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Wednesday, 24 April, 2024
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अरुणाचल के दूर-दराज के इलाकों की अर्थव्यवस्था को बढ़ावा देती महिलाओं की ये सुपर मार्केट

महिला स्वयं सहायता समूह पूर्वी कामेंग में रहने वाले लोगों के लिए रोजगार के अवसर मुहैया करा रहे हैं. इसका बेहतरीन उदाहरण ‘लोकल’ सुपर मार्केट है जहां राज्य के दूर-दराज के इलाकों से लाए गए समान को बेचा जाता है.

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बाना/सेप्पा: भारत-चीन सीमा से सटे गांव लाडा के तिल से लेकर च्यांगताजो नामक एक पहाड़ी गांव में पाए जाने वाले स्थानीय जंगली सागू(साइकस पाम) तक, सब कुछ आपको सेप्पा की ‘लोकल’ सुपर मार्केट में मिल जाएगा. अरुणाचल प्रदेश के पूर्वी कामेंग जिले के मुख्यालय सेप्पा में स्थित इस सुपर मार्केट की अलमारियां राज्य के दूर-दराज इलाकों से लाए गए समान से भरी पड़ी हैं.

‘लोकल’ – अरुणाचल का पहला स्वयं सहायता समूह द्वारा चलाया जा रहा बाजार है. इसे फरवरी में ईस्ट कामेंग संघछा अने मार्केट (EXSAM) को-ऑपरेटिव सोसाइटी लिमिटेड ने लॉन्च किया था. यह एक अखिल महिला सहकारी संस्था है.

राज्य की अर्थव्यवस्था काफी हद तक कृषि पर निर्भर है. यहां चावल, मक्का, बाजरा, गेहूं, दालें, गन्ना, अदरक, तिलहन, अनाज, आलू और अनानास जैसी फसलों की खेती मुख्य रूप से की जाती है. लेकिन पूर्वी कामेंग जैसे इसके दूरस्थ जिलों से खराब सड़क संपर्क और बुनियादी ढांचे में कमी के चलते उपज के लिए पड़ोसी राज्य असम पर निर्भर रहना पड़ता है.

इसलिए सेप्पा में ‘लोकल’ बाजार की स्थापना करते समय EXSAM के प्रमुख उद्देश्यों में स्थानीय उत्पादों तक पहुंच को सुगम बनाना था.

Locals who manage ‘LOKAL’ market at Seppa | Angana Chakrabarti | ThePrint
स्थानीय महिलाएं जो सेप्पा में ‘लोकल’ बाजार का प्रबंधन करती हैं/ अंगना चक्रवर्ती/दिप्रिंट

डिप्टी पूर्वी कामेंग के आयुक्त प्रविमल अभिषेक ने दिप्रिंट को बताया, ‘कृषि विज्ञान केंद्र के एक अध्ययन से पता चलता है कि यहां आय में लगभग 60 प्रतिशत की वृद्धि हुई है. अब ज्यादातर महिलाएं खेती को एक एक्टिविटी के तौर पर ले रही हैं, कुछ छोटे व्यवसायों या फिर बच्चों के स्वास्थ्य और शिक्षा में निवेश कर रही हैं.’

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‘लोकल’ बाजार के मुख्य प्रमोटर मेमक रंगमो तबा ने कहा, ‘जिले के ग्रामीण हिस्सों में 342 स्वयं सहायता समूहों की 3,339 से अधिक महिलाएं 26 लॉजिस्टिक पॉइंट (माल की ढुलाई की व्यवस्था करने वाले केंद्र) चलाती हैं जिन्हें पीएलएफ (प्राथमिक स्तर के फेडरेशन) के रूप में जाना जाता है. उत्पाद इन लॉजिस्टिक पाइंट के जरिए आते है.’

वह कहते हैं, ‘ अब लाडा के तिल को ही ले लीजिए. पहाड़ों के ऊबड़-खाबड़ सड़कों से यहां तक लाने में छह घंटे का समय लग जाता है.’


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स्वयं सहायता समूहों ने रखी बदलाव की जमीन

2011 की जनगणना के अनुसार पूर्वी कामेंग के ग्रामीण क्षेत्रों में केवल 46.87 प्रतिशत महिलाएं ही साक्षर हैं. 2016 तक जिले में बाल विवाह के मामले भी सामने आ रहे थे. ये मामले ज्यादातर निशि समुदाय से थे.

जिले के एक अधिकारी ने नाम न छापने की शर्त पर दिप्रिंट को बताया, ‘यहां की आदिवासी समुदायों की महिलाएं अक्सर पितृसत्तात्मक व्यवस्था से त्रस्त हैं. फिर शराब और नशीली दवाओं जैसे भी कई अन्य मुद्दे हैं जिनसे उन्हें जूझना पड़ता है.’

लेकिन अब यह सब बदल रहा है. परिवर्तन की ये हवा जिला प्रशासन की पहल के साथ शुरू हुई. राज्य ग्रामीण आजीविका मिशन के तहत 2017 और 2018 के बीच स्वयं सहायता समूह या एसएचजी की नींव रखी गई.

सेप्पा से करीब 30 किलोमीटर दूर बाना गांव और उसके आसपास रहने वाली करीब 100 महिलाओं के लिए ये एसएचजी वरदान साबित हुए हैं. पहाड़ों और बिचम नदी के बीच बसे बाना में अब बड़ी संख्या में महिलाएं दुकान संभाल रही हैं.

यारो सपोंग (29) ने कहा, ‘मुझे बिजनेस शुरू किए चार साल हो चुके हैं. पहले मैं अपने परिवार के साथ घर पर ही रहती थी. लेकिन बिजनेस करने की चाह मन में बनी हुई थी. यहां की ज्यादातर महिलाएं एसएचजी से जुड़ गईं हैं. एसएचजी से मिली ट्रेनिंग से मैंने अचार बनाना सीखा. अचार बनाकर बेचने में काफी फायदा है.’

मक्के की फसल उगाने वाली 36 वर्षीय महिला किसान नानजो मालोनी डिगिउ बताती हैं कि कम ब्याज वाले कर्ज और फसल के मौसम के दौरान कभी-कभार मिलने वाली सहायता ने उन्हें इस काबिल बना दिया कि वह बाना में एसएचजी के जरिए सेप्पा के ‘लोकल’ बाजार में सामान पहुंचा पाती हैं.

Members of the self-help group in Bana | Angana Chakrabarti | ThePrint
बाना में एक स्वयं सहायता समूह के सदस्य/ अंगना चक्रवर्ती/ दिप्रिंट

डिगिउ ने कहा, ‘पहले उत्पाद को बेचना मुश्किल था. हमें अपनी उपज के लिए बाजार नहीं मिल पाता था’. वह बताती हैं कि कई महिलाओं को पहली नजर में एसएचजी का ये विचार समझ से बाहर था.

‘लोकल’ बाजार की चीफ प्रमोटर तबा ने भी कहा कि वे शुरू में इस विचार को लेकर झिझक रही थीं. ‘ पैसों के मामले में हमें SHG पर पूरी तरह से भरोसा नहीं था. हम लोगों से बात करने में भी डरते थे. लेकिन अब इससे महिलाओं की स्थिति में सुधार हो रहा है. ये महिलाएं जो स्वयं सहायता समूहों का हिस्सा हैं, अब ग्राम पंचायतों में भी बोल रही हैं’

ईस्ट कामेंग के डीसी अभिषेक ने कहा, ‘शुरुआत में, मुझे भी इन महिलाओं को कैश फ्लो की अवधारणा को समझाना पड़ा था.’ उन्होंने आगे कहा, ‘स्थानीय महिलाओं के लिए रोजगार के अवसर मुहैया कराने, किसानों की आय बढ़ाने, पारंपरिक हस्तशिल्प के लिए बाजार के अवसर प्रदान करने और उपभोक्ताओं को सस्ती कीमतों पर बेहतर गुणवत्ता वाले उत्पादों तक पहुंच सुनिश्चित करने के लिए इन्हें स्थापित किया गया था.’


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हस्तशिल्प और जीआई टैग

स्थानीय फलों और सब्जियों से परे, हस्तशिल्प उत्पादों के लिए ‘लोकल’ बाजार में एक पूरा सेक्शन है. इसमें बांस के उत्पाद और निशि जनजाति की महिलाओं द्वारा पहना जाने वाला पारंपरिक परिधान गाले भी शामिल है.

सेप्पा में एक अन्य महिला संचालित सहकारी समिति ऑल ईस्ट कामेंग वीवर्स एंड आर्टिसन कोऑपरेटिव सोसाइटी ने निशी कपड़ा उत्पादों के लिए भौगोलिक संकेत (जीआई) टैग के लिए आवेदन किया है.

ईस्ट कामेंग डीसी के अनुसार, विभिन्न संगठन निशी टेक्सटाइल उत्पादों के लिए जीआई टैग के लिए आवेदक बनना चाहते थे, लेकिन जिला प्रशासन ने अंततः बुनकरों और कारीगरों के सहकारी समिति पर ध्यान दिया.

अब तक अरुणाचल प्रदेश से सिर्फ दो उत्पादों को जीआई टैग मिला है – अरुणाचल का संतरा और इडु मिश्मी टेक्सटाइल्स.

डीसी अभिषेक ने दिप्रिंट को बताया, ‘ अब तक, पूर्वी कामेंग से संतरे के अलावा कोई उत्पाद नहीं आया है. इसे असम के एक संगठन द्वारा जीआई टैग (सुरक्षित) प्राप्त है जो इन संतरे की खरीद कर रहा है. इसलिए, लाभ वहां से भी नहीं आता है’

उन्होंने कहा, ‘अरुणाचल प्रदेश के कई जिलों में अब जीआई टैग आवेदन के लिए उत्पादों की पहचान की जा रही है.’

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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