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Friday, 20 December, 2024
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सबरीमाला पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले की अयोध्या मामले में आस्था की जीत से तुलना की जाएगी

तथ्य भले ही अलग-अलग हों पर सबरीमाला का मसला और राम जन्मभूमि विवाद, दोनों ही अनिवार्यत: आस्था से जुड़े मामले हैं.

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नई दिल्ली: अयोध्या मामले में शनिवार को एक बड़ा फैसला सुनाने के बाद सुप्रीम कोर्ट इस सप्ताह आस्था के एक और मामले पर विचार करेगा – कि 10 से 50 वर्ष की आयु की महिलाओं को केरल के सबरीमाला मंदिर के गर्भगृह में जाने की अनुमति हो या नहीं.

कोर्ट द्वारा महिलाओं के मंदिर में जाने की अनुमति दिए जाने के बाद पिछले साल केरल में व्यापक विरोध प्रदर्शन हुए थे. आगामी फैसला 2018 के उस आदेश के खिलाफ दायर लगभग 65 पुनरीक्षण याचिकाओं पर आएगा. इनमें नेशनल अयप्पा डिवोटीज़ (वुमेन) एसोसिएशन, नायर सर्विस सोसायटी और ऑल केरल ब्राह्मण एसोसिएशन की याचिकाएं शामिल हैं.

हालांकि 2018 के सबरीमाला संबंधी फैसले और 9 नवंबर 2019 को अयोध्या में राम जन्मभूमि के विवादित स्थल को मंदिर निर्माण के लिए सौंपने के बीच की अवधि में अदालत के नज़रिए में बहुत बदलाव आ चुका लगता है. उल्लेखनीय है कि अदालत ने पिछले साल कहा था कि आस्था और विश्वास किसी को समानता के अधिकार से वंचित करने का आधार नहीं हो सकता है. जबकि बीते सप्ताह अदालत ने कहा कि ‘कोई विश्वास न्यायोचित है या नहीं’ ये विषय ‘न्यायिक जांच के परे’ है.

पूजा के मुद्दे पर भी दोनों खंडपीठों की अलग-अलग राय है.

भारतीय न्याय व्यवस्था में नजीर की अहम भूमिका के मद्देनज़र 2018 और 2019 के बीच कोर्ट के नज़रिए में आए बदलावों में इस सप्ताह सबरीमाला पर आने वाले फैसले के सूत्र ढूंढे जाएंगे.

आस्था का सवाल

अयोध्या भूमि विवाद में अदालत को ये फैसला करना था कि राम जन्भूमि स्थल का स्वामित्व हिंदुओं के पास है या मुसलमानों के पास. जबकि सबरीमाला मामले में भगवान अयप्पा के भक्तों की आस्था का सवाल है, जिनका मानना है कि उनके भगवान के ब्रह्मचारी होने के कारण रजस्वला आयु वर्ग की महिलाओं को उनसे दूर रखा जाना चाहिए.


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सुप्रीम कोर्ट की एक संविधान पीठ ने सबरीमाला मामले में 4-1 के बहुमत से फैसला सुनाते हुए सभी उम्र की महिलाओं को मंदिर के गर्भगृह तक जाने की अनुमति दे दी थी. बहुमत के फैसले में कहा गया कि उन्हें मंदिर में प्रवेश नहीं देना समानता के अधिकार का उल्लंघन था, जोकि अनुच्छेद 25 की भावनाओं के प्रतिकूल था जिसमें कि व्यक्ति को उनके धर्म के पालन के अधिकार की गारंटी दी गई है.

फैसला सुनाने वाली खंडपीठ की अकेली महिला सदस्य जस्टिस इंदु मल्होत्रा ने बहुमत की राय से अलग जाते हुए कहा था कि धर्म के मामलों में अदालतों को हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए. उनके अनुसार ऐसे मामलों को धर्मावलंबियों पर छोड़ देना चाहिए.

इसी तरह का परहेज अयोध्या मामले पर फैसला सुनाने वाली संविधान पीठ ने भी दिखाया जिसने कहा कि ‘आस्था और विश्वास आस्थावानों की नितांत व्यक्तिगत मान्यता होती है’ और ‘किसी के विश्वास के उचित होने या नहीं होने का मामला न्यायिक जांच के दायरे से बाहर’ है.

खंडपीठ ने कहा, ‘आत्मा को संतुष्टि देने वाले अनुभवों की व्याख्या नहीं हो सकती है. किसी का विश्वास उचित है या नहीं, ये न्यायिक जांच के दायरे से बाहर का विषय है.’ अदालत ने आगे कहा, ‘एक बार गवाहों ने अपने विश्वास के आधार पर गवाही दे दी और उसकी सच्चाई पर संदेह करने की कोई गुंजाइश नहीं है, तो फिर अदालत के लिए उस विश्वास पर सवाल उठाने की वजह नहीं रह जाती है.‘

‘आस्था व्यक्ति विशेष से जुड़ा मामला है. यदि अदालत के पास यह स्वीकार करने का अंतर्निहित कारण हो कि आस्था या विश्वास वास्तविक है और बनावटी नहीं है, तो फिर उसे उपासक के विश्वास पर छोड़ देना चाहिए.’

उपासना का सवाल

हिंदुओं का मानना है कि अयोध्या में विवादित स्थल भगवान राम की जन्मभूमि है. अयप्पा के भक्तों का मानना है कि वह ब्रह्मचारी थे.

अदालत ने सभी महिलाओं के लिए गर्भगृह के दरवाजे खोलकर जहां अय्यप्पा भक्तों के विश्वास को खारिज कर दिया, वहीं अयोध्या विवाद पर फैसले में राम के उपासकों की आस्था को मान्यता दी गई.

अयोध्या में आंतरिक आंगन (जहां मस्जिद थी) भले ही हिंदुओं के अनन्य नियंत्रण में नहीं था, अदालत ने माना कि उन्होंने इस विश्वास के साथ विवादित स्थल पर प्रार्थना करना जारी रखा कि राम वहीं पैदा हुए थे. यही वो विश्वास था जिसके कारण कोर्ट का फैसला मंदिर के पक्ष में आया.

अयोध्या और सबरीमाला दोनों ही मामलों में देवताओं – क्रमश: राम और अयप्पा – को एक अलग न्यायिक व्यक्ति माना गया है. हालांकि अयोध्या मामले में पूजा के कार्य को भी न्यायिक व्यक्ति की मान्यता दी गई.


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मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई की अगुवाई वाली खंडपीठ ने कहा कि मुस्लिम पक्ष ने 1528 और 1856-57 – जब अंग्रेजों ने सांप्रदायिक तनाव को रोकने के लिए उसके चारों ओर ईंट की दीवार बनवा दी थी – के बीच की अवधि में मस्जिद में निरंतर नमाज़ पढ़े जाते रहने के पक्ष में कोई सबूत नहीं दिया. जबकि, अदालत के अनुसार, दीवार बनाए जाने के बाद भी हिंदुओं ने इस स्थल पर पूजा करना जारी रखा, जिससे उनका ‘अनन्य कब्जा’ साबित होता है.

अदालत ने कहा कि न्यायिक व्यक्तित्व किसी मूर्ति को नहीं बल्कि संबंधित देवता की लगातार पूजा करने वाले भक्तों को प्रदान किया जाता है.

फैसले में कहा गया है, ‘हिंदू मूर्तियों के मामले में, न्यायिक व्यक्तित्व महज मूर्ति को ही नहीं बल्कि मूर्ति में सन्निहित देवता की निरंतर पूजा के अंतर्निहित पवित्र उद्देश्य के लिए दिया जाता है… हालांकि न्यायिक व्यक्तित्व देवता की निरंतर पूजा के उद्देश्य से दिया जाता है, लेकिन मूर्ति को हटाए या नष्ट किए जाने से यह न्यायिक व्यक्तित्व प्रभावित नहीं होता है.’

पूर्व मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा की अगुवाई वाली संविधान पीठ ने सबरीमाला मामले में ’पूजा’ को न्यायिक पक्ष का दर्जा देने से इनकार करते हुए कहा था कि धार्मिक व्यवहार (पूजा) निवारक प्रकृति के नहीं हो सकते.

मंदिर में महिलाओं के प्रवेश पर रोक जारी रखने का आग्रह करने वाले याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया था कि देवता न्यायिक रूप से एक व्यक्ति हैं और उनके भी अपने मौलिक अधिकार हैं, जिसका मतलब ये था कि उनके ब्रह्मचारी चरित्र का सम्मान किया जाना चाहिए.

लेकिन जस्टिस डी.वाई. चंद्रचूड़ – जिन्होंने बहुमत के फैसले से सहमति व्यक्त की, लेकिन अपना अलग फैसला अंकित किया – ने कहा कि देवता केवल धार्मिक कानूनों के संदर्भ में ही एक न्यायिक व्यक्ति हो सकते हैं और वह संविधान के तहत नागरिकों को दिए गए मौलिक अधिकारों का दावा नहीं कर सकते.

‘अलग तथ्य’

हालांकि सबरीमाला मंदिर के गर्भगृह में महिलाओं के प्रवेश की मांग करने वाले याचिकाकर्ताओं के लिए पेश हुए वकीलों में से कुछ का मानना है कि इस मामले पर अयोध्या के फैसले का असर नहीं पड़ना चाहिए.

वरिष्ठ वकील शेखर नफाडे ने कहा कि अयोध्या का फैसला सबूतों पर केंद्रित था, ना कि आस्था पर.

उन्होंने कहा, ‘अयोध्या मामला यह एक भूमि विवाद था… जिसका धर्म से कोई लेना-देना नहीं था. अयोध्या विवाद के फैसले का आधार आस्था नहीं थी, बल्कि इसमें मुख्य भूमिका साक्ष्यों की रही.’

जबकि वरिष्ठ वकील वी. गिरि का कहना है कि अयोध्या मामला ‘कहीं-न-कहीं आस्था से जुड़ा’ था, लेकिन दोनों ही मामलों के तथ्य ‘पूरी तरह से अलग’ थे.

मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई की अगुवाई वाली पांच जजों की संविधान पीठ ने, जिसमें जस्टिस आर.एफ. नरीमन, जस्टिस ए.एम. खानविल्कर, जस्टिस डी. वाई. चंद्रचूड़ और जस्टिस इंदु मल्होत्रा शामिल हैं, 6 फरवरी को सबरीमाला मामले पर अपना फैसला सुरक्षित रखा था. जस्टिस गोगोई के 17 नवंबर को सेवानिवृत्त होने से पहले इस सप्ताह इस पर फैसला आने की संभावना है.

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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