इंदौर: अगर सबकुछ ठीक-ठाक रहा और सरकार ने राजा रामन्ना प्रगत प्रौद्योगिकी केंद्र में चल रहे शोध को हरी झंडी दे दी तो वह दिन दूर नहीं जब भारत तकनीक के मामले में भी चीन और जापान को पीछे छोड़ देगा. और हमारे देश में भी उड़ने वाली ट्रेन आ सकती है. इंदौर स्थित आरआर कैट के वैज्ञानिकों ने हवा में चलने वाली मैग्लेव ट्रेन का प्रोटोटाइप तैयार कर लिया है. हवा में चलने वाली इस ट्रेन की तकनीक अभी तक सिर्फ चीन और जापान के पास है.
यह तकनीक आरआरकैट के वैज्ञानिक उस समय देश के सामने लाए हैं जब एक तरफ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी मेक इन इंडिया को बढ़ावा देने की बात कर रहे हैं वहीं दूसरी तरफ देश को सबसे तेज गति से चलने वाली बुलेट ट्रेन का इंतजार है. इसी बीच इंदौर स्थित संस्थान के वैज्ञानिकों का दावा है कि उन्होंने मैग्लेव ट्रेन का प्रोटोटाइप तैयार कर लिया है.
वैसे तो इस मॉडल को देखते समय वैज्ञानिकों ने इस ट्रेन की कई खूबियां बताई हैं लेकिन इसे बनाने में कितना खर्चा आएगा, इस योजना के बारे में सरकार या मंत्रालय का क्या विचार है इसके बारे में वैज्ञानिकों ने चुप्पी साध ली है. हवा में चलने वाली यह इकोफ्रेंडली ट्रेन मैग्नेटिक सिस्टम यानी चुंबकीय प्रणाली द्वारा निर्मित है इसलिए इस तकनीक को लेकर वैज्ञानिक काफी उत्साहित हैं.
क्या है मैग्लेव ट्रेन
सुपर कंडक्टर से लिक्विड नाइट्रोजन द्वारा कूलर सिस्टम द्वारा चलने वाली यह ट्रेन पूरी तरह से इकोफ्रेंडली बनाई गई है. फिलहाल यह तकनीक जापान और चीन के पास है. भारतीय वैज्ञानिकों ने इस ट्रेन को सिर्फ चीन और जापान में चलते हुए देखा है और उसी आधार पर ट्रेन का निर्माण किया है. अगर इसके तकनीकी पहलू को देखें तो इसमें फ्यूल के तौर पर नाइट्रोजन का इस्तेमाल किया जाता है वहीं ऊर्जा के लिए सोलर एनर्जी का उपयोग किया जाता है.
आरआर कैट के वैज्ञानिक आर एन शिंदे ने बताया कि यह मॉडल पिछले दो साल से पूरी तरह तैयार है. उन्होंने बताया कि हमारी तकनीक जापान और चीन में उपयोग की जा रही तकनीक से अधिक उन्नत है और अगर सरकार इस योजना को हरी झंडी देती है तो मैं यह दावे के साथ कह सकता हूं कि हमारी तकनीक देखने के बाद दुनिया हमारे वैज्ञानिकों का लोहा मानेगी. उन्होंने बताया कि कैसे यह ट्रेन मैग्नेटिक फील्ड जेनरेट कर चलती है. उन्होंने बताया कि इस ट्रेन में टक्कर और दुर्घटना होने का कोई चांस नहीं है.
वैज्ञानिकों का दावा है कि यह ट्रेन 800 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार से चलेगी. और इस तकनीक से बनी ट्रेन फिलहाल जापान और चीन में चल रही है और इसकी रफ्तार 800 किलोमीटर प्रति घंटे है. वैसे वैज्ञानिक इस ट्रेन के अमली जामा पहनाए जाने के मामले में कुछ भी कहने में कतराते नजर आए. वहीं आर शिंदे ने कहा कि हमने मॉडल और तकनीक तैयार कर दिया है अब सरकार जब भी हमें हरी झंडी देगी हम इसकी कॉस्टिंग और कितने वर्षों में यह पटरी पर आ जाएगी बता पाएंगे.
कितने वैज्ञानिकों ने कितने वर्षों में बनाया मॉडल
वैज्ञानिक आर. एन. एस. शिंदे ने बताया कि करीब 50 वैज्ञानिकों, तकनीशियनों की मदद से इस ट्रेन का प्रोटोटाइप तैयार किया है. बता दें कि इस प्रोटोटाइप को बनाने में भी वैज्ञानिकों को लगभग 10 साल का समय लगा है. इस ट्रेन की सबसे खास बात यही थी कि यह ट्रेन पटरी से करीब 2 सेंटीमीटर ऊपर हवा में चलती नजर आई..
वैसे तो यह अनुसंधान केंद्र लेजर तकनीक और परमाणु ऊर्जा से जुड़े विभिन्न क्षेत्र पर शोध और विकास किया जाता है और इसी के लिए दुनियाभर में प्रसिद्ध है लेकिन यहां वैज्ञानिक चुंबकीय शक्ति के साथ साथ वैज्ञानिक कई नई तकनीक पर भी शोध कर रहे हैं. वैसे यहां के वैज्ञानिकों ने बुलेट ट्रेन से भी तेज रफ्तार से चलने वाली मैग्लेव ट्रेन के मॉडल का सफल परीक्षण किया है. सामान्य भाषा में इसे हवा में चलने वाली ट्रेन भी कहा जा सकता है.
600 से लेकर 1200 किलोमीटर प्रति घंटा की है रफ्तार
मैग्नेटिक फील्ड पर चलने वाली इस ट्रेन की रफ्तार पर वैज्ञानिकों ने दावा किया कि ट्रेन पर हम हर दिन शोध कर रहे हैं और इसकी रफ्तार को 600- 800 और 1200 किलोमीटर प्रति घंटा तक पहुंचाने के लिए काम कर रहे हैं. फिलहाल, इस ट्रेन के मॉडल का सफल परीक्षण किया गया है. हालांकि, सरकार इस तकनीक को किस तरह से इस्तेमाल करेगी ये आने वाले वर्षो में पता चलेगा, लेकिन पूर्ण रूप से स्वदेशी तकनीक से बनाई ये मैग्लेव ट्रेन की तकनीक जापान और चीन की तकनीक के बराबर है.
नाइट्रोजन से चलने वाली यह मैग्नेटिक ट्रेन सिर्फ हवा में चलने के लिए नहीं बल्कि स्पीड के लिए भी काफी पॉपुलर होने की उम्मीद है. भारत में पिछले कई वर्षों से हाई स्पीड ट्रेनों को लेकर क्रेज बढ़ा है. देश एक तरफ बुलेट ट्रेन और सिग्नलिंग को लेकर काम तेजी से चल रहा है वहीं ड्राइवर लेस वंदे भारत एक्सप्रेस नाम की हाई स्पीड ट्रेन शुरू भी हो चुकी है. बता दें कि तकनीकी और शोध के मामले में भारत अब विकसित राष्ट्रों को टक्कर दे रहा है. इसरो एक ओर जहां नए नए शोध कर रहा है वहीं दूसरी तरफ स्पीड भी देश की प्राथमिकता में से एक है.
आर शिंदे ने कहा कि विश्व में अगर हमें विकसित राष्ट्र से आगे बढ़ना है तो आपको अपनी वैज्ञानिक तकनीक को मजबूत करना होगा और हमारे वैज्ञानिक इस ओर काम कर रहे हैं. हमारे भारत जैसे देश में जहां प्रदूषण और पॉपुलेशन दोनों बड़ी समस्या है ऐसे में मैग्लेव ट्रेन एक बड़ी उपलब्धि साबित हो सकती है. शिंदे ने आगे कहा कि आने वाले समय में जब पेट्रोल और डीजल का स्टॉक खत्म हो रहा है ऐसे में यह ट्रेन एक क्रांति साबित हो सकती है.
खेती किसानी भी है वैज्ञानिकों की प्राथमिकता
मुख्यतौर पर परमाणु ऊर्जा से जुडे़ विभिन्न क्षेत्र पर रिसर्च और डेवलपमेंट करने वाले इस अनुसंधान केंद्र में पेस मेकर से लेकर खेती किसानी तक के लिए कई तरह के शोध किए हैं. यहां के वैज्ञानिकों ने लेजर बीम पर सफल अनुसंधान किया है. जिसके जरिए कई किलोमीटर खड़े टैंक को ध्वस्त करने के साथ साथ खेती किसानी में भी इसका भरपूर उपयोग किए जाने की बात बताई. वैज्ञानिकों ने इलेक्ट्रॉनिक बीम का उपयोग कर किस तरह से चना,मूंग, रवा सहित कई उत्पादों की सेल्फ लाइफ बढ़ाई जाए इस पर भी शोध किया है. साथ ही म्यूटेशन द्वारा धान और मूमफली के उत्पाद को उन्नत बनाने पर भी जोर दिया है. इलेक्ट्रॉन बीम का उपयोग कर आम की फसल को प्रिजर्व करने और सेल्फ लाइफ को बढ़ाने पर शोध किया जा रहा है.
स्वास्थ्य और युद्ध के क्षेत्र में भी लाएगा क्रांति
आरआरकैट की स्थापना 1984 में की गई थी और यहां सबसे अधिक लेजर पर अनुसंधान किए जा रहे हैं. इन लेजर बीम का इस्तेमाल न्यूक्लियर रियेक्टर में किया जाता है. इसके साथ ही इस केंद्र के वैज्ञानिकों ने लेजर को दूसरे क्षेत्रों में सफल इस्तेमाल करने के लिए भी कई तरह के प्रयोग किए हैं. अलग-अलग लेजर बीम के जरिए मेडिकल क्षेत्र में कठिन से कठिन ऑपरेशन किया जा रहा है. यहां के वैज्ञानिकों ने युद्ध के क्षेत्र में टैंक पर लगने वाली लेजर बीम भी इजाद की है, जिसके जरिए कई किलोमीटर दूर तक सटीक निशाना लगाया जा सकता है. इसके अलावा ऑटोमोबाइल इंडस्ट्री में भी इस तकनीक का बखूबी इस्तेमाल किया जा रहा है.
वैज्ञानिक बताते हैं रिचर्स सेंटर में शोध पूरी तरह से गोपनीय होते हैं. देश की जरूरतों को देखते हुए कई क्षेत्रों में प्रयोग किए गए हैं और किए जा रहे हैं. जो कि देश की रक्षा, स्वास्थ्य और कृषि के लिए बेहद जरूरी हैं. इसके साथ ही हमारे उद्योगों को कम कीमत पर नई तकनीक भी मिल रही है.