंसिंग आदि शामिल हैं.

जुलाई में, दिप्रिंट ने ख़बर दी कि सरकार, शहरी स्वास्थ्य एवं वेलनेस सेंटर्स (एचडब्लूसीज़) के लिए, 7,000 करोड़ रुपए की एक महत्वाकांक्षी योजना बना रही है, जिसमें आरडब्लूएज़ की एक प्रमुख भूमिका रखी जाएगी.

महामारी को रोकने के सरकार के प्रयास में, सहायता करने का काम दिए जाने पर, देशभर में बहुत सी आरडब्लूएज़ ने आपस में मिलकर, अस्थाई क्वारंटीन सेंटर्स स्थापित किए, कोविड-पॉज़िटिव मरीज़ों को सलाह-मश्विरे दिए, और टेस्टिंग में भी स्थानीय सरकारों की सहायता की.

लेकिन, इस बीच हद से आगे बढ़ने, और भेदभाव के उदाहरण भी सामने आए हैं.

दिल्ली स्थित एक कार्डियोलॉजिस्ट, उपेंद्र कॉल ने ग्रेटर कैलाश-1 में अपनी आरडब्लूए पर मुक़दमा कर दिया, जब उन्होंने लॉकडाउन के दौरान ‘सुरक्षा उपायों के तहत’, कॉलेनी के सात में से छह गेट बंद कर दिए, और राहत देने के उनके अनुरोध को ठुकरा दिया. एकमात्र गेट जो खुला था, वो कॉल के घर से एक किलोमीटर दूर था, जिससे उनके बुज़ुर्ग पिता को परेशानी होती थी, जो गेट के बाहर पास के मंदिर तक चलकर जाते हैं.

कॉल ने कहा, ‘मैंने उन्हें कॉल किया, उन्हें लिखा, उनके साथ मीटिंग्स कीं. किसी से काम नहीं चला. उनसे गेट खुलवाने का एक ही रास्ता था, कि उनपर मुक़दमा कर दिया जाए, सो मैंने कर दिया’. कॉल ने आगे कहा, ‘उन्होंने कोरोनावायरस को दूर रखने के लिए ऐसा किया था, लेकिन इससे बेहद असुविधा होती थी, और इसका कोई वैज्ञानिक आधार नहीं था’.

लेकिन आरडब्लूएज़ ऐसे आरोपों से इनकार करती हैं.

नोएडा में आरडब्लूएज़ के एक समूह के प्रमुख, विमल शर्मा ने कहा, ‘हम किसी के ऊपर अपनी इच्छाएं नहीं थोप सकते. चीज़ें ऐसे काम नहीं करतीं’.

लॉकडाउन के लागू किए जाने के बाद, नोएडा के सेक्टर 50 में किसी को दाख़िल नहीं होने दिया गया. जब पाबंदियों में ढील मिलनी शुरू हुई, तो कॉलोनियों के हिसाब से व्हाट्सएप ग्रुप्स में तय किया गया, कि किसको अंदर आने दिया जाएगा, और गेट्स को कैसे गार्ड किया जाएगा.


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शर्मा ने आगे कहा, ‘सभी लोगों की इच्छा का ध्यान रखते हुए, गेट्स को बंद रखा जाता है. कुछ लोग हैं जो मसला खड़ा करते हैं. लेकिन आरडब्लूए बहुमत की बात सुनेगी. कोई समस्या तभी सुलझाई जाएगी, जब कॉलोनी में रह रहे अधिकांश लोग उससे दोचार हों’.

दक्षिणी दिल्ली के डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट बीएम मिश्रा ने कहा, कि उन्हें आरडब्लूएज़ के बारे में कोई शिकायत नहीं मिली. उन्होंने आगे कहा, ‘बल्कि वो तो बहुत सहयोग करते हैं. हम उनके साथ व्हाट्सएप ग्रुप्स शेयर करते हैं, और उनसे संपर्क के चैनल खुले हैं’. ये पूछे जाने पर कि शिकायत आने की स्थिति में या, अनुमति के बिना आरडब्लूएज़ द्वारा गेट्स बंद करने की स्थिति में क्या प्रक्रिया है, मिश्रा ने कहा, ‘ये एक काल्पनिक स्थिति है, जो अभी तक सामने नहीं आई हैं. जब ये सामने आएगी तब इससे निपट लेंगे’.

एक व्यवसाई और ग्रेटर कैलाश-1 या जीके-1 सोसाइटी, जिसमें कॉल रहते हैं, के सचिव राजा पुरी ने दिप्रिंट से कहा, ‘मैं उन लोगों से सहमत नहीं हूं, जो कहते हैं कि आरडब्लूएज़ अविवेकी होती हैं. हमारे ब्लॉक्स में अकसर बाहरी लोग घुस आते हैं, इसलिए गेट्स बंद रखे गए थे. हम आमराय से ही ये नियम बनाते हैं’.

लेकिन इस आमराय में हमेशा वो लोग शामिल नहीं होते, जो कॉलोनी से बाहर रहते हैं. पीर्टिसिपेटरी रिसर्च इन एशिया (प्रिया) नाम के, दिल्ली स्थित एक शोध व प्रशिक्षण संस्थान द्वारा, सात शहरों में की गई एक स्टडी में पता चला कि, ‘आरडब्लूएज़ ने स्वीकार किया कि अपने इलाक़ों में, ग़रीब जगहों और वहां के निवासियों के साथ, उनका कोई सार्थक जुड़ाव नहीं है, हालांकि रोज़ाना की सुविधाओं के लिए, पड़ोस के स्लम्स पर उनकी निर्भरता बहुत अधिक है’.

श्रीवास्तव ने कहा,‘ गेट वाली जगहों में रहते हुए, लोग अपने और बाहर के लोगों के बीच एक अंतर रखना चाहते हैं. वो एक संकेत देना चाहते हैं, कि गेट के अंदर रहने वाले लोगों की, एक ख़ास आर्थिक हैसियत है. महामारी ने इसे और बढ़ा दिया है’.

जादवपुर यूनिवर्सिटी में समाजशास्त्र की प्रोफेसर डालिया चक्रवर्ती ने, कोलकाता की कॉलोनियों के बारे में कहा, कि वहां अगस्त के आख़िर तक, सब्ज़ी विक्रेताओं और कम आय वर्ग के लोगों के आने पर पाबंदियां थीं. उन्होंने कहा, ‘शुरू में मेड्स को आने दिया गया, क्योंकि मिडिल क्लास उनपर बहुत ज़्यादा निर्भर करता है’.

कर्नाटक की राजधानी में रह रहे एक वकील और अर्बन रिसर्चर, मैथ्यू इंदीकुला ने कहा कि बेंगलुरू के इंदिरानगर और कोरामंगला जैसे पॉश इलाक़ों में भी, इसी तरह का बटवारा देखने को मिला है, लेकिन वो दिल्ली जैसी ‘हद तक’ नहीं था.

आरडब्लूएज़ की धारणा के बारे में बात करते हुए, इंदीकुला ने कहा कि शहरों के विस्तार का एक स्वाभाविक परिणाम ये होता है, कि लोग ‘आम’ इलाक़ों से निकलकर, ऐसी जगहों पर चले जाते हैं, जो ज़्यादा ‘निजी’ होती हैं.

उन्होंने इसे इस तरह समझाया, ‘ज़्यादा निजी इलाक़ों में निजी प्रावधान का एक बड़ा सिस्टम होता है. ये सोसाइटियां एक तरह से राज्य से अलग हो गई हैं, क्योंकि वो सार्वजनिक सेवाओं पर उतना ज़्यादा निर्भर नहीं करतीं. ऐसे इलाक़ों में आरडब्लूएज़ वास्तव में अधिकारियों की तरह बन गईं हैं, जो उस जगह को संभालती हैं’.

अलग शहर, अलग अनुभव

लेकिन अलग अलग शहरों का आरडब्लूएज़ के साथ अनुभव, हमेशा एक सा नहीं रहता. मसलन, ऐसा माना जाता है कि दिल्ली में, किसी भी दूसरे महानगर के मुक़ाबले, आरडब्लूएज़ का रोल ज़्यादा मज़बूत और शक्तिशाली माना जाता है.


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इसके पीछे कई कारण हो सकते हैं, जैसा कि 1984 में पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या के बाद हुए दंगों के पश्चात, लोगों में असुरक्षा की भावना के चलते, दिल्ली विकास प्राधिकरण के फ्लैट्स की संख्या बढ़ गई, जिनके लिए एक प्रबंधन इकाई की ज़रूरत महसूस की गई.

लेकिन, जिस चीज़ ने आरडब्लूएज़ को शहरी शासन के केंद्र में ला खड़ा किया, वो थी दिल्ली सरकार की भागीदारी स्कीम, जिसे शीला दीक्षित सरकार ने 1998 में शुरू किया था. इस स्कीम में सहयोगी भागीदारी के ज़रिए, नागरिक मुद्दों को सुलझाया जाता था.

नागरिक मुद्दों और समस्याओं को सुलझाने के लिए, आरडब्लूएज़ के साथ मासिक बैठकें और वर्कशॉप्स की जातीं थीं, जहां उन्हें बातचीत से सुलझा लिया जाता था.

बरसों तक, इस स्कीम की सबसे बड़ी आलोचना ये रही, कि इसने सिर्फ मिडिल क्लास इलाक़ों से सरोकार रखा, और ग़रीब क्षेत्रों की अनदेखी की, जिससे कुछ कॉलोनियों को अन्य के मुक़ाबले, सौदेबाज़ी की ज़्यादा ताक़त मिल गई.

श्रीवास्तव के अनुसार, भागीदारी स्कीम ने आरडब्लूएज़ को सौदेबाज़ी की ज़्यादा ताकत तो दी, लेकिन कुछ दूसरे कारण भी थे जिनसे इन्हें बल मिला.

उन्होंने कहा, ‘दिल्ली के विस्तार और ज़्यादा संख्या में प्रवासियों के आने से, कुछ लोगों ने इस शहरी ख़तरे से ‘संरक्षित’ रहने की ज़रूरत महसूस की, और उनके अंदर आत्म-निर्भरता की धारणा बढ़ गई, जिसके नतीजे में बहुत सी आरडब्लूएज़ विशिष्ट हो गईं’.

मुम्बई में, ख़ासकर इसकी मशहूर मिलों के लिए, मज़बूत को-ऑपरेटिव्ज़ बनाने का इतिहास रहा है. आवासीय बस्तियों ने अपार्टमेंट परिसरों की शक्ल ले ली है, जिन्हें ज़्यादातर हाउसिंग को-ऑपरेटिव सोसाइटियां चलाती हैं. जहां आरडब्लूएज़ हैं भी, वहां भी महाराष्ट्रा को-ऑपरेटिव सोसाइटीज़ एक्ट के कड़े प्रावधानों से, उनकी शक्तियां कम कर दी गई हैं.

को-ऑपरेटिव सोसाइटीज़ की सहायता करने वाली एक ग़ैर-मुनाफा संस्था, महाराष्ट्रा सोसाइटीज़ वेल्फेयर एसोसिएशन या ‘महासेवा’ के अंतर्गत बनी टास्कफोर्स के अध्यक्ष, राजीव सक्सेना ने कहा, ‘दूसरे राज्यों के विपरीत हमारे यहां महाराष्ट्रा सोसाइटीज़ एक्ट है, जो सुनिश्चित करता है कि सोसाइटियां उप-नियमों से चलें, और उनसे आगे न बढ़ें. इसकी वजह से आरडब्सूएज़ रोज़मर्रा के प्रबंधन में दख़ल नहीं देतीं’.

उन्होंने आगे कहा, ‘दूसरे सूबों में आरडब्लूएज़ काफी हद तक अव्यवस्थित होती हैं, और उनकी भूमिका और ज़िम्मेदारियों में कोई एकरूपता नहीं होती, इसलिए कभी कभी उनकी गतिविधियों पर ध्यान नहीं जा पाता’.

कोलकाता में, एक्सपर्ट्स का कहना है कि आरडब्लूएज़ ने, निवासियों और अनिवासियों के जीवन में, दख़ल देने का काम कम किया है.

जादवपुर यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर चक्रबर्ती ने कहा, कि कोरोनावायरस महामारी पहला मौक़ा था, जब ग़रीब इलाक़ों से अमीर इलाक़ों की तरफ जाने पर, बड़ी पाबंदियां लगाईं गईं.

उन्होंने कहा, ‘एक सीमा है और एक वर्गभेद है, लेकिन महामारी से पहले लोग लगातार (अमीर कॉलोनियों में) आते जाते रहते थे. पहली बार ऐसा हुआ कि इसपर पूरी तरह पाबंदी लगा दी गई’.

पश्चिम बंगाल में एक मंत्री ने कहा, कि ऐसी कुछ छुटपुट मिसालें हैं, जहां आरडब्सूएज़ सहयोग नहीं कर रहीं थीं, लेकिन पुलिस ने तेज़ी के साथ उनसे निपट लिया.

‘आरडब्लूएज़ को अधिक लोकतांत्रिक होने की ज़रूरत’

इंडीकुला ने कहा कि दिल्ली में गेट्स पर, आरडब्लूएज़ का जितना ज़ोर चलता है, वो ‘हैरत’ में डालता है, क्योंकि ‘शहर के विस्तार ने इसे आसान बना दिया है’.

उन्होंने आगे कहा, ‘समृद्ध आरडब्सूएज़ के व्हाट्सएप ग्रुप्स पर, सरकारी अफसर और पुलिस अधिकारी जुड़े होते हैं, जिससे उन्हें ऐसे फैसलों का पता चल जाता है’.

वकील बीएल वली ने, जो दिल्ली हाईकोर्ट में प्रेक्टिस करते हैं, और जिन्होंने कौल का केस लड़ा, कहा कि इसी के नतीजे में आरडब्लूएज़, अपनी मर्ज़ी से गेट खोलती-बंद करती हैं, और बिना किसी प्रतिकार के, मनमाने नियम बना लेती हैं.

उन्होंने आगे कहा, ‘एक इलाक़े में एक गेट खुलवाने के लिए कोर्ट केस करना पड़ा. किसी के पास ये सब करने की ऊर्जा नहीं होती, इसलिए ज़्यादातर लोग इनके नियम मान लेते हैं, भले ही उनसे असुविधा होती हो’.

वली ने दिप्रिंट से कहा, ‘जब तक आरडब्लूएज़ का स्ट्रक्चर बेहतर नहीं होगा, और इन्हें नियमित नहीं किया जाएगा, तब तक हद से बढ़ने और पाबंदियों के मामले बढ़ते ही जाएंगे’. उन्होंने आगे कहा, ‘जहां टकराव होते हैं वहां आरब्लूएज़ को अधिक लोकतांत्रिक होने की ज़रूरत है, और अपने फैसले थोपने की बजाय, उन्हें सुनना चाहिए कि निवासी क्या कह रहे हैं. ये एक और रास्ता है जिससे इसमें मदद हो सकती है’.

(रोहिणी स्वामी और मधुपर्णा दास के इनपुट के साथ)

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें )

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