नई दिल्ली: आज के दौर में ‘नाम’ को लेकर राजनीति बहुत ही तेज़ हो गई है. शहरों/नगरों/सड़कों का नाम बदलने की राजनीति अब आम बात है. भारत की आज़ादी के पहले ब्रिटिश शासन में अंग्रेज़ों ने कई भारतीय नामों को बदला या यूं कहें कि अपभ्रंश किया जिन्हें वे ठीक से बोल नहीं पाते थे. मसलन मद्रासपट्टिनम– मद्रास हो गया. अंग्रेज़ों की मजबूरी थी क्योंकि भारतीय उच्चारण उनके बस में नहीं थे. फिर शासक होने का दंभ तो था ही- जो बदलना चाहें बदल दें. ये जो नाम बदलने का सिलसिला है वो लंबे समय से चला आ रहा है. ये सत्ता, शक्ति और ज़िद्द तीनों आधारों पर चलता रहा है.
जब भारत को आज़ादी मिली तब से नाम बदलने की जो प्रक्रिया शुरू हुई वह अब तक बदस्तूर जारी है, साथ ही इस पर जम कर राजनीति भी होती आ रही है. 1950 में सबसे पहले ‘पूर्वी पंजाब’ का नाम ‘पंजाब’ दिया गया. फिर 1956 में ‘हैदराबाद’ से ‘आंध्र प्रदेश’ और 1959 में ‘मध्य भारत’ से ‘मध्य प्रदेश’ हुआ. सिलसिला यहीं नहीं थमा …1969 में ‘मद्रास’ से ‘तमिलनाडु’, 1973 में ‘मैसूर’ से ‘कर्नाटक’… और अब फैज़ाबाद से अयोध्या- यह लिस्ट बहुत लंबी है.
भारत में विभिन्न सड़कों, हवाई अड्डों, स्टेडियमों, संस्थानों और योजनाओं को उस समय के शासक या नेताओं के ‘नाम’ पर रखा गया है. नेहरू-गांधी खानदान के लोगों पर नाम को लेकर तमाम आरोप लगता रहा है. और शायद जितनी सड़कें, भवन, संस्थाएं और सरकारी योजनाएं इस एक परिवार के नाम पर हैं वह किसी और के नहीं. मौजूदा भाजपा सरकार भी नाम बदलने के खेल में पीछे नहीं है.
शहरों/नगरों/सड़कों के नाम में जो भी परिवर्तन किए जाते हैं उसके पीछे कही न कहीं राजनीति होती हैं. और कोई सरकार इससे अछूती नहीं रहीं.
मशहूर लेखक विलियम शेक्सपियर ने एक बार कहा था ‘नाम में क्या रखा है? किसी चीज़ का नाम बदल देने से भी चीज़ वही रहेगी. गुलाब को किसी भी नाम से पुकारो, गुलाब ही रहेगा.’ लेकिन ऐसा लगता है कि नाम में बहुत कुछ रखा है. ‘नाम’ आपका एक खाका खींच देता है, जो मन-मस्तिष्क में एक तस्वीर बना देता है.
नामकरण और पुन:नामकरण के इस खेल में कुछ नाम बने हुए हैं जो आपको इस बड़ी दुनिया के नायकों, नेताओं से परिचित करवाते हैं. ये जाति और परिवार की राजनीति से परे आपके ज्ञान चक्षु खोलते हैं. दिल्ली में खासकर आप महसूस करते हैं कि आप सड़कों के जरिये मिनी संयुक्त राष्ट्र के दर्शन कर सकते हैं. यहां ऐसी हस्तियों के नाम पर सड़कें हैं जिनके बारे में आप शायद कुछ नहीं जानते हों या शायद बहुत कुछ..
चलिए दुनिया का आईना दिखाती कुछ सड़कों की सैर पर आपको भी ले चलते हैं-
टॉलस्टॉय मार्ग
काउंट लेव निकोलेविच टॉलस्टॉय जिनको हम सब लियो टॉलस्टॉय के नाम से जानते हैं. रूस के साहित्य जगत की बड़ी हस्ती हैं. उनकी गिनती उन्नीसवीं सदी के सर्वाधिक प्रसिद्ध लेखकों में होती है. उनका जन्म 9 सितम्बर 1828 को रूस के एक संपन्न परिवार में हुआ था. उन्होंने रूसी सेना में भर्ती होकर क्रीमियन युद्ध (1855) में भाग लिया था, लेकिन अगले ही वर्ष सेना की नौकरी छोड़ दी. लेखन के प्रति उनकी रुचि सेना में भर्ती होने से पहले ही जाग चुकी थी. उनके उपन्यासों ‘वॉर एंड पीस’ (1865-69) तथा ‘एना केरेनिना’ (1875-77) को साहित्यिक जगत में क्लासिक का दर्जा प्राप्त है. भारत में तो इनका साहित्य हिंदी और अन्य भाषाओं में उपलब्ध है.
अबाई मार्ग
राजधानी के बहुत कम ही लोगों पता होगा कि चाणक्यपुरी के एक पांच सितारा होटल के पास से गुज़रती सड़क-अबाई मार्ग किसके नाम पर रखा गया है. ये अबाई (इब्राहिम) कुनानबायुल्य के नाम पर है. इब्राहिम कुनानबायुल्य कज़ाख कवि, संगीतकार और दार्शनिक थे. वह यूरोपीय और रूसी संस्कृतियों के एक सांस्कृतिक सुधारक भी थे. कजाखों के बीच उन्हें अक्सर ‘अबाई’ कहा जाता था जिसका अर्थ-सावधानी बरतने वाला है. अबाई का जन्म पूर्वी कज़ाख़िस्तान में 10 अगस्त 1845 को हुआ था. उनकी मृत्यु 6 जुलाई 1904 को हुई थी.
कजाख संस्कृति और लोककथाओं में अबाई का मुख्य योगदान है. उनकी कविताओं में राष्ट्रवाद का पुट है जो वहां की लोक संस्कृति से उभरा है. ये सड़क भारत-कज़ाख मैत्री का सबूत है. कज़ाख़िस्तान 1990-91 में पूर्व सोवियत रूस से अगल होकर स्वतंत्र देश बना था.
अलेक्जेंडर कदाकिन मार्ग
रूस के राजदूत अलेक्जेंडर कदाकिन के नाम पर चाणक्यपुरी स्थित ऑफिसर्स मेस रोड का नाम बदल दिया गया. कदाकिन का जन्म 22 जुलाई को 1949 में सोवियत संघ के किशिनेव शहर में हुआ था. वे मूल रूप से रूस के निवासी थे. वे भारत में रूस के राजदूत थे. भारत और रूस के संबंधों को प्रोत्साहन देने में उल्लेखनीय भूमिका निभाने का श्रेय उन्हें ही जाता है.
कदाकिन ने 1972 में भारत स्थित रूसी दूतावास में तृतीय सचिव के तौर पर अपने कूटनीतिक करियर की शुरुआत की थी. रूसी के अलावा अंग्रेज़ी, हिन्दी, उर्दू, फ़्रेंच सहित कई भाषाएं जानते थे. वे मंजे हुए राजनयिक थे और धारा प्रवाह हिंदी बोलते थे और उन्हें भारत का करीबी मित्र माना जाता था. जनवरी 2017 में उनके निधन के बाद रूसी राष्ट्रपति व्लादिमिर पुतिन की भारत यात्रा के दौरान इस सड़क को नाम दिया गया और भारत को उन्होंने अपनी कर्मभूमि बनायी थी, उसे याद किया गया.
जोसिप ब्रोज़ टीटो मार्ग
जोसिप ब्रोज़ टीटो युगोस्लाव क्रांतिकारी और राजनेता थे. उन्होंने द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान युगोस्लाव प्रतिरोध आंदोलन का नेतृत्व किया था. समाजवाद के स्वतंत्र राह के पैरोकार होने के साथ-साथ वे जवाहरलाल नेहरू के साथ गुट निरपेक्ष आंदोलन के मुख्य संस्थापकों में से एक थे. टीटो के नेतृत्व में युगोस्लाविया गुट निरपेक्ष आंदोलन का संस्थापक सदस्य बना था. आज युगोस्लाविया ही नहीं बचा है और टीटो की याद में सड़कों के नाम भी उनके देश में बदल दिए गए हैं– पर टीटो की याद दिल्ली में जीवित है.
आर्च बिशप माकोरियस मार्ग
आर्च बिशप माकोरियस गुट निरपेक्ष आंदोलन के प्रमुख नेता थे. और उन्होंने साइप्रस के लोगों के लिए औपनिवेशवाद के खिलाफ संघर्ष किया था. वे साइप्रस के 1960-77 तक राष्ट्रपति रहे. उनके तीन बार के कार्यकाल में तख्तापलट की कोशिशें भी झेलनी पड़ीं और साइप्रस के लोग उन्हें राष्ट्रपिता मानते हैं.
गमाल अब्दुल नासिर मार्ग
गमाल अब्दुल नासिर मिस्र के दूसरे राष्ट्रपति थे. नासिर ने 1952 के राजशाही को उखाड़ फेंकने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. उन्होंने मिस्र में भूमि सुधारों की शुरुआत भी की थी. नासिर खासतौर पर सामाजिक न्याय और एकता, आधुनिकीकरण नीतियों और साम्राज्यवाद विरोधी प्रयासों के प्रति उचित कदम उठाने के लिए जाने जाते हैं. उन्हें स्वेज नहर के राष्ट्रीयकरण और अरब एकता के लिए उनके कामों के लिए याद किया जाता है. वे धर्मनिरपेक्ष राजनीति के समर्थक भी थे और गुट निरपेक्ष आंदोलन के सदस्य भी थे.
तो राजनीति से इतर सड़कों के नाम आपको बताते हैं कि ये अपने इतिहास और समकालीन दुनिया से लोगों को जोड़ने का काम भी कर सकती हैं. लेकिन दुर्भाग्य की इन नामों पर सिर्फ राजनीति होती रही है.