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Saturday, 23 November, 2024
होमदेशतेल की कीमतें लुढ़की, कोरोनावायरस के साथ-साथ रूस और अमेरिका की आपसी राजनीति इसके पीछे

तेल की कीमतें लुढ़की, कोरोनावायरस के साथ-साथ रूस और अमेरिका की आपसी राजनीति इसके पीछे

ओपेक देश कोरोनावायरस के कारण तेल के दाम पर पड़े असर को थामने के लिये उत्पादन में कटौती करना चाह रहे हैं लेकिन रूस द्वारा प्रस्ताव मानने से इंकार करने के बाद तेल के दामों में भारी कमी आई है.

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नई दिल्ली: तेल निर्यातक देशों के संगठन (ओपेक) और सहयोगियों के बीच तेल उत्पादन में कटौती को लेकर समझौता नहीं होने के बाद पूरे विश्व में तेल की कीमतों में भारी गिरावट देखने को मिल रही है. रूस ने कोरोनावायरस के प्रभाव से निपटने के लिये आपूर्ति में कमी से इनकार कर दिया है. इससे तेल के भाव में गिरावट दर्ज की गयी. कई देशों के शेयर बाजारों में भी इसका प्रभाव दिखा है.

ओपेक देश कोरोनावायरस के कारण तेल के दाम पर पड़े असर को थामने के लिये उत्पादन में कटौती करना चाह रहे हैं.

ब्रेंट क्रूड ऑयल के दाम 36 डॉलर प्रति बैरल जबकि अमेरिकी डबल्यूटीआई ऑयल के दाम 32 डॉलर प्रति बैरल पर आ गए हैं.

भारतीय रुपये में गिरावट का सिलसिला सोमवार को भी जारी रहा और शुरुआती कारोबार के दौरान अमेरिकी डॉलर के मुकाबले रुपया 16 पैसे टूटकर 74.03 पर आ गया. घरेलू शेयर बाजार में तेज गिरावट और कोरोना वायरस के चलते आर्थिक मंदी की आशंका के कारण रुपये पर दबाव देखने को मिला.

ओपेक की शुरुआत 1960 में हुई थी जिसकी स्थापना सऊदी अरब, वेनेजुएला, ईरान, कुवैत और इराक ने की थी. वर्तमान में 14 देश इस समूह में हैं.

ओपेक के क़ानून के अनुसार, पेट्रोलियम निर्यातक देशों के संगठन (ओपेक) का मिशन अपने सदस्य देशों की पेट्रोलियम नीतियों का समन्वय और एकीकरण करना है और एक कुशल, आर्थिक और नियमित आपूर्ति को सुरक्षित करने के लिए तेल बाजारों के स्थिरीकरण को सुनिश्चित करना है.

ऊर्जा विशेषज्ञ नरेंद्र तनेजा वैश्विक बाज़ार में तेल को लेकर छिड़े खेल को अंतर्राष्ट्रीय राजनीति मानते हैं जो अमेरिका, रूस और सऊदी अरब के बीच चल रहा है. उन्होंने बताया, ‘ये अंतर्राष्ट्रीय राजनीति और अमेरिका की घरेलू राजनीति को प्रभावित करने का खेल है.’


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उन्होंने कहा, ‘मौजूदा संकट असल में आपूर्ति का मसला है. चीन दुनिया में तेल का एक बड़ा मार्केट है. कोरनावायरस के कारण तेल के डिमांड में भारी कमी आई है.’

तेल संकट के पीछे अमेरिकी चुनाव बड़ा कारण

इस साल के आखिर में अमेरिका में राष्ट्रपति चुनाव होने हैं जिसकी सुगबुगाहट वहां तेज़ हो गई हैं.

तनेजा कहते हैं, ‘ओपेक ने तेल का उत्पादन कम करने का प्रस्ताव दिया था जिसे रूस ने नहीं माना. रूस चाहता है कि वैश्विक बाज़ार में तेल की कीमत 50 बैरल प्रति डॉलर से कम बनी रहे जिससे अमेरिकी तेल बाज़ार को नुकसान पहुंचे. ऐसा होने से ट्रंप की लोकप्रियता पर असर पड़ेगा और वो चुनाव हार सकते हैं. तेल के दामों में कमी आने से अमेरिकी शैल उत्पादकों पर गंभीर असर पड़ेगा जिससे वहां की अर्थव्यवस्था पर प्रतिकूल असर पड़ेगा.’

वो कहते हैं, ‘तेल का जो खेल चल रहा है उसमें दो कारक सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं- एक रूस और दूसरा कोरोनावायरस.’

वो आगे कहते हैं, कोरोनावायरस ने इस संकट को शुरू किया लेकिन पिछले 48 घंटों में जो कुछ भी हुआ उसमें सऊदी अरब, अमेरिका और रूस का खेल है. इसलिए तेल की कीमतों में कमी आई है. रूस और सऊदी ने तेल का उत्पादन घटाने की जगह बढ़ा दिया है. नतीजा ये है कि बाज़ार में तेल काफी ज्यादा मात्रा में उपलब्ध है.’

इसी साल अमेरिका में राष्ट्रपति चुनाव होने हैं. तनेजा कहते हैं, ऐसे में रूस चाहता है कि तेल के दामों में कमी होने से वहां की अर्थव्यवस्था कमज़ोर हो जिससे चुनावों में डोनाल्ड ट्रंप की हार हो सके.’

‘तेल के दामों में कमी होने से रूस पर फर्क नहीं पड़ेगा बल्कि चुनावी साल में सबसे ज्यादा असर अमेरिका को होने वाला है. अगर अगले तीन-चार महीने यही सिलसिला चलता रहा तो लाखों लोग बेरोज़गार होंगे जिससे अमेरिकी लोगों में असंतोष बढ़ेगा और उसका असर चुनावों में देखने को मिल सकता है.’

तेल संकट तीन-चार महीने से ज्यादा चला तो भारत भी हो सकता है प्रभावित

वैश्विक तौर पर जो तेल का संकट उभरा है उससे भारत कितना प्रभावित होगा इसपर तनेजा कहते हैं, ‘जो देश अपना 85 फीसदी से ज्यादा तेल आयात करता है उसके लिए तो ये अच्छी खबर है लेकिन तीन-चार महीने से ज्यादा तक ये सिलसिला चलता है तो भारत के लिए भी मुश्किलें खड़ी हो सकती हैं. अगर पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था में मंदी आ जाती है तो उस स्थिति में भारत भी नहीं बचेगा.’


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वो बताते हैं, ‘एक करोड़ भारतीय खाड़ी के उन देशों में रहते हैं जिनकी अर्थव्यवस्था तेल से चलती है. तेल की कीमतों में कमी आने से खाड़ी के देशों के प्रोजेक्टस रुक जाएंगे जिससे वहां रह रहे भारतीयों की नौकरियां जा सकती हैं.’

वो आगे कहते हैं, ‘भारत को प्रवासियों द्वारा 65 बिलियन डॉलर की रकम खाड़ी के देशों से होती है. अगर उन देशों की अर्थव्यवस्था चरमराती है तो आयात होने वाली चीज़े प्रभावित होंगी. जिसका असर भारत की अर्थव्यवस्था पर पड़ेगा.’

कोरोनावायरस के हड़कंप को रोकना पड़ेगा 

ऐसी स्थिति में अमेरिका आगे क्या रूख अख्तियार कर सकता है, इसपर तनेजा बताते हैं कि अमेरिका के पास मौजूदा समय में ज्यादा विकल्प नहीं है. अमेरिका अपने मित्र देशों और सऊदी अरब से तेल के उत्पादन को घटाने को कह सकता है और अमेरिका का प्रयास होना चाहिए कि वो कोरोनावायरस के हड़कंप को रोके और वैश्विक अर्थव्यवस्था को नियंत्रित करें.

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