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Friday, 22 November, 2024
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ग्रामीण भारत: घूंघट के भीतर से कैसी दिखती है डिजिटल दुनिया

राजस्थान के गांवों की टिकटॉक स्टार, महिला सरंपचों, घूंघट प्रथा के समर्थकों-विरोधियों, सामाजिक संगठनों और इंटरनेट का इस्तेमाल करने वाली महिलाओं से बातचीत बताती है कि समाज बदलाव के दौर से गुजर रहा है.

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राजगढ़/अलवर: ‘मैंने पिछले साल आंगनवाड़ी के काम के सिलसिले में इंटरनेट का इस्तेमाल करना सीखा था. शुरू में दिक्कत हुई लेकिन बाद में व्हाटसऐप भी चलाना सीखा. खेती-बाड़ी भी करती हूं तो व्हाटसऐप और आंगनवाड़ी के अलावा इंटरनेट के लिए ज्यादातर समय नहीं रहता.’

राजस्थान के अलवर जिले में अरावली श्रृंखला की एक छोटी पहाड़ी पर बसे नांगल बोहरा गांव की आंगनवाड़ी वर्कर 34 वर्षीय सन्नू बाई शर्मा अपने घूंघट को ठीक करते हुए बता रही हैं.

नंवबर, 2019 में इंटरनेट की दुनिया से रूबरू हुई सन्नू को अपनी जिंदगी अब आसान और रोचक लगने लगी है. वह कहती हैं, ‘हां, कभी-कभी सास-बहू के सीरियल भी देख लेती हूं यूट्यूब पर.

दिप्रिंट की इस विशेष रिपोर्ट में हमने घूंघट और इंटरनेट की दुनिया के बीच तालमेल बैठाती सन्नू जैसी ग्रामीण महिलाओं के अनुभवों को जानने की कोशिश की है. साथ ही हमने इंटरनेट के विस्तार से आई आधुनिकता और घूंघट जैसे रूढ़िवादी विचार के साथ विद्यमान होने के कारण पैदा हुए सामाजिक विरोधाभाषों की पड़ताल भी की.

राजधानी दिल्ली से लगभग 250 किलोमीटर दूर राजस्थान के गांवों की टिकटॉक स्टार, महिला सरंपचों, घूंघट प्रथा के समर्थकों व विरोधियों, सामाजिक संगठनों और इंटरनेट का अलग-अलग तरीके से इस्तेमाल करने वाली महिलाओं से बातचीत बताती है कि समाज एक बदलाव के दौर से गुजर रहा है.

‘घूंघट से टिकटॉक स्टार तक का सफर’

मूनपुर गांव की महिला किसान 30 वर्षीय गुड्डी देवी कहती हैं, ‘घर में दो साल पहले इंटरनेट वाला फोन आया था. काम के लिए पति फोन दिनभर अपने पास रखता लेकिन जब रात में घर लौटता तो थोड़ी देर फोन मैं ले लेती. इतवार के दिन जब फोन मिलता है तो सपना चौधरी के गाने और क्राइम पेट्रोल देख लेती.’

आप सपना चौधरी की तरह डांस भी कर लेती हैं? मेरे सवाल पर गुड्डी हंसते हुए कहती हैं, ‘और नहीं तो क्या. घूंघट करके डांस कर लो. मेरे डांस की तो सब तारीफ करते हैं यहां.’

इसी गांव की तीन साल पहले लाड़ी (बहू) बनकर आईं 18 वर्षीय रूपन मीणा के पास खुद का मोबाइल तो नहीं है लेकिन अपने देवर के फोन के जरिए इंटरनेट की दुनिया में तांक-झांक कर पाती हैं. वो कहती हैं, ‘मुझे टिकटॉक और धामों के वीडियो बहुत पंसद हैं. अपने वीडियो भी खूब बनाती हूं पर टिकटॉक पर अपलोड नहीं किए.’

वहीं उकेरी गांव की 24 वर्षीय अनीता मीणा ने पिछले साल टिकटॉक पर अपना एक वीडियो लगा दिया था. उसके बाद उनके वीडियो हिट होने लगे और राजस्थान के लोगों ने उन्हें टिकटॉक स्टार का नाम दे दिया. घूंघट और टिकटॉक स्टार की छवि के विरोधाभाष पर अनीता कहती हैं, ‘गांव में तो घूंघट करना ही पड़ता है लेकिन शहर में ऐसी कोई पाबंदी नहीं है. टिकटॉक पर भी घूंघट नहीं करना पड़ता. वो भी एक तरह की अलग सिटी ही है. हमारे गांव के लोग मेरे टिकटॉक वीडियो देखते हैं लेकिन मुझे उनके सामने घूंघट भी करना पड़ता है.’ अनीता के वीडियो रूपन और गुड्डी भी देखती हैं.

उच्च शिक्षा हासिल कर रही 21 वर्षीय अनू मीणा अपने निजी अनुभव बताती हैं, ‘कुछ साल पहले तक फेसुबक पर आईडी बना लेना अपराध बोध से भर देता था. कभी बाल कृष्ण तो कभी छोटे बच्चे वाली डीपी के पीछे अपनी पहचान छुपाकर हम लोग इंटरनेट की दुनिया को देख पाते थे. अब बदलाव आया है. घूंघट वाली औरतें तो यूट्यूब और दूसरी ऐप्स पर धमाल कर रही हैं. भले ही ये वीडियो बनाने वाली महिलाओं की संख्या कम हो लेकिन उन्हें देखने वालियों की संख्या हजारों में है.’

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राजस्थान में एक बुजुर्ग महिला से हुक्का पीती हुईं |सूरज सिंह बिष्ट, दिप्रिंट

‘पितृसत्तामक ढांचे ने महिलाओं को इंटरनेट से दूर रखने की कोशिश की’

राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत 2020 की शुरुआत से ही गुड्डी, अनीता, रूपन और सन्नू बाई जैसी महिलाओं को घूंघट की प्रथा से बाहर निकालने का बीड़ा उठाए हुए हैं. वो अपनी सभाओं, रैलियों और साक्षात्कारों में बार-बार कह रहे हैं कि किसी भी शिक्षित समाज में ऐसी प्रथा की कोई जगह नहीं है. गहलोत के एक निजी अनुभव से शुरू हुई ये मुहिम अब राजस्थान सरकार द्वारा अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर चलाई जा रही एक हफ्ते के कार्यक्रमों का हिस्सा भी बन गई है.

मगर सरकार और समाज के साझे प्रयासों को सबसे बड़ी चुनौती महिलाओं की तरफ से ही मिल रही है. आईआईएस यूनिवर्सिटी (जयपुर) के मीडिया विभाग में एडवाइजर के तौर पर कार्यरत डॉक्टर शिप्रा माथुर टिप्पणी करती हैं, ‘घूंघट की प्रथा महिलाओं को शर्मिंदा करके या अलोकतांत्रिक तरीके से खत्म नहीं की जा सकती. इंटरनेट के विस्तार और महिलाओं के शिक्षित होने के बाद बदलाव आएगा.’

मूनपुर गांव की ममता घूंघट के बिना कैसा महसूस होता है? पर जवाब देती हैं- नग्न. ममता का मानना है, ‘सिटी और इंटरनेट पर फेमस हो रही महिलाओं पर पाबंदी कम हो रही है. गांव में घूंघट हटाने पर सामाजिक तिरस्कार का सामना करना पड़ेगा.’

टिकटॉक स्टार अनीता का भी कहना है, ‘आमतौर पर ग्रामीण भारत की एक लड़की के जीवन में घूंघट और मोबाइल फोन, दोनों ही शादी के बाद आते हैं. घूंघट का बोझ ढोना एक तरह की मजबूरी समझ लीजिए. इसे पूरी तरह खत्म तो आने वाली पुश्ते ही कर सकेंगी.’

सालों से महिला मुद्दों पर जमीनी स्तर पर काम कर रहीं माथुर कहती हैं, ‘पहले महिलाएं घरेलू और खेती के कामों के चलते सामूहिक सभाओं का हिस्सा कम बन पाती थीं लेकिन अब टेक्नोलॉजी और इंटरनेट के आने के बाद मैंने सभाओं में महिलाओं की उपस्थिति में तब्दीली महसूस की है. घूंघट को कमजोर औरत की निशानी नहीं माना जाना चाहिए. बल्कि घूंघट वाली औरतों में इंटरनेट सीखने की जिज्ञासा भरी हुई है.’ महिलाओं की इस इच्छा को हाइलाइट करता हुआ एक गाना भी पिछले साल आया था, ‘बाबा मन्नै टच का फोन दिला दे..गोरा तै बात करा दे.’

सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च की सीनियर विजिटिंग फेलो सबीना दिवान महिलाओं और डिजिटल दुनिया के कनेक्ट को अलग तरह से देखती हैं. वो कहती हैं, ‘ग्रामीण भारत का पितृसत्तात्मक ढांचा, महिलाओं के बीच इंटरनेट के विस्तार में बाधा बनता है. लेकिन यही इंटरनेट पितृसत्ता को कम करने में मददगार भी साबित होगा.’

आदिवासी मीणा सेवा संघ के अलवर जिले के उपाध्यक्ष जौहरी लाल मीणा भी मानते हैं, ‘भौतिक संसाधनों पर पुरुषों का वर्चस्व बनाए रखने वाले ग्रामीण समाज में इंटरनेट के शुरुआती दौर में इसे सिर्फ पुरुषों के काम की चीज माना गया लेकिन अब इसे महिलाओं की जरूरत भी समझा जा रहा है.’

‘मनोरंजरन और कम्युनिकेशन का रास्ता उद्यमिता की ओर ले जाएगा’

डिजिटल स्पेस में फैले लैंगिक भेद को कम करने के लिए समय-समय पर विभिन्न संस्थाएं पहल करती रही हैं. जैसे साल 2016 में गूगल इंडिया और टाटा ट्रस्ट ने ‘इंटरनेट साथी’ नाम से एक पहल शुरू की जिसका उद्देश्य ग्रामीण महिलाओं में डिजिटल लिटरेसी को बढ़ावा देना था. डिजिटल दुनिया के ट्रेंड्स पर नजर रखने वाली आईसीयूबीई की एक रिपोर्ट बताती है कि 2018 में ग्रामीण भारत में 251 मिलियन इंटरनेट यूजर थे जिसमें 41 फीसदी महिलाओं की हिस्सेदारी थी.

माथुर इस पर कहती हैं, ‘फिलहाल इंटरनेट का इस्तेमाल महिलाओं में मनोंरजन और कम्युनिकेशन के लिए हो रहा है. लेकिन भविष्य में महिलाओं को इंटरनेट से जोड़ने वाली यही कड़ी उन्हें इंटरप्रेन्योरशिप यानि उद्ममिता की ओर भी ले जाएगी.’

‘घूंघट में सिमटी कम उम्र की दुल्हनों के लिए इंटरनेट वरदान की तरह है’

ज्ञात हो कि राजस्थान में आज भी बाल विवाहों का औसत राष्ट्रीय औसत से बहुत ज्यादा है. बाल विवाहों में राजस्थान के ग्रामीण क्षेत्रों की 89.4 फीसदी हिस्सेदारी है. बुजुर्ग महिलाएं अपने जमाने की मुश्किलें साझा करते हुए कहती हैं, ‘बाल्यवस्था में शादी होने के चलते हमें मायके की याद बहुत आती थी लेकिन बिना किसी संसाधन के ससुराल में मन लगाने में हमें कई साल लग जाते थे. मोबाइल और इंटरनेट के आने से रूपन मीणा नई बहुओं का जीवन आसान हुआ है.’

देश के अन्य राज्यों में घूंघट का चलन है लेकिन यूनिवर्सिटी ऑफ पेन्सिल्वेनिया का 2017 का एक सर्वे बताता है कि राजस्थान में 18-25 उम्र की 90 फीसदी महिलाएं घूंघट करती हैं. सरकारी योजनाओं को आखिरी व्यक्ति तक पहुंचाने वाली आंगनवाड़ी और आशा वर्कर भी घूंघट में ही अपना काम करती हैं.

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राजस्थान में महिलाएं पुरुषों के साथ खेत के काम में लगी हुईं |सूरज सिंह बिष्ट, दिप्रिंट

‘घूंघट वाली महिला सरंपच भी सीखना चाहती हैं इंटरनेट’

ग्राम पंचायत के सिस्टम में एक सरपंच या प्रधान का पद महत्वपूर्ण होता है. पंचायती राज में महिलाओं की भागीदारी के मामले में राजस्थान दूसरा ऐसा राज्य है जहां उनकी संख्या 58 फीसदी है. लेकिन गहलोत ने एक सभा को संबोधित करते हुए कहा था कि कई बार दौरे के दौरान महिलाओं की जगह उनके सरपंचपति या प्रधानपति मिलते हैं. महिलाएं घूंघट हटाने के लिए तैयार ही नहीं होती. महिलाओं की जगह उनके पति, ससुर या जेठ ही पद संभालते हैं.

दिप्रिंट के साथ हुए साक्षात्कार के दौरान नयागांव की महिला सरपंच बिमला देवी को तीन बार उठना पड़ा क्योंकि वो बुजुर्गों की उपस्थिति में घूंघट हटाने पर सहज नहीं थीं. वो कहती हैं, ‘हम पढ़े-लिखे नहीं है लेकिन धीरे-धीरे हम लोग भी इंटरनेट सीख जाएंगे.’ जिस वक्त वो हमसे बात कर रही थीं उसी वक्त उनके पड़ोसी विदेश में रह रहे उनके बच्चों को तस्वीर खींच कर भेज रहे थे. बिमला देवी कहती हैं, ‘पड़ोसी के फोन से वो वीडियो कॉल पर अपने बच्चों से बात कर लेती हूं. फोन से सारी जानकारी भेज देती हूं.’

जौहरी लाल मीणा डिजिटल दुनिया में महिलाओं की हिस्सेदारी बढ़ने को महिला सशक्तिकरण से जोड़कर देखते हैं. वो कहते हैं, ‘घूंघट को एक दिन में तो खत्म नहीं किया जा सकेगा लेकिन अगर पुरुष भी आगे आएंगे तो उस कुरीति से पीछा छूट जाएगा.’

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5 टिप्पणी

  1. कभी “बुरका” पर भी ज्ञान पेलने की कृपा करने का भी कष्ट करे??? भारतीय परंपरा पर तो बहुत ज्ञान बताते है???

  2. सच कहू तो महिलाओ का घूघंट प्रथा से मे नाराज हू अगर महिला परदे मे रहेगी तो जो कहना है कह नही पायेगी हा आज आदमी बडे ही तेजी से कहता है हम स्वतंनत्र भारत के स्वंतन्त्र नागरिक है क्या ये ही हमारी स्वतन्त्रता है
    आज नारी भी हम से आगे है मुझै बताओ कोई महिला डाक्टरबनकर ससुराल आजाये पोस्टिगं के दौरान तो क्या ग्रामीणो का ईलाज घूघटं मे करेगी गांव के बीच जब उसकी मर्यादा कहां चली जायेगी तब ससुर पति सांस ननद कहा चले जायेगी तब तो गावं मे सीना ठोककर पति कहेगा मेरी बीवी नही होती डाक्टर आज तो केश इमपासिबल था
    ससुर अलग कहेगा सांस अलग और ननद का तो जवाब ही नही भाभीजी डाक्टर क्या बन गई ननद तो हीरो बनगई
    इस लिये कहता हू किसी के भाग्य का कोई पता नही फालतू की मर्यादा हटाऔ सभी समान है बहू भी बेटी के समान होती है बस मां और पिता कोई और होते है जोससांर मे सासं ससुर के रुप मे दिखते है
    महेश चंद मीणा बसवा दौसा राजस्थान
    आपकी मुहिम बहुत अच्छी लगी
    धन्यावाद

  3. धन्यावाद
    अगर मुहिम अच्छी लगी तो लाईकस दे

  4. अच्छी नही बहुत ही अच्छी हमारे समाज की बहू बेटियो को भी ईतना ज्ञान है विशवास ही नही ग्रामीण महिला भी डीस बोलने लगी और तो और ईतना बढचढ कर बोल लेती है कि इंटरव्यू के दौरान चहरे पर शिकन तक नही
    गजब mc meena baswa

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