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Wednesday, 25 December, 2024
होमदेशरोमियो-जूलियट और नोबल गैस—2020 के दिल्ली दंगों के गवाहों की ‘पहचान छिपाने’ के लिए कैसे बदले नाम

रोमियो-जूलियट और नोबल गैस—2020 के दिल्ली दंगों के गवाहों की ‘पहचान छिपाने’ के लिए कैसे बदले नाम

दंगों की साजिश से जुड़े मामले में कई गवाहों को यूएपीए की धारा 44 के तहत सुरक्षा प्रदान की गई है. यह धारा कहती है कि अगर अदालत को लगता है कि गवाह की जान को खतरा हो सकता है तो उनकी पहचान गोपनीय रखी जा सकती है.

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नई दिल्ली: 2020 में नॉर्थ ईस्ट दिल्ली में भड़के दंगों की साजिश से जुड़े मामले में कई गवाहों को ‘सुरक्षा’ प्रदान करने के उद्देश्य से उनकी ‘पहचान गुप्त रखी’ गई है, और इसके लिए उन्हें विलियम शेक्सपियर की विश्व विख्यात कृति रोमियो और जूलियट से लेकर पीरिऑडिक टेबल के तत्वों जैसे सोडियम, नियॉन और रेडियम तक कई अजीबो-गरीब नाम दिए गए हैं.

6 मार्च 2020 को दायर की गई एफआईआर संख्या. 59/2020 के मुताबिक, नॉर्थ ईस्ट दिल्ली में भड़के दंगे एक सुनियोजित साजिश का हिस्सा थे जो ‘जेएनयू छात्र उमर खालिद और उसके साथियों ने सहयोगियों की तरफ से रची गई थी.’

इस मामले में चार्जशीट के साथ-साथ अदालत के आदेश भी कई संरक्षण प्राप्त गवाहों पर निर्भर करते हैं जिनमें बॉन्ड, सैटर्न, स्मिथ, इको, सिएरा, हीलियम, क्रिप्टन, जॉनी, प्लूटो, सोडियम, रेडियम, गामा, डेल्टा, बीटा, नियॉन, होटल, रोमियो, जूलियट और जेम्स आदि शामिल हैं.

दिप्रिंट के पास एफआईआर, चार्जशीट के साथ अदालती आदेशों की प्रतियां भी मौजूद हैं.

दिल्ली पुलिस के सूत्रों ने दिप्रिंट को बताया कि संरक्षण प्राप्त गवाहों के नाम रैंडम आधार पर चुने गए हैं और उन्हें गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम (यूएपीए) की धारा 44 के तहत सुरक्षा प्रदान की गई है.

जान के खतरे की आशंका वाले गवाहों को सुरक्षा मुहैया कराने के प्रावधानों से संबंधित धारा कहती है कि यदि अदालत को लगता है कि ऐसे गवाह का जीवन खतरे में हो सकता है तो उनकी पहचान गुप्त रखी जा सकती है. गवाह की तरफ से कोर्ट या लोक अभियोजक के समक्ष किए गए आवेदन के आधार पर उसके नाम-पते को गोपनीय रखा जा सकता है. इसके अलावा कोर्ट खुद भी इस बारे में फैसला कर सकती है.

अगर कोर्ट खुद किसी गवाह को इस तरह की सुरक्षा देने का फैसला करती है तो उसे इसके कारणों को लिखित तौर पर दर्ज करना होगा.

दिल्ली पुलिस के एक सूत्र ने कहा, ‘जांच के दौरान यदि किसी जांच अधिकारी को कुछ खास वजहों से ऐसा आभास होता कि किसी गवाह विशेष की जान को खतरा हो सकता है, तो सुरक्षा के लिहाज से उसे छद्म नाम दिया जाता है. अक्सर जैसा कई संवेदनशील मामलों में होता है, दिल्ली दंगों के मामले में भी तमाम गवाह अपने भविष्य और जान को खतरे के डर से आरोपियों के खिलाफ अपना बयान दर्ज कराने को तैयार नहीं थे.’

उन्होंने बताया कि इस मामले में कई गवाह आगे आने को लेकर डरे हुए थे और फिर लोक अभियोजक की तरफ से अदालत के समक्ष आवेदन दायर करके उन्हें सुरक्षा प्रदान की गई.

सूत्रों के मुताबिक, इन संरक्षित गवाहों के नाम रैंडम आधार पर चुने गए है.

ऊपर उद्धृत सूत्र ने कहा, ‘उनके नाम रखने को लेकर कोई पैटर्न नहीं अपनाया गया है. इन लोगों के पते भी सार्वजनिक तौर पर सामने नहीं रखे गए हैं. इस तरह, पहचान छिपाने के लिए इनके नाम तो नहीं लिए जाते. लेकिन उनका अलग-अलग होना सुनिश्चित करने और बयान दर्ज करने की प्रक्रिया को आसान बनाने के लिए, जांचकर्ता उन्हें अलग-अलग छद्म नाम दे देते हैं.’

उन्होंने कहा, ‘छद्म नाम रखने में सिर्फ एक ही चीज ध्यान रखी जाती है कि उनका एक-दूसरे से अलग होना सुनिश्चित हो सके और पूरी प्रक्रिया आसान बनी रहे.’


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नाम-पता गोपनीय रखना

धारा 44 के मुताबिक, यूएपीए के तहत कार्यवाही ‘अगर अदालत चाहे तो बंद कमरे में’ भी हो सकती है. इस प्रावधान के तहत किसी गवाह को एक बार संरक्षण मिलने पर अदालत उसकी सुरक्षा के लिए हरसंभव उपाय अपना सकती है. इनमें अदालत की तरफ से निर्धारित किसी स्थान पर कार्यवाही का संचालन और गवाह के नाम-पते का खुलासा न करना सुनिश्चित किए जाने संबंधी निर्देश जारी करना शामिल है. कोर्ट यह आदेश भी दे सकती है कि ऐसे किसी गवाह के नाम-पते का जिक्र उसके किसी भी आदेश या फैसले, या जनता को आसानी से उपलब्ध हो सकने वाले रिकॉर्ड में दर्ज नहीं होना चाहिए.

कोर्ट जनहित में यह आदेश भी दे सकती है कि ‘ऐसी किसी अदालत के समक्ष लंबित किसी या हर तरह की कार्यवाही प्रकाशित नहीं की जाएगी.’ और इस प्रावधान के तहत जो कोई भी अदालती आदेशों का उल्लंघन करता है, उसे जुर्माने के साथ तीन साल तक जेल की सजा भी सुनाई जा सकती है.

धारा 44 के प्रावधानों के अलावा, दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा 173 (6) किसी पुलिस अधिकारी को बाकायदा नोट लगाकर मजिस्ट्रेट से यह अनुरोध करने की अनुमति देती है कि अभियुक्तों को गवाहों के बयानों की कुछ प्रतियां न दी जाएं, अगर ऐसा करना न्याय हित में जरूरी न हो और जनहित के लिहाज से उपयुक्त न हो. आमतौर पर सामान्य मुकदमों में अभियोजन पक्ष के गवाहों के सभी बयानों को आरोपियों को मुहैया कराया जाना होता है.

हालांकि, इस साल फरवरी में सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाया था कि आरोपियों को धारा 44 के तहत संरक्षण प्राप्त गवाहों के बयानों की संशोधित प्रतियां दी जा सकती हैं.

‘ट्रंप के दौरे को लेकर बड़ी साजिश’

दिल्ली दंगों के मामले में चार्जशीट से लेकर अदालती आदेश तक, काफी हद तक संरक्षित गवाहों के बयानों पर निर्भर रहे हैं. इन बयानों में उसे रिकॉर्ड किए जाने तारीख का उल्लेख है, साथ ही यह बताया गया है कि उन्हें कानून के किस प्रावधान के तहत दर्ज किया गया है.

उदाहरण के तौर पर, एक चार्जशीट में यह उल्लेख है कि बीटा नाम से पहचाने जाने वाले एक गवाह ने 3 अप्रैल, 2020 को दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 161 के तहत अपना बयान दर्ज कराया था.

बीटा ने अपने बयान में दावा किया था कि फरवरी 2020 में अमानुल्लाह नामक एक व्यक्ति से जानकारी मिली कि उमर खालिद ने अमरावती में कोई भड़काऊ भाषण दिया, जिसमें उसने कहा था कि ‘जब अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प भारत आएंगे, तो वे विरोध-प्रदर्शनों (नागरिकता संशोधन अधिनियम के खिलाफ) के जरिये ऐसा कुछ करेंगे जिससे पूरी दुनिया में यह संदेश जाएगा कि भारत में मुसलमानों की स्थिति बहुत खराब है और भारत सरकार पूरी तरह से मुस्लिम विरोधी है. और उन्होंने लोगों से सड़कों पर उतरने की अपील भी की.’

चार्जशीट के मुताबिक, इस बयान में कहा गया है कि ‘इसके बाद, अमानुल्लाह और उनके सहयोगियों की बातचीत से मुझे ऐसा लगा कि ट्रम्प की भारत यात्रा के दौरान ये लोग विरोध प्रदर्शनों के जरिये एक बड़ा दंगा भड़काने की कोशिश कर रहे हैं. तब मुझे लगा कि इनके इरादे ठीक नहीं है और ये लोग कोई बड़ी साजिश रच रहे हैं.’

चार्जशीट बताती है कि रोमियो छद्म नाम वाले एक अन्य संरक्षित गवाह का बयान 25 जून, 2020 को सीआरपीसी की धारा 164 के तहत दर्ज किया गया था.

चार्जशीट में रोमियो के हवाले से बताया गया है, ‘शरजील इमाम अक्सर कहता था कि दिल्ली जैसे शहर, जहां मुसलमानों की इतनी बड़ी आबादी है, क्या हम कुछ नहीं कर सकते, न कोई दंगा और न कोई ट्रैफिक जाम. उसका कहना था कि अगर हर मुसलमान अपने घर से बाहर निकलकर इस अभियान में शामिल हो जाए तो हम सरकार को झुकने के लिए बाध्य कर देंगे.’

इसमें आगे कहा गया, ‘उन्होंने कहा था कि जब तक इस देश में दहशत और हिंसा का माहौल नहीं होगा, कुछ भी नहीं बदलेगा. हमें इस तरह से दहशत और हिंसा फैलानी है कि सरकार मुसलमानों के लिए एक अलग राष्ट्र बना दे.’

दंगों की साजिश के मामले में आरोपियों की जमानत याचिकाओं पर अदालतों का फैसला ऐसे ही तमाम बयानों पर निर्भर रहा है.

उदाहरण के तौर पर, इस साल मार्च में उमर खालिद की जमानत याचिका खारिज करने संबंधी आदेश में अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश अमिताभ रावत ने संरक्षण प्राप्त गवाहों के बयानों पर तवज्जो दी और कहा था कि इन गवाहों ने अपने बयानों में ‘आरोपियों की भूमिका का जिक्र किया है और बताया है कि उन्होंने किस तरह हिंसा, दंगे, फाइनेंस और हथियारों पर खुलकर चर्चा की.’

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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