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Friday, 29 March, 2024
होमदेशपंजाब में 30 साल में पिता-पुत्र के दो ताबूत, और पीछे सेना के जवान का छूटा एक भरा-पूरा परिवार

पंजाब में 30 साल में पिता-पुत्र के दो ताबूत, और पीछे सेना के जवान का छूटा एक भरा-पूरा परिवार

कुलवंत सिंह के पिता बलदेव सिंह की 1993 में कारगिल में मृत्यु हो गई जब कुलवंत की उम्र महज़ ढाई साल थी. पिछले हफ्ते पुंछ में शहीद हुए कुलवंत अपने पीछे दो बच्चे छोड़ गए हैं.

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मोगा में कुलवंत सिंह के दो मंजिला घर के बाहर सूखी लकड़ियों और खड़खड़ाहट की आवाज़ करने वाले खिलौनों की लड़ियां लटकी हुई हैं. यह परिवार में पुत्र के जन्म का संकेत है. लेकिन इसके बड़े-बड़े कमरे सारी खुशियों से महरूम हैं. महिलाएं बीच-बीच में विलाप कर रही हैं और कुलवंत की पत्नी हरदीप कौर एक कोने में बैठी एकटक देख रही हैं. उसकी 18 महीने की बेटी उस त्रासदी से बेखबर इधर-उधर घूमती है, जिसने परिवार को झकझोर कर रख दिया है और उसका पांच महीने का बेटा एक प्रैम में सो रहा है.

कुलवंत उन पांच सैनिकों में से एक था, जो 20 अप्रैल की दोपहर पुंछ में हुए ग्रेनेड हमले में शहीद हो गए. सेना द्वारा घटनास्थल से उनके परिवार को भेजी गई एक तस्वीर में कुलवंत को ट्रक से कुछ मीटर की दूरी पर मुंह के बल लेटा देखा जा सकता है. उसके पैर जल गए थे और उसके सिर पर घातक चोटें आईं थीं.

मोगा में उनके परिवार को दो बार त्रासदी का सामना करना पड़ा. कुलवंत 1993 में केवल ढाई साल के थे जब उनके पिता बलदेव सिंह की कश्मीर में एक ट्रक के खाई में गिरने से मौत हो गई थी. और अब 32 साल के बेटे की मौत ने उनके परिवार को तोड़ कर रख दिया है.

कुलवंत के साले गगनदीप सिंह ने कहा, “कुलवंत ने अपने परिवार के लिए बहुत सी चीजों की योजना बनाई थी. उन्होंने पहले ही 13 साल की सेवा पूरी कर ली थी और उनके सेवानिवृत्ति को केवल दो साल ही और बचे थे. वह अपने परिवार के साथ घर पर रहना चाहते थे. किसी ने नहीं सोचा था कि उनके साथ ऐसा होगा.”

चरिक गांव में उनकी मां के घर के बाहर, मोगा के आसपास के सेना के दिग्गजों का एक समूह सफेद शर्ट में भाईचारा व एकजुटता दिखाने के लिए साथ बैठा था. वे कहते हैं कि देश के लिए मरना सम्मान की बात है. लेकिन परिवार के लिए दो-दो लोगों की कुर्बानी का दर्द बहुत ज्यादा है.

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पूर्व कप्तान अमरजीत सिंह कहते हैं, “कुलवंत शहीदों का परिवार है. देश के लिए मरना एक ऐसा सम्मान है जो हम सभी के लिए नहीं हो सकता. हमें परिवार पर गर्व है.”

पंजाब के चरिक गांव में कुलवंत सिंह के घर पर सेना के पूर्व सैनिक। | सोनल मथारू | दिप्रिंट

कठिन बचपन

कुलवंत को अपने पिता की कोई याद नहीं थी. हालांकि, वह अपने रिश्तेदारों से अपने पिता बलदेव की शहादत के बारे में सुनते हुए बड़े हुए थे. पिता के साथ कुलवंत की एकमात्र तस्वीर है, जिसे एक स्टूडियो में खिंचलाया गया था. इस तस्वीर को बड़ा करवा के एक सुनहरे फ्रेम में घर में लगाया गया है.

उनके बचपन के दोस्त बरमा सिंह कहते हैं, “कुलवंत ने अपने पिता को आदर्श माना था. जब वह स्कूल में थे तब उसने फैसला किया कि वह सेना में शामिल होंगे. और वह इसकी तैयारी करते थे. वह दौड़ते, व्यायाम करते और फिट रहते. उन्हें आवेदन करने के लिए आवश्यक प्रशिक्षण और कागजी कार्रवाई के बारे में पता चला और उनके पिता की सेवा के कारण उनके पास इसका बेहतर मौका था,”

पिता की मृत्यु के बाद उनकी मां हरजिंदर कौर को पैसे की समस्याओं का सामना करना पड़ा. मां अभी किशोरावस्था में थीं. वित्तीय समस्याओं के कारण मां को फिर से शादी करनी पड़ी. दिप्रिंट को उनके दोस्तों और पड़ोसियों ने बताया कि कुलवंत अपनी मां और अपने सौतेले परिवार के साथ रहे, लेकिन उन्हें वह प्यार और स्नेह कभी नहीं मिला, जिसकी उन्हें बचपन में लालसा थी.


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उसके पड़ोसियों का कहना है कि कुलवंत की देखभाल लोगों द्वारा की गई. वह पूरा दिन अपने दोस्तों के घर पर बिताते थे और खाना अपने घर पर खाते थे. जब भी वह अपनी सेना की नौकरी से छुट्टी पर आते, तो वह उन सबसे मिलने जाते थे.

कुलवंत की शादी में एक पिता की रस्म अदा करने वाले रेशम सिंह ने कहा, “कुलवंत मुझे डैडी कहा करता था. मैं उसे अपने दो बेटों से भी अधिक प्यार करता था, जो उसके दोस्त थे. वह हमेशा अपने पिता को याद किया करता था.”

अपने घर में शोक मना रही हरजिंदर ने इस दावे का खंडन किया कि कुलवंत परिवार से अलग था.

हरजिंदर कहती हैं, “मैंने हमेशा उसकी परवाह की और वह मुझसे अप्रैल में अपने आखिरी ब्रेक पर भी मिला था. जब उसका चयन हुआ तो मैं ही उसे ट्रेनिंग सेंटर छोड़ने गई थी. मैंने कभी नहीं सोचा था कि यह दुख फिर मुझ पर पड़ेगा. पहले, मेरे पति और अब मेरा बेटा दोनों एक ही तरह से चले गए हैं.”

घर में आर्थिक कठिनाई एक और कारण था जिससे कुलवंत का अपने पिता के नक्शेकदम पर चलने और सेना में शामिल होने का संकल्प मजबूत हुआ. उन्होंने स्कूल में रहते हुए ही एक मजदूर के रूप में छोटे-मोटे काम करना शुरू कर दिया था. और जब 2011 में उनका चयन हुआ, तो उन्होंने इसके लिए अपना सब कुछ झोंक दिया था.

उसकी सौतेली बहन चरणजीत कौर कहती हैं, “नौकरी ने उन्हें अपने पिता के करीब होने का अहसास कराया. वह कहता था कि उसके पिता उसकी रक्षा के लिए हमेशा मौजूद हैं.”

अपने घर को घर बनाना

बचत कर कर के कुलवंत ने ईंट-दर-ईंट मोगा शहर में अपने लिए घर बनाना शुरू किया था. एक छुट्टी के दौरान, वह एक कस्टमाइज़्ड नीले और सफेद रंग का सोफा सेट लाया था; दूसरी छुट्टी पर, उन्होंने सभी कमरों में लकड़ी के दरवाजे लगवाए थे. उनकी मौत के बाद अब इस सपने पर भी रोक लग गई है.

उनकी पत्नी हरदीप कहती हैं,”वह बहुत कुछ करना चाहते थे. वह मुझसे कहा करते थे कि जीवन उनके साथ बहुत अन्यायपूर्ण रहा है. वह हमारे बच्चों को वह सब कुछ देना चाहते थे जिससे वह बचपन में वंचित थे – एक बड़ा घर, अच्छी शिक्षा. वह अपनी बेटी को अंग्रेजी माध्यम के स्कूल में भेजना चाहते थे. लेकिन सबसे बढ़कर, वह बच्चों को पिता का प्यार देना चाहते थे, जिसकी कमी उन्हें हमेशा खलती रही.”

अपने आगामी ब्रेक में कुलवंत ने अपने बच्चों को भीषण गर्मी और सर्दी से बचाने के लिए एक छोटी कार खरीदने की योजना बनाई थी. वह हर आधे घंटे में घर फोन करते थे और हाल ही में उन्होंने मासिक किस्तों (ईएमआई) पर एक नया स्मार्टफोन भी खरीदा था.

20 अप्रैल की पूरी शाम जब उनके परिवार को उनका फोन नहीं आया तो उन्होंने मान लिया कि उनके फोन की बैटरी खत्म हो गई होगी. लेकिन रात होते-होते सेना की तरफ से फोन आया और उन्हें कुलवंत की मौत की सूचना दी गई.

अगले दिन जब उनका पार्थिव शरीर भारतीय ध्वज लहराते हुए सेना के काफिले के साथ पहुंचा तो पूरा गांव उनके अंतिम संस्कार के लिए इकट्ठा हो गया.

हालांकि गांव, कुलवंत के परिवार और सेना के पूर्व सैनिकों के परिवार के लिए यह एक गर्व का क्षण था, लेकिन आर्मी के लोगों के बीच इस बात को लेकर सुगबुगाहट थी कि आतंकवादियों के हाथों सैनिकों की हत्या कैसे रोकी जानी चाहिए.

कप्तान (सेवानिवृत्त) बिक्कर सिंह कहते हैं, “जिन इलाकों में कुलवंत काम कर रहे थे, वह बहुत मुश्किल है. यह आतंकी गतिविधियों के लिए जाना जाता है. सेना को बड़े समूहों में जाना चाहिए था.”

उन्होंने कहा कि हमारे सैनिकों के बलिदान से परिवार टूटते हैं और ऐसे हमलों को रोकने के लिए डिप्लोमेसी का सहारा लेना चाहिए.

पूर्व कप्तान बलविंदर सिंह कहते हैं, “देश नफरत से पैदा हुए थे. लेकिन आतंकवाद का हल प्यार से निकाला जाना चाहिए.”

गगनदीप कहते हैं, “उसने (कुलवंत) एक पड़ोसी से अमेज़न से स्मार्टफोन मंगवाने के लिए कहा था. लेकिन उसने हमें अभी फोन चालू करने के लिए मना किया था. वह इसे खुद चालू करना चाहते थे.” नया फोन अलमारी में अभी भी बंद पड़ा है.

यह उनका अपने परिवार के प्रति आकर्षण था कि शादी के तुरंत बाद उन्होंने जम्मू-कश्मीर में पोस्टिंग के लिए अनुरोध किया. घर करीब था. वह एक दिन में घर पहुंच सकते थे. लेकिन वह आखिरी बार घर में ताबूत में पैक हो करके आए.

(संपादनः शिव पाण्डेय)
(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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