नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट गुरुवार को दो महत्वपूर्ण मामलों में अपने बहुप्रतीक्षित फैसले सुनाएगी, पहला— पिछले साल महाराष्ट्र में राजनीतिक उथल-पुथल पर, तो दूसरा केंद्र और दिल्ली सरकार के बीच विवाद कि किसे राष्ट्रीय राजधानी में प्रशासनिक सेवाओं को नियंत्रित करना चाहिए.
शीर्ष अदालत में गुरुवार को सुनवाई के लिए शिड्यूल की गई लिस्ट से पता चलता है कि दोनों निर्णय सर्वसम्मति से भारत के मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली पांच-जजों की संविधान पीठ द्वारा सुनाए जाएंगे.
पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ में मुख्य न्यायाधीश डी. वाई. चंद्रचूड़, जस्टिस एमआर शाह, कृष्ण मुरारी, हिमा कोहली और पीएस नरसिम्हा शामिल होंगे, जो राष्ट्रीय राजधानी में सेवाओं के नियंत्रण से संबंधित दिल्ली सरकार की याचिका पर सबसे पहले फैसला सुनाएंगे. इसके बाद, यही पीठ जून 2022 के महाराष्ट्र राजनीतिक संकट के बाद प्रतिद्वंद्वी शिवसेना समूहों द्वारा दायर याचिकाओं पर अपना फैसला सुनाएगी.
पिछले साल अगस्त में शीर्ष अदालत के तीन-जजों की पीठ ने राजनीतिक संकट के संबंध में शिवसेना, एकनाथ शिंदे गुट और उद्धव ठाकरे धड़े के प्रतिद्वंद्वी समूहों द्वारा दायर याचिका में शामिल मुद्दों को पांच-जजों की संविधान पीठ को भेजा था. इसी संकट के कारण त्रिपक्षीय महा विकास अघाड़ी (एमवीए) की सरकार गिर गई थी.
बेंच ने तब कहा था कि महाराष्ट्र राजनीतिक संकट में शामिल कुछ मुद्दों पर विचार के लिए एक बड़ी संविधान पीठ की ज़रूरत हो सकती है.
शिवसेना के दोनों धड़ों द्वारा दायर की गई विभिन्न याचिकाएं शीर्ष अदालत के समक्ष लंबित हैं. 29 जून, 2022 को शीर्ष अदालत ने 30 जून के लिए महाराष्ट्र विधानसभा में फ्लोर टेस्ट के लिए हरी झंडी दी थी.
इसने 30 जून को सदन के पटल पर अपना बहुमत समर्थन साबित करने के लिए तत्कालीन मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे को महाराष्ट्र के राज्यपाल के निर्देश पर रोक लगाने से इनकार कर दिया था.
सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद उद्धव ठाकरे ने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देने की घोषणा की और बाद में एकनाथ शिंदे ने मुख्यमंत्री पद की शपथ ली.
इस बीच, दिल्ली सरकार बनाम उपराज्यपाल के मामले में सुप्रीम कोर्ट को राष्ट्रीय राजधानी में सेवाओं के नियंत्रण पर केंद्र और दिल्ली सरकार की विधायी और कार्यकारी शक्तियों के दायरे से संबंधित कानूनी मुद्दे पर फैसला करना है.
मई 2021 में तीन-जजों की बेंच ने केंद्र सरकार के अनुरोध पर इसे एक बड़ी पीठ को भेजने का फैसला करने के बाद मामला एक संविधान पीठ के समक्ष पेश किया गया था.
14 फरवरी, 2019 को शीर्ष अदालत की दो-न्यायाधीशों की बेंच ने सेवाओं पर राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली सरकार (जीएनसीटीडी) और केंद्र सरकार की शक्तियों के सवाल पर एक विभाजित फैसला सुनाया और मामले को तीन-जजों की बेंच के पास भेज दिया.
जबकि न्यायमूर्ति अशोक भूषण ने फैसला सुनाया था कि दिल्ली सरकार के पास प्रशासनिक सेवाओं पर कोई अधिकार नहीं है, न्यायमूर्ति एके सीकरी ने हालांकि, कहा था कि नौकरशाही के शीर्ष अधिकारियों (संयुक्त निदेशक और ऊपर) के अधिकारियों का स्थानांतरण या पोस्टिंग केवल केंद्र के द्वारा ही की जा सकती है और अन्य नौकरशाहों से संबंधित मामलों के लिए मतभेद की स्थिति में केंद्र सरकार और उपराज्यपाल का विचार मान्य होगा.
केंद्र और दिल्ली सरकार के बीच लंबे समय से चल रहे विवाद से जुड़े छह मामलों पर सुनवाई कर रही दो जजों की पीठ ने सेवाओं पर नियंत्रण को छोड़कर शेष पांच मुद्दों पर सर्वसम्मति से आदेश दिया था.
2014 में आम आदमी पार्टी (आप) के सत्ता में आने के बाद से राष्ट्रीय राजधानी के शासन में केंद्र और दिल्ली सरकार के बीच सत्ता संघर्ष देखा जा रहा है.
फरवरी 2019 के फैसले से पहले, सुप्रीम कोर्ट की पांच-न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने 4 जुलाई, 2018 को राष्ट्रीय राजधानी के शासन के लिए व्यापक मानदंड निर्धारित किए थे. इस ऐतिहासिक फैसले में सर्वसम्मति से कहा गया था कि दिल्ली को एक राज्य का दर्जा नहीं दिया जा सकता, लेकिन उपराज्यपाल की शक्तियों को यह कहते हुए कम किया था कि उनके पास “स्वतंत्र निर्णय लेने की शक्ति” नहीं है और उन्हें निर्वाचित सरकार की सहायता और सलाह पर कार्य करना होगा.
इसने उपराज्यपाल के अधिकार क्षेत्र को भूमि, पुलिस और सार्वजनिक व्यवस्था से संबंधित मामलों तक सीमित कर दिया था और अन्य सभी मामलों पर कहा था कि एलजी को मंत्रिपरिषद की सहायता और सलाह पर कार्य करना होगा.
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