बेंगलुरू: रिसर्चर्स का दावा है कि एक महिला, जिसे 1992 में एचआईवी बताई गई थी, बिना दवाओं या जोखिम भरे बोन मैरो ट्रांसप्लांट के, इस वायरस से छुकारा पाने वाली, पहली इंसान बन सकती है.
इस स्टडी में, जिसके निष्कर्ष नेचर पत्रिका में घोषित किए, ये भी कहा गया कि 63 और लोग भी बिना किसी दवा के, वायरस को अपने शरीर के में वायरल कोश में अलग थलग रखकर, जहां उनमें दोहराव नहीं हो सकता, संक्रमण को क़ाबू में रखने में कामयाब रहे हैं.
शोधकर्ताओं का कहना है, कि हो सकता है ऐसे लोगों के भीतर, एचआईवी का कोई “कार्यात्मक इलाज” पैदा हो गया हो, जो नई जिनेटिक टेक्नोलॉजी की वजह से, अब सामने आ रहा हो.
66 वर्षीय मरीज़ लॉरीन विलेनबर्ग, जो कैलिफोर्निया में रहती हैं, एचआईवी से जुड़ी मेडिकल कम्यूनिटी में, पहले ही एक जाना पहचाना नाम थीं, क्योंकि उन्होंने इनफेक्शन के बाद दशकों तक, कामयाबी के साथ वायरस को दबाए रखा था.
अभी तक, केवल दो लोग एचआईवी से ठीक हो पाए हैं. 2008 में, कैलिफोर्निया के टिमोथी रे ब्राउन, जिन्हें ‘बर्लिन मरीज़’ के नाम से जाना गया, एड्स से मुक्त होने वाले पहले मरीज़ थे. उनकी पहचान 2010 में सार्वजनिक की गई.
एडम कास्टिलेयो, जिन्हें ‘लंदन मरीज़’ के नाम से जाना गया, 2019 में इस बीमारी से ठीक होने वाले दूसरे इंसान थे. दोनों मरीज़ों को कैंसर के लिए तकलीफदेह बोन मैरो ट्रांसप्लांट से गुज़रना पड़ा, जिसमें एंटीरेट्रोवायरल थिरेपी भी शामिल थी.
एचआईवी एक ऐसा रेट्रोवायरस है, जो इंसानी जीनोम में दाख़िल हो जाता है, वहां अपनी नक़लें बना लेता है, और इम्यून सिस्टम को भी चकमा दे देता है.
विलेनबर्ग एचआईवी से ठीक होने वाली तीसरी मरीज़ हैं, लेकिन दवाओं या सर्जरी के बिना ठीक होने वाली पहली मरीज़ हैं.
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‘कार्यात्मक इलाज’ केवल 0.5% मरीज़ों में मिला
एचआईवी एक ऐसा सख़्त पैथोजेन है, जिससे निपटना बहुत मुश्किल होता है, क्योंकि ये मुख्य रूप से इम्यून सिस्टम को निशाना बनाता है, जिसका काम इनफेक्शंस और बीमारी फैलाने वाले पैथोजेंस से लड़ना होता है.
कुछ लोगों में, समय के साथ इम्यून सिस्टम सुधर जाता है, और संक्रमित सेल्स को नष्ट कर देता है.
लेकिन, नए पेपर के अनुसार, कुछ लोगों के अंदर ये क्षमता होती है, कि वो जीमोन के उस हिस्से को बंद कर देते हैं, जो एचआईवी से संक्रमित होता है.
ऐसे लोग दुर्लभ होते हैं और इस तरह का “कार्यात्मक इलाज”, 0.5 प्रतिशत से भी कम संक्रमित लोगों में पाया जाता है. रिसर्चर्स ने ऐसे अनोखे व्यक्तियों को ‘एलीट कंट्रोलर्स’ कहा है.
पिछले तीन से चार दशकों में, ऐसे एलीट कंट्रोलर्स का गहन अध्ययन किया गया है, और विलेनबर्ग ख़ुद भी पिछले 15 साल से अधिक से, ऐसी स्टडीज़ में पंजीकृत रही हैं.
शोधकर्ताओं का कहना है कि उनकी डायग्नोसिस, और एक साल पहले किए गए एक टेस्ट के अलावा, जिससे उनके शरीर में एचआईवी की पुष्टि हुई थी, बाद में किए गए किसी भी टेस्ट में, उनके किसी टिश्यू में वायरस नहीं पाया गया. उनकी गुदा और आंतों से लिए गए नमूनों से भी नहीं, जिनकी अत्याधुनिक तरीक़ों से जांच की गई थी. इससे पता चलता है कि उनके शरीर ने बड़ी कुशलता से, वायरस को उनके जीनोम के अंदर क़ैद कर दिया है.
वैज्ञानिकों को पता चला है कि जिन लोगों में ये “कार्यात्मक इलाज” होता हैं, उनके अंदर एंटीबॉडीज़ नहीं होते, लेकिन उनके मेमोरी इम्यून सेल्स पैथोजेन को पहचानते हैं. उनके टी-सेल्स- किलर सेल्स जो इम्यून रेस्पॉन्स के तौर पर संक्रमित सेल्स पर हमला करते हैं- उन सेल्स को ख़त्म करने में कामयाब हो गए, जिन्हें लैबोरेटरी सेटिंग्स में संक्रमित किया गया था.
इम्यून सिस्टम वायरस को जीनोम के अंदर, ऐसी जगह बंद करने में भी कामयाब हो गया, जहां इसकी नक़लें नहीं बन सकतीं.
ब्राज़ील का एक 36 वर्षीय मरीज़ भी, कुछ दवाओं के मिश्रण की मदद से, किसी सर्जरी के बिना इस साल जुलाई में, कथित रूप से एचआईवी से बाहर आ गया. लेकिन रिसर्चर्स ने एहतियात बरतने की सलाह दी है, कि इन नतीजों को दीर्घ-कालीन सुधार के तौर पर न देखा जाए.
नेचर में छपे इस नए पेपर के रिसर्चर्स ने कहा है कि इस क़ुदरती मिकेनिज़म को, जो वायरस को जीनोम में ‘बंद’ कर देता है, जहां उसमें दोहराव नहीं हो सकता, दूसरे काम में भी लाया जा सकता है, और एंटी-वायरल थिरेपीज़ को ऐसा बनाया जा सकता है, कि ये कार्यात्मक इलाज सैद्धांतिक रूप से प्राप्त करने योग्य बन जाए.
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