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Saturday, 16 November, 2024
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30 साल पुरानी आर्बिट्रेशन अवार्ड वाली याचिका पर तारीख-पे-तारीख के चलन को लेकर SC ने जताई चिंता

83 साल के हो चुके इस याचिकाकर्ता के मामले को 20 साल में 147 बार सूचीबद्ध किया गया, लेकिन एक बार भी इसकी सुनवाई नहीं की गई. माननीय उच्चतम न्यायालय ने इसे 'खेदजनक स्थिति' बताया जो मामलों के त्वरित निवारण के लिए बनाए गए कानूनों के 'उद्देश्य को विफल’ करता है'.

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नई दिल्ली: ‘अदालत खाली है’, ‘असली फाइल का पता नहीं चल रहा है’, ‘प्रेसिडिंग ऑफिसर मौजूद नहीं है’, ‘जजमेंट डेब्टर (फैसले में देनदार पक्ष) मौजूद नहीं है’, ‘जजमेंट डेब्टर ने समय मांगा है’, ‘वकीलों की हड़ताल’, ‘वकीलों का धरना’ ‘वकीलों ने कोर्ट में काम करने से मना कर दिया है’ – ये ऐसे कुछ कारण हैं जिनकी वजह से 1992 के आर्बिट्रेशन अवार्ड (मध्यस्थता के मामले में किया गया फैसला) को निष्पादित करने के लिए दायर एक याचिका के मामले में सुनवाई नहीं हुई. उत्तर प्रदेश के प्रयागराज में छोटे मामलों को निपटने के लिए गठित अदालत, स्माल कॉसेस कोर्ट या लघु वाद न्यायालय, ने पिछले 20 सालों में 147 बार सूचीबद्ध होने के बावजूद कभी भी इस मामले की सुनवाई नहीं की.

अब उच्चतम न्यायालय यानी कि सुप्रीम कोर्ट (एससी) ने पिछले हफ्ते इस मामले का संज्ञान लिया और दूसरे पक्ष को नोटिस जारी किया. साथ ही, एससी ने इसे ‘खेदजनक स्थिति’ बताते हुए इलाहाबाद उच्च न्यायालय के रजिस्ट्रार को इस बारे में रिकॉर्ड पेश करने का निर्देश दिया है कि मध्यथता अधिनियम (आर्बिट्रेशन एक्ट) 1940 और इसके नए संस्करण, मध्यस्थता और सुलह अधिनियम (आर्बिट्रेशन एंड कॉंसिलिएशन एक्ट) 1996 दोनों के तहत उत्तर प्रदेश राज्य में अधीनस्थ न्यायालयों / निष्पादन न्यायालयों में निष्पादन के लिए ऐसे कितनी निष्पादन याचिकाएं लंबित हैं.

न्यायमूर्ति एमआर शाह की अगुवाई वाली पीठ ने यह भी कहा कि ‘यदि मध्यस्थता अधिनियम के तहत दिए गए फैसलों को जल्द-से-जल्द निष्पादित नहीं किया जाता है, तो यह मध्यस्थता अधिनियम के साथ-साथ वाणिज्यिक न्यायालय अधिनियम- कमर्शियल कोर्ट्स एक्ट (2015) के उद्देश्य और लक्ष्य को विफल कर देगा’.

इस मामले में, जनवरी 1992 में मेसर्स चोपड़ा फैब्रिकेटर्स एंड मैन्युफैक्चरर्स प्राइवेट लिमिटेड (सीएफएमपीएल) के पक्ष में दिया गए इस फैसले के तहत एक सार्वजनिक फर्म – भारत पंप्स एंड कंप्रेशर्स लिमिटेड के खिलाफ 1.68 करोड़ रुपये का अदालती फरमान (कोर्ट डिक्री) जारी किया गया. सीएफएमपीएल के मालिक 83 वर्षीय हरविंदर सिंह चोपड़ा ने अपनी कंपनी और भारत पंप्स के बीच विवाद के बाद मध्यस्थता की कार्यवाही शुरू की थी.

प्रयागराज (तब इलाहाबाद) के एक अतिरिक्त जिला न्यायाधीश ने अप्रैल 2003 में इस अवार्ड (फैसले) को अंतिम रूप दिया थे और इसे दोनों पार्टियों ने स्वीकार भी कर लिया थे .

मगर, सार्वजनिक फर्म ने चोपड़ा को कोर्ट की डिक्री में बताई गयी राशि का भुगतान नहीं किया, जिसकी वजह से उन्हें सितंबर 2003 में प्रयागराज में स्माल कॉसेस कोर्ट के समक्ष निष्पादन याचिका दायर करने के लिए मजबूर होना पड़ा.

हालांकि, मध्यस्थता अधिनियम के तहत परिकल्पित ‘त्वरित समाधान प्रक्रिया’ चोपड़ा के मामले में उनसे दूर ही रही, और इस मामले में पिछले दो दशकों में स्माल कॉसेस कोर्ट के चार न्यायाधीशों में इसकी सुनवाई की.

मामले में अदालती कार्यवाही की ‘धीमी गति’ से परेशान होकर चोपड़ा ने मार्च 2022 में तब एससी का रुख किया, जब दिसंबर 2021 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने उनके मामले की सुनवाई में तेजी लाने के लिए स्माल कॉसेस कोर्ट को निर्देश देने के उनके अनुरोध को स्वीकार करने से इनकार कर दिया.

याचिकाकर्ता का संघर्ष

मध्यस्थता वाले फैसले (आर्बिट्रेशन अवार्ड) के अनुसार, भारत पंप्स एंड कंप्रेसर्स लिमिटेड को चोपड़ा की फर्म को 1.68 करोड़ रुपये का भुगतान करने का निर्देश दिया गया था. साथ ही, दावे की तारीख से वसूली की तारीख तक 12 प्रतिशत की वार्षिक चक्रवृद्धि ब्याज भी दी जानी थी.

मगर चोपड़ा के लिए इस राशि की वसूली के लिए किया गया संघर्ष उसी दिन से शुरू हो गया जब यह फरमान पारित हुआ था. मध्यस्थता अधिनियम, 1940 में निर्धारित प्रक्रिया के अनुरूप, उन्होंने डिक्री को अंतिम रूप देने के लिए प्रयागराज में स्माल कॉसेस कोर्ट का रुख किया, जिसे 11 वर्षों के लम्बे इंतजार के बाद 28 अप्रैल, 2003 को अंतिम रूप दिया गया. हालांकि, ब्याज वाले अंश को पहले के 12 प्रतिशत से घटाकर 6 प्रतिशत कर दिया गया.

यह देखते हुए कि मेसर्स भारत पंप्स एंड कंप्रेसर्स लिमिटेड ने इस फैसले का भी पालन नहीं किया, चोपड़ा ने 11 सितंबर, 2003 को एक निष्पादन याचिका के साथ इलाहाबाद की एक जिला अदालत का दरवाजा खटखटाया. पिछले 20 वर्षों में इस मामले को 147 बार अदालत की कार्यसूची में सूचीबद्ध किया गया था, लेकिन एक बार भी इस पर प्रभावी ढंग से सुनवाई नहीं हुई. कोर्ट की इन तिथियों पर पारित आदेशों पर नजर डालने से इस अकथनीय देरी के कई कारण सामने आते हैं.

मामले के अटकने का एक प्राथमिक कारण इस मामले की सुनवाई करने वाले न्यायाधीश का उपलब्ध न होना था. आदेश पत्रक (आर्डर शीट्स) से पता चलता है कि 47 मौकों पर, अदालत या तो ‘खाली’ थी या ‘पीठासीन न्यायाधीश छुट्टी पर थे’, या न्यायाधीश ‘प्रशिक्षण’ पर बाहर थे, या किसी अन्य काम में ‘व्यस्त’ थे.

मामले की सुनवाई स्थगित होने का एक अन्य प्रमुख कारण वकीलों का अदालत में काम से परहेज करना है. इसलिए हालांकि दोनों पक्षकार इन सभी तिथियों पर अदालत में मौजूद रहे, अदालत ने इस वजह से सुनवाई नहीं की क्योंकि वकीलों ने इसके सामने पेश होने से इंकार कर दिया था.

21 जुलाई, 2012 को पहली बार फैसले में देनदार पक्ष, जिसके खिलाफ डिक्री पारित की गई थी, को निष्पादन याचिका पर अपनी आपत्ति दर्ज करने का अवसर दिया गया था.

इस मामले में एकमात्र प्रभावी आदेश 10 दिसंबर, 2014 को तब पारित किया गया था, जब एक प्रतिवादी के नाम के सामने ‘मृत’ शब्द डालने के लिए एक आवेदन पेश किया गया था.

जब चोपड़ा ने पिछले साल इलाहाबाद उच्च न्यायालय का रुख किया, तो हाई कोर्ट ने अपने आदेश में कहा कि वह कई और ऐसे ही मामले, जो इसी तरह से लंबित है और समान रूप से जरुरी हैं, की अवहेलना करते हुए चोपड़ा के मामले को ‘प्राथमिकता देने’ के लिए ‘इच्छुक’ नहीं है.

हाई कोर्ट ने चोपड़ा को स्माल कॉसेस कोर्ट में फिर से जाने की स्वतंत्रता देते हुए कहा, ‘इस तथ्य पर कि किसी विशेष मामले को तत्काल निपटाए जाने की आवश्यकता है, संबंधित अदालत द्वारा ही विचार किया जाना चाहिए.‘ साथ ही, उसने स्माल कॉसेस कोर्ट को मामले की सुनवाई में तेजी लाने के उनके (चोपड़ा के) अनुरोध पर विचार करने का निर्देश भी दिया.

‘याचिकाकर्ता, जो कैंसर रोगी है, को न्याय नहीं मिला’

एससी के समक्ष अपनी याचिका में, चोपड़ा ने निचली अदालत और हाई कोर्ट दोनों को मध्यस्थता अधिनियम, जिसका मकसद विवादों के त्वरित निवारण के लिए एक वैकल्पिक विवाद समाधान तंत्र प्रदान करना है, के ‘उद्देश्य को विफल’ करने का आरोप लगाया.

चोपड़ा की वकील आरती यू मिश्रा ने दिप्रिंट को बताया, ‘लेकिन यह मामला निराधार बहानों के जरिये एक मध्यस्थता वाले फैसले के मामले में एक फरमान की निष्पादित न किये जाने का एक उदाहरण है. मामले में नियमित रूप से हुए स्थगन ने एक ऐसे याचिकाकर्ता को न्याय से वंचित किया जो प्रोस्टेट कैंसर, जिसके लिए उन्हें कैंसर रोधी इंजेक्शन दिए जा रहे है, और हृदय रोगों सहित कई बीमारियों से पीड़ित हैं.

याचिका में कहा गया है कि हाई कोर्ट का आदेश भी कानून के साथ-साथ सुप्रीम कोर्ट के पिछले फैसलों का उल्लंघन है. इसमें आगे कहा गया है कि यह सुप्रीम कोर्ट के उस आदेश की अनदेखी करता है कि किसी फैसले का निष्पादन मुकदमेबाजी का दूसरा दौर नहीं बनेगा और किसी भी निष्पादन याचिका पर याचिका दायर करने की तारीख से छह महीने के भीतर फैसला किया जाना चाहिए, और कार्यवाही केवल लिखित रूप में कारणों को दर्ज करने के बाद ही आगे बढ़ाई जा सकती है.

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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