नई दिल्ली: अपनी असहमति जताते हुए एक मंत्री द्वारा दिए गए किसी भी तरह के बयानों के लिए सरकार परोक्ष रूप से जिम्मेदार बताते हुए सुप्रीम कोर्ट की जस्टिस बी.वी नागरत्ना ने मंगलवार को कहा कि हेट स्पीच संविधान के मूलभूत अधिकारों जैसे स्वतंत्रता, समानता और भाइचारे के उद्देश्य पर हमला है. यही नहीं हेट स्पीच अलग-अलग पृष्ठभूमि के नागरिकों के भाइचारे का भी उल्लंघन है. और यह समानता के मूलभूत मूल्यों पर प्रहार करती है. स्वतंत्रता और बंधुत्व संविधान में निहित है.
अदालत के सामने यह मामला समाजवादी पार्टी (सपा) के नेता आज़म खान और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) के नेता एम.एम. मणि के खिलाफ तब आया जब वे उत्तर प्रदेश और केरल सरकारों में मंत्री थे.
यह कहते हुए कि मशहूर हस्तियों और सार्वजनिक पदाधिकारियों को इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि वह क्या कह रहे हैं, नागरत्ना ने अपने आदेश में लिखा कि ‘सार्वजनिक पदाधिकारी और मशहूर हस्तियों को उनकी पहुंच को ध्यान में रखते हुए कुछ भी कहने से पहले जनता के प्रति अपने कर्तव्य को ध्यान में रखते हुए एक जिम्मेदार नागरिक की तरह बोलना चाहिए.’
उन्होंने कहा, ‘जनता की भावना और व्यवहार पर इसके संभावित परिणामों को ध्यान में रखते हुए उन्हें अपने शब्दों का चयन सोच समझकर करना चाहिए और इस बात का भी ध्यान रखना चाहिए कि वह खुद को जनता के सामने किस तरह के उदाहरण के रूप में पेश कर रहे है.’
मामले की सुनवाई कर रहे पांच जजों की बेंच में जस्टिस एस. अब्दुल नज़ीर, बी.आर.गवई, ए.एस. बोपन्ना, वी. रामासुब्रमण्यन शामिल रहे जिन्होंने बहुमत की राय लिखी और बी.वी. नागरत्ना बेंच की राय के खिलाफ शामिल रहीं.
बहुमत वाली बेंच ने फैसला सुनाया कि एक मंत्री द्वारा दिए गए बयान,भले ही इस तरह के बयान ‘राज्य के किसी भी मामले या सरकार की रक्षा हित में दिए गए हों, इसके लिए सरकार को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता है. किसी मंत्री द्वारा दिए गए बयान के लिए सरकार उत्तरदायी नहीं ठहराया जा सकता है.
दूसरी ओर, जस्टिस नागरत्ना ने अपनी असहमति में फैसला सुनाया कि एक मंत्री द्वारा दिया गया बयान, यदि राज्य के किसी भी मामले या सरकार की रक्षा के लिए होता है अर्थात जब तक बयान सरकार के व्यापक दृष्टिकोण का प्रतिनिधित्व करता है, तब तक सरकार को इसके लिए जिम्मेदार ठहराया जा सकता है. हालांकि, उन्होंने स्पष्ट किया कि अगर इस तरह का बयान सरकार के विचार के अनुरूप नहीं है, तो इसे मंत्री की राय के रूप में देखा जाएगा.
उन्होंने फैसला सुनाया कि यदि सरकारी अधिकारियों का बयान सरकार के विचारों के साथ असंगत है, तो उन्हें व्यक्तिगत रूप से उत्तरदायी ठहराया जा सकता है. हालांकि, अगर इस तरह के विचार सरकार के विचारों के अनुरूप हैं, या सरकार द्वारा समर्थित हैं, तो उन्हें राज्य के लिए जिम्मेदार ठहराया जा सकता है और तदनुसार राज्य के खिलाफ कार्रवाई की जा सकती है.
न्यायाधीश ने आगे कहा, ‘यह संबंधित राजनीतिक दलों के लिए है कि वे अपने पदाधिकारियों और सदस्यों के कार्यों और भाषण को नियंत्रित करें. उन्होंने सुझाव दिया कि यह आचार संहिता के अधिनियमन के माध्यम से किया जा सकता है जो स्वीकार्य भाषण की सीमाओं को निर्धारित करेगा.
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असहमति का अधिकार
मामले में पहली याचिका 2016 में यूपी में अखिलेश यादव के नेतृत्व वाली सपा सरकार में शहरी विकास मंत्री आजम खान द्वारा दिए गए एक बयान से शुरू हुई थी, जब जुलाई 2016 में बुलंदशहर के पास एक राजमार्ग पर मां-बेटी की जोड़ी के सामूहिक बलात्कार के संबंध में उन्होंने बयान दिया था.
घटना को ‘राजनीतिक साजिश’ करार देने वाली उनकी टिप्पणी पर आपत्ति जताते हुए पीड़ितों ने खान के खिलाफ कार्रवाई की मांग करते हुए शीर्ष अदालत में याचिका दायर की थी. अदालत ने उन्हें बिना शर्त माफी मांगने का निर्देश देते हुए कहा था कि इस मामले ने गंभीर संवैधानिक सवाल खड़े किए हैं.
दूसरा मामला तत्कालीन मंत्री एम.एम. मणि द्वारा दिया गया आपत्तिजनक टिप्पणी से संबंधित था. उन्होंने केरल के एक स्थानीय पॉलिटेक्निक कॉलेज की महिला प्रिंसिपल के साथ-साथ चाय बागान की महिला मजदूर के खिलाफ आपत्तिजनक टिप्पणी की थी.
न्यायमूर्ति नागरत्न ने बहुमत की राय से सहमति व्यक्त की कि संविधान के अनुच्छेद 19(2) के तहत प्रतिबंधों में सारे तत्वों को शामिल किया गया है और इस सूची में कोई अतिरिक्त प्रतिबंध शामिल नहीं किया जा सकता है.
अनुच्छेद 19(2) में आठ आधारों की सूची दी गई है जिन पर भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार को यथोचित रूप से प्रतिबंधित किया जा सकता है. भारत की संप्रभुता और अखंडता के हित में, राज्य की सुरक्षा, विदेशी राज्यों के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध, सार्वजनिक व्यवस्था, शालीनता या नैतिकता, न्यायालय की अवमानना, मानहानि और किसी अपराध के लिए उकसाना शामिल है.
अपनी असहमति जाहिर करते हुए जस्टिस नागरत्ना ने कहा कि बोलने की स्वतंत्रता में असहमति का अधिकार शामिल है, यह देखते हुए कि ‘असहमति का अधिकार एक स्वस्थ लोकतंत्र की एक अनिवार्य शर्त है.’
उन्होंने कहा, ‘वास्तव में, असहमति का अधिकार एक जीवंत लोकतंत्र का सार है, क्योंकि जब असहमति होती है तभी विभिन्न विचार उभर कर सामने आते हैं, जो सरकार को अपनी नीतियों में सुधार या दोबारा विचार करने में सहायता कर सकते हैं ताकि इसके शासन का देश के लोगों पर सकारात्मक प्रभाव पड़े जो अंततः स्थिरता, शांति और विकास की ओर ले जायेगा.’
यह कहते हुए कि नागरिकों और सार्वजनिक पदाधिकारियों को साथी नागरिकों के खिलाफ अपमानजनक या कटु टिप्पणी करने से रोकने के लिए कानून लाना संसद का काम है, उन्होंने कहा कि अदालत इस संदर्भ में स्वीकार्य भाषण की सटीक सीमा को परिभाषित करने के लिए कोई नियम नहीं बना सकती है.
हालांकि, जस्टिस नागरत्ना ने जोर देकर कहा कि ‘संवैधानिक मूल्यों का पालन करने के लिए प्रत्येक नागरिक का जागरूक प्रयास सार्वजनिक पदाधिकारियों और सार्वजनिक हस्तियों द्वारा दिए गए अपमानजनक, कटु भाषण के कारण सामाजिक कलह, किसी बात को लेकर तर्क-वितर्क और असामंजस्य के उदाहरणों को समाप्त करने में महत्वपूर्ण योगदान देगा.’
न्यायाधीश ने निष्कर्ष निकाला कि कोई भी नागरिक, जो अपने खिलाफ लक्षित भाषण, अभिव्यक्ति या किसी सार्वजनिक अधिकारी या किसी अन्य द्वारा ‘अभद्र भाषा’ के परिणामस्वरूप किसी भी प्रकार के हमले से प्रभावित होता है, क्रिमिनल और सिविल लॉ के तहत उचित कार्यवाही की मांग कर सकता है.
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(संपादन: अलमिना खातून)
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