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Monday, 20 May, 2024
होमदेशबैड रूल और नियुक्तियां न हो पाने से जूझ रहे Tribunals को आखिरकार न्यायिक ताकत मिली

बैड रूल और नियुक्तियां न हो पाने से जूझ रहे Tribunals को आखिरकार न्यायिक ताकत मिली

2017 के बाद से न्यायाधिकरणों में कोई नई न्यायिक नियुक्ति नहीं हो पाई है, जब सरकार ने पहली बार इन अर्ध-न्यायिक निकायों के लिए एक समान नियुक्ति प्रक्रिया संबंधी नियम निर्धारित किए थे.

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नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट के एक अहम फैसले में ट्रिब्यूनल रिफॉर्म्स (रेशनलाइजेशन एंड कंडीशंस ऑफ सर्विस) ऑर्डिनेंस 2021 के कुछ प्रावधानों को खत्म कर दिए जाने से रिक्तियों के संकट से जूझ रहे न्यायाधिकरणों में न्यायिक नियुक्तियां होने में चार साल से जारी गतिरोध समाप्त होने के आसार है.

जस्टिस एल.एन. राव की अध्यक्षता वाली तीन सदस्यीय पीठ ने बुधवार को कहा कि न्यायाधिकरणों में न्यायिक सदस्यों के तौर पर वकीलों की नियुक्ति के लिए न्यूनतम आयु 50 वर्ष निर्धारित करने वाला नियम ‘मनमाना और भेदभावपूर्ण’ था.

पीठ ने यह भी कहा कि न्यायाधिकरण में न्यायिक सदस्य का कार्यकाल पांच वर्ष का होना चाहिए, चार वर्ष का नहीं, जैसा कि अध्यादेश में निर्धारित किया गया है.

कोर्ट ने आगे कहा कि सरकार को चयन समितियों की तरफ से सिफारिश या नाम मिलने के तीन महीने के भीतर ही नियुक्तियों को अधिसूचित करना चाहिए.

न्यायाधिकरण वो अर्ध-न्यायिक संस्थान होते हैं जो टैक्स, सेवा मामले, पर्यावरण पर प्रशासनिक फैसलों या वाणिज्यिक कानून आदि से जुड़े तमाम तरह के मामलों का निपटारा करते हैं. मौजूदा समय में 19 ट्रिब्यूनल काम कर रहे हैं और इसमें हर एक एक मूल कानून के तहत संचालित होता है. ट्रिब्यूनल का प्राथमिक उद्देश्य विशेषज्ञों की भागीदारी और तत्परता से फैसले करके न्याय दिलाने की प्रक्रिया को सुव्यवस्थित करना है.

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किसी भी ट्रिब्यूनल बेंच में एक न्यायिक सदस्य- अपेक्षित विशेषज्ञता वाला एक वकील- और एक प्रशासनिक सदस्य होना चाहिए जो एक सेवानिवृत्त नौकरशाह हो सकता है. किसी भी न्यायाधिकरण में ऐसी कई बेंच होती हैं.

हालांकि, अप्रैल 2017 के बाद से किसी भी न्यायाधिकरण में कोई नई न्यायिक नियुक्ति नहीं हो पाई है.

चार साल चला मुकदमा

शीर्ष अदालत का बुधवार का फैसला न्यायाधिकरणों पर सरकारी नियमों के खिलाफ तीन अलग-अलग याचिकाओं पर लगभग चार साल तक चले मुकदमे के बाद आया है.

यह सब अप्रैल 2017 में तब शुरू हुआ जब केंद्र सरकार ने पहली बार ऐसे नियम बनाए जिसमें न्यायाधिकरण सदस्यों की नियुक्ति, कार्यकाल और सेवा शर्तों की एक समान प्रक्रिया निर्धारित की गई थी.

ये नियम न्यायिक सदस्य का कार्यकाल घटाने, पद के लिए आवेदन करने वाले वकीलों के लिए उम्र संबंधी पात्रता मानदंड सीमित करने, सदस्यों को मिलने वाला आवास भत्ता (एचआरए) खत्म करने और कार्यपालिका को किसी न्यायिक सदस्य को हटाने की अनुमति देने से जुड़े हैं.

नए नियमों में ट्रिब्यूनल के सदस्यों के नामों की सिफारिश करने वाली सर्च-कम-सेलेक्शन कमेटी के गठन में भी बदलाव किया गया, ताकि पैनल में और अधिक सरकारी नामित शामिल करने की अनुमति दी जा सके.

नतीजतन, नियमों को सरकार की तरफ से ट्रिब्यूनल सदस्यों की नियुक्ति प्रक्रिया में हावी होने के प्रयास के तौर पर देखा गया और नियमों को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दे दी गई.

नवंबर 2019 में पांच जज वाली संविधान पीठ ने इन नियमों को रद्द कर दिया और सरकार को निर्देश दिया कि छह महीने के अंदर इसमें न्यायाधिकरणों की स्वतंत्रता बनाए रखने के लिए शीर्ष अदालत की तरफ से निर्धारित सिद्धांतों के अनुरूप आवश्यक सुधार करे.


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हालांकि, फरवरी 2020 में सरकार कुछ नए नियमों के साथ आई, जिसने वकीलों को न्यायाधिकरण सदस्यों के पद के लिए अयोग्य बना दिया. इन नियमों को फिर सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई जिसने नवंबर 2020 में सरकार को उन्हें संशोधित करने का निर्देश दिया.

अदालत ने अपने फैसले में न्यायाधिकरण में नियुक्तियों के संबंध में विशिष्ट नियम निर्धारित किए, जिसमें 10 साल के अनुभव वाले वकील को न्यायिक सदस्य के रूप में आवेदन करने की अनुमति देना, सदस्य का कार्यकाल चार से बढ़ाकर पांच साल करना, ट्रिब्यूनल अध्यक्ष के लिए 1.5 लाख रुपये और सदस्य के लिए 1.25 लाख रुपये का एचआरए निर्धारित करना शामिल है. इसने यह भी कहा कि न्यायिक सदस्यों को उनके कार्यकाल की समाप्ति के बाद फिर से नियुक्त करने पर भी विचार किया जाए.

सरकार ने फरवरी 2021 में फिर इन नियमों के साथ एक विधेयक पेश किया लेकिन बाद में इसे एक स्थायी समिति को भेज दिया.

इसके बाद सरकार अप्रैल 2021 में ट्रिब्यूनल रिफॉर्म्स (रेशनलाइजेशन एंड कंडीशंस ऑफ सर्विस) ऑर्डिनेंस 2021 लाई जिसमें उसी तरह के नियुक्ति संबंधी प्रावधान थे जो 2020 में निर्धारित किए गए थे और सुप्रीम कोर्ट की तरफ से अमान्य घोषित किए जा चुके थे.

मद्रास बार एसोसिएशन ने इस अध्यादेश के खिलाफ शीर्ष अदालत में एक याचिका दायर की, जिसमें कहा गया कि यह 2020 के सुप्रीम कोर्ट के फैसले का अपमान है. इस हफ्ते आया फैसला इसी याचिका पर सुनाया गया है.

पूर्व में शीर्ष अदालत ने याचिका पर अपना फैसला सुरक्षित रख लिया था और अंतरिम तौर पर सरकार ने नवंबर 2020 के सुप्रीम कोर्ट के फैसले के अनुरूप फरवरी 2020 के नियमों में संशोधन किया.

सरकार के नियमों को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देने के तीनों ही मौकों पर एक ही बात को आधार बनाया गया था कि इसमें ट्रिब्यूनल के सदस्यों की नियुक्ति और हटाए जाने के बाबत कथित तौर पर कार्यपालिका को अत्यधिक शक्तियां मिल रही हैं.

इस बारे में तीनों याचिकाकर्ताओं की दलील थी कि यह न्यायपालिका की स्वतंत्रता में दखल होगा, क्योंकि ट्रिब्यूनल इसी संस्था के एक अभिन्न अंग हैं.

न्यायिक सदस्यों ने देरी के लिए सरकार को जिम्मेदार ठहराया

इस बीच, ट्रिब्यूनल में प्रैक्टिस कर रहे कई वकीलों ने सरकार पर मुकदमे को चार साल तक खींचने का आरोप लगाया है.

केंद्रीय प्रशासनिक न्यायाधिकरण में अभ्यास करने वाले एक वकील ने दिप्रिंट को बताया, ‘सरकार ने एक तो मनमाने नियम खत्म करने संबंधी सुप्रीम कोर्ट के दो फैसलों को मानने से इनकार कर दिया, और इसके बजाये इस साल अप्रैल में अध्यादेश के माध्यम से उन्हें फिर से लागू करने की कोशिश की जिससे नई भर्तियों में देरी हुई. इस तरह अदालत का समय बेवजह बर्बाद करना एक अपराध है.’

आयकर अपीलीय न्यायाधिकरण (आईटीएटी) के एक सदस्य ने नाम न छापने की शर्त पर कहा, ‘मुकदमा लंबित होने के कारण नए सदस्यों की नियुक्ति रुकी हुई थी, हालांकि, नियुक्ति प्रक्रिया पर कभी कोई रोक नहीं रही. इससे न्यायाधिकरणों के सामने संकट खड़ा हो गया जिनका कामकाज बढ़ते मामलों और सुनवाई के लिए कम सदस्यों की वजह से प्रभावित होने लगा.

वकीलों ने यह भी बताया कि कुछ ट्रिब्यूनल में कुछ नियुक्तियां की गई थीं, लेकिन वे उन पदों के लिए थीं जो 2017 से पहले खाली हुए थे और वे भी सुप्रीम कोर्ट के दखल के बाद हो पाई थीं.

शीर्ष अदालत ने अपने बुधवार के फैसले में कई न्यायाधिकरणों में खाली पड़े पदों के संकट पर भी ध्यान दिया और केंद्र सरकार से कहा कि तीव्र और प्रभावी ढंग से न्याय सुनिश्चित करने के लिए नियुक्ति प्रक्रिया में तेजी लाए.

पीठ ने विशेष रूप से कुछ न्यायाधिकरणों में रिक्तियों और लंबित मामलों को ध्यान में रखते हुए कहा कि चयन समिति की सिफारिशें मिलने की तिथि से तीन महीने के भीतर नियुक्तियां की जानी चाहिए.

बेंच ने कहा कि नेशनल कंपनी लॉ ट्रिब्यूनल में 21,000 से अधिक मामले लंबित हैं जबकि 63 स्वीकृत पदों की जगह केवल 38 सदस्य हैं.

इसी तरह आर्म्ड फोर्सेज ट्रिब्यूनल में 34 में से 11 पद ही भरे हुए हैं, जबकि 18,800 से ज्यादा मामलों का निपटारा बाकी है. सेवा मामलों से संबंधित सेंट्रल एडमिनिस्ट्रेटिव ट्रिब्यूनल (कैट) में स्वीकृत पदों की संख्या है जबकि 36 सदस्य ही सेवारत हैं और 48,000 से अधिक मामले लंबित हैं.

आईटीएटी में 138 स्वीकृत पदों के मुकाबले कार्यालय में केवल 66 सदस्य हैं, जहां 88,000 से अधिक अपीलें लंबित हैं.

बेंच ने कहा, ‘लंबित मामलों की संख्या बताती है कि ट्रिब्यूनल कितना महत्वपूर्ण न्यायिक कार्य करते हैं, ऐसे में जरूरी है कि उन्हें संचालित करने के लिए कुशल और योग्य न्यायिक और तकनीकी सदस्य हों.’

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें )

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