महाराष्ट्र के फगने गांव की रहने वाली 70 वर्षीय दादी पढ़ना चाहती थीं. ‘मेरी इच्छा थी कि कम से कम में धार्मिक किताबें पढ़ पाती.’ उन्होंने गांव में शिवाजी जयंती उत्सव के मौके पर छत्रपति शिवाजी की जीवनी को पढ़ने का संघर्ष करते हुए योगेंद्र बांगर को बताया. ठाणे जिले में स्थानीय जिला परिषद शिक्षक और कार्यकर्ता, बांगर ने दादियों की शिक्षा के लिए आजीबाईची शाला नाम के एक स्कूल की शुरुआत की. इसका उद्घाटन 2016 में महिला दिवस पर किया गया था.
मोतीराम दलाल ट्रस्ट की फंडिंग की मदद से बांगर ने एक रूम की क्लास का स्कूल बनाया. इस ट्रस्ट की शुरुआत दिलीप दलाल ने वंचितों और बुजुर्गों के लिए काम करने के लिए की थी.
बांगर ने कहा, ‘जीवन में ज्ञान का सबसे ज्यादा महत्व है. हमने इस स्कूल की शुरुआत बुजुर्ग महलाओं में कॉन्फिडेंस और उद्देश्य की भावना बनाने के लिए की है.’
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आजीबाईची शाला में छात्रों की उम्र 60 से 90 वर्ष के बीच है. जहां 35 छात्र पढ़ते हैं और इसका समय लचीला है – कभी क्लास सुबह 10 से दोपहर 12 बजे तक होती है तो कभी दोपहर दो बजे से चार बजे तक.
30 वर्षीय शीतल मोरे 10वीं कक्षा पास हैं और स्कूल में एकमात्र शिक्षक हैं. वह महिलाओं को मराठी में अंक, अक्षर लिखना सिखाती हैं. सोमवार से शनिवार तक छात्राएं गुलाबी रंग की साड़ी पहनकर आती हैं.
स्कूल के आस-पास के बगीचे में हर छात्र के लिए एक पेड़ भी लगा है और महिलाएं अपने पेड़ों के पोषण के लिए जिम्मेदार होती हैं.
70 वर्षीय कांताबाई मोरे का कहना है कि वह बचपन में कभी स्कूल नहीं जाती थीं. उसके चार भाई-बहन थे – तीन बहनें और दो भाई. उसके पिता इतने गरीब थे कि वह सिर्फ उसके भाइयों को ही स्कूल भेज सकते थे. उसके माता-पिता खेतों में काम करने जाते थे और कांताबाई समेत तीनों लड़कियां घर का काम करती थीं.
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कांताबाई और उनके सहपाठियों के लिए घरेलू कामकाज छोड़कर से नर्सरी राइम और अक्षरों से रिश्ता बनाने का यह सफर उतना भी आसान नहीं रहा है. इसलिए, कांताबाई के पोते नितेश ने उनकी पढ़ाई में मदद की. किरदारों का उलटते हुए, नितेश अपनी दादी को स्कूल छोड़ने आता है.
कांताबाई ने कहा, ‘पहले, जब मुझे अपनी पेंशन वापस लेने के लिए बैंक जाना पड़ता था तो कर्मचारी मुझे देखते थे. मेरा अंगूठा पकड़ते थे और दस्तावेजों पर फिंगरप्रिंट के लिए स्याही पैड पर जोर देते थे. मुझे अपने आप पर बहुत शर्म आ रही थी – मुझे कम से कम अपना नाम लिखना आना चाहिए.’
उन्होंने आगे कहा, ‘अब, जब मैं बैंक जाती हूं तो वे हाथ जोड़कर मेरा स्वागत करते हैं और हस्ताक्षर करने के लिए मुझे कलम देते हैं. मैं गर्व महसूस कर रही हूं.’
दादी-नानी इस बात से सहमत हैं कि शिक्षा ने उनके जीवन को बदल दिया है और उनके परिवारों को उन पर गर्व है. कई लोगों के लिए बुजुर्ग महत्वहीन हो जाते हैं, शायद इसलिए वे एक पीढ़ी को पालने के बाद प्रोडक्टिव नहीं रहते हैं. आजीबाईची शाला का मिशन इन महिलाओं को ‘निरक्षरता’ के सामाजिक कलंक से मुक्त करना, उन्हें गर्व की भावना देना और यह संदेश देना है कि हमारे समाज में बुजुर्गों को प्यार और सम्मान की जरूरत है.
जयती साहा एक स्वतंत्र फोटोग्राफर हैं. विचार निजी हैं.
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