राजेश खन्ना की फिल्मों की सफलता, लोकप्रियता और उनकी कमाई को आधार बनाएं तो कह सकते हैं कि उनके जैसा उनसे पहले और उनके बाद कोई न हुआ. उन्होंने गोल्डन एरा के बाद सामाजिक मुद्दों वाले सिनेमा को एंटरटेनमेंट, लव, रोमांस की कहानियों के जरिए ज्यादा लोगों तक पहुंचाया और स्टारडम का दौर शुरू किया. 1969 में उनकी फिल्म आराधना के रिलीज से 1971 तक 15 लगातार हिट फिल्मों का रिकार्ड जो आज तक नहीं टूटा है और बॉलीवुड के पहले सुपरस्टार बनें. उन्होंने फिल्म आखिरी खत से अपने करिअर की शुरुआत की.
18 जुलाई 2012 को दुनिया को अलविदा कहने वाले काका (निक नेम) को हमेशा इस बात के लिए याद किया जाएगा कि उन्होंने हिंदी सिनेमा का ट्रेंड बदला.
दिप्रिंट से बातचीत में राजेश खन्ना की पहली सुपर हिट फिल्म आराधना का किस्सा शेयर करते हुए द अनटोल्ड स्टोरी ऑफ इंडियाज फर्स्ट सुपर स्टार के लेखक यासिर उस्मान कहते हैं, ‘आराधना मां पर केंद्रित शर्मीला टैगोर के लीड रोल की फिल्म थी लेकिन पति और बेटे का डबल रोल होने से राजेश खन्ना को स्क्रीन ज्यादा मिली और सारा फोकस अपनी ओर खींच ले गए. इसके रिलीज के बाद लोग शर्मीला टैगोर के बजाय राजेश खन्ना को खोज रहे थे.’
उनकी कार को चूमती थीं लड़कियां
राजेश खन्ना का जादू महिलाओं के सिर चढ़कर बोलता था. लड़कियां उन्हें खून से खत लिखती थीं. उनकी तस्वीरों से शादी करती थीं, उन्हें तकिये के नीचे रखकर सोती थीं. उनकी कार को लिपिस्टिक लगे होठों से चूमती थीं.
यासिर कहते हैं, ‘खून से पत्र लिखने की बात पर मुझे यकीन नहीं होता था लेकिन उनके लेटर पढ़ने का काम करने वाले शख्स प्रशांत ने बताया था कि हां यह झूठ नहीं है, खून से लिखे पत्र आते थे. पता नहीं कि वे महिलाएं अपने खून से लिखती थीं या किसी और के.’
यासिर ने एक इंटरव्यू में बंगाल की एक बुजुर्ग महिला का किस्स शेयर किया है. ‘वह बताती हैं कि हमने उस दौर में जो देखा है आप समझ ही नहीं सकते. जब हम उनकी फिल्में देखने जाते थे तो बकायदा हमारी और उनकी डेट हुआ करती थी. मेकअप करके, ब्यूटी पॉर्लर जा के, अच्छे कपड़े पहनकर जाते थे. हमें लगता था वो जो पर्दे की तरफ से पलके झपका रहे हैं और सिर झटक रहे हैं, मुस्कुरा रहे हैं वो हमारे लिए कर रहे हैं. और हाल में बैठी हर लड़की को ऐसा ही लगता था.’
आंखें झपका के, हल्की टेढ़ी गर्दन की नई अदा, स्टाइल को राजेश खन्ना का सिग्नेचर स्टाइल माना जाता है.
यह भी पढे़ं: भीष्म साहनी: भ्रष्टलोक में आदर्शवाद की बानगी है ‘मोहन जोशी हाज़िर हो’
हिंदी सिनेमा में नया ट्रेंड लाने वाले अदाकार
हिंदी सिनेमा में राजेश खन्ना की एंट्री राजकपूर, देवानंद, दिलीप कुमार, शशि कपूर जैसे दिग्गज कलाकारों के समय में होती है. यह सामाजिक और राजनीतिक बदलावों को पर्दे पर उतारने और आर्ट व अभिनय की बारीकियों का दौर था. इस दौर की राजकपूर की आवारा, गुरु दत्त की प्यासा, विमल राय की दो बीघा जमीन, महबूब खान की मदर इंडिया, दिलीप कुमार अभिनीत मुगल-ए-आजम, देवदास जैसी फिल्मों का जिक्र किया जा सकता है.
लेकिन एंटरटेनमेंट और लोकप्रिय अभिनय की कमी से यह सिनेमा ज्यादा लोगों तक नहीं पहुंच पा रहा था. हालांकि इस समय राजेंद्र कुमार, शम्मी कपूर जैसे कालाकार लव, रोमांस केंद्रित फिल्में कर रहे थे लेकिन उनकी फिल्में अब ज्यादा नहींं चल रही थीं.
यासिर कहते हैं, ‘राजेश खन्ना की एंट्री एक ऐसे दौर में होती है जब दिलीप कुमार, देवानंद उम्रदराज हो रहे थे. इनकी फिल्में कम आ रही थीं. युवा चेहरों में राजेंद्र कुमार, शम्मी कपूर की फिल्में फ्लाप होने लगी थीं और उनका वजन भी बढ़ने लगा था ऐसे में लोगों को एक फ्रेश चेहरे की तलाश थी.’
वह कहते हैं, ‘हर समय एक रोमांटिक हीरो की जरूरत होती है. हर दौर का युवा अपना रिप्रेजेंटेटिव खोजता है. यह स्लाट खाली हो रहा था और इसे राजेश खन्ना ने भरा.’ वह पारिवारिक फिल्में करते थे, लिहाजा शहरी मिडिल क्लास ने उन्हें हाथोंहाथ लिया.
उन्होंने कहा कि सलमान खान के पिता सलीम खान बताते हैं कि राजेश खन्ना जैसा स्टारडम हिंदी सिनेमा में आज तक किसी ने नहीं देखा. सलमान, शाहरुख, रजेंद्र कुमार जैसे एक्टर भी उस लोकप्रियता को कभी नहीं छू पाए.
राजेश खन्ना को तीन बार फिल्म फेयर बेस्ट एक्टर का अवार्ड मिला और 1970 से 1987 तक सबसे ज्यादा पैसे लेने वाले कलाकार थे. 1980 से 1987 तक यह टैग अमिताभ बच्चन के साथ भी जुड़ा. उन्होंने 150 से ज्यादा फिल्में कीं.
पीछे चले गए सामाजिक सवाल, कला की वैरायटी खत्म हुई
एक मीडियम के तौर पर सिनेमा पर जेएनयू के रिसर्चर श्यामानंद झा कहते हैं, ‘राजेश खन्ना के आने पर बेरोजगारी, गरीबी, भुखमरी जैसे तमाम सामाजिक सवाल पीछे चले गए. लव, रोमांस सिनेमा के केंद्र में आ गया. हालांकि उनके सिनेमा में सामाजिक संदेश होते थे.’
हिंदी सिनेमा पर रिसर्च करने वाले और मीडिया शिक्षक भूपेन सिंह कहते हैं, ‘राजेश खन्ना बेशक अच्छे कलाकार थे लेकिन उनके अभिनय में एक ही स्टाइल, एक ही अंदाज हमेशा नजर आता थाा. उनके स्टारडम के आगे बाकि वैरायटी वाले कलाकार पीछे चले गए. पूरा बॉलीवुड उन्हीं के इर्द-गिर्द घूमने लगा.’ वह आगे कहते हैं, ‘राजेश खन्ना बाजार का सिनेमा करते रहे, आर्ट पीछे चला गया.’
लेकिन सिनेमा पत्रकार गजेंद्र भाटी कहते हैं, ‘यह उस दौर की मांग थी. लोग अपनी पसंद के हीरो की फिल्में उसकी खास स्टाइल या एक्टिंग की वजह से भी देखने जाते थे. अमिताभ बच्चन की एंग्री यंग मैन, रजनीकांत सबकी अपनी स्टाइल थी.’ वह कहते हैं कि राजेश खन्ना की फिल्में प्रेम कहानियों के इर्द-गिर्द सामाजिक संदेशों वाली होती थीं.
यासिर उस्मान भी कहते हैं कि आनंद, अमर प्रेम जैसी उनकी लगभग सभी फिल्में प्रेम केंद्रित तो थीं पर सामाजिक संदेश सभी में होते थे.
गजेंद्र कहते हैं, ‘जवाहरलाल नेहरू के समय का सिनेमा आइडियोलॉजी और वैचारिक संकल्पों को लेकर झुका था. सोशियली और फाइनेंसियली बदल रहा इंडिया अपनी एक नई पहचान ढूढ़ रहा था. लोगों की भूख मजा-मस्ती की तरफ बढ़ी. कॉमर्शियलाइजेशन का मकसद ज्यादा लोगों तक अपनी कहानी पहुंचाना था.’
अमिताभ का उभार और राजेश खन्ना के स्टारडम का नीचे जाना
अमिताभ बच्चन के उभार से राजेश खन्ना का स्टारडम नीचे जाना शुरू हुआ. हालांकि इसे नकारते हुए गजेंद्र भाटी कहते हैं, ‘राजेश खन्ना जितना करना था, कर चुके थे. यह इंदिरा गांधी के इमरजेंसी का समय था, समाज में बेरोजगारी जैसे तमाम सवालों को लेकर आक्रोश पनप रह था. ऐसे में एक नए सिनेमा की मांग थी जिसे अमिताभ बच्चन ने पूरा किया. राजेश खन्ना कुछ डिफरेंट नहीं कर रहे थे.’
यासिर भी कुछ ऐसी ही बात कहते हैं, ‘काफी रिपीटिशन हो गया था. वह नया नहीं कर रहे थे. बेरोजगारी, इमरजेंसी और 1975 में जेपी आंदोलन से समाज में गुस्सा बढ़ा था. ऐसे टाइम पर अमिताभ मार-धाड़ या एक्शन फिल्मों का दौर लाए. जो राजेश खन्ना नहीं कर पाते थे लेकिन तब भी वह नीचे नहीं गए, दूसरे नंबर पर बने रहे.’
राजेश खन्ना की बी ग्रेड, सी ग्रेड फिल्में करने का बात पर वह कहते हैं, ‘उनका यह दौर बहुत बाद में आया. वह अपने स्टारडम को संभाल नहीं पाए या कहें पचा नहीं पाए. प्रोड्यूसर को भाव नहीं देते थे. उनमें कामयाबी ने अहंकार बढ़ा दिया था.’
राजनीति में भी स्टार, आडवाणी को दिल्ली से जाना पड़ा गुजरात
राजेश खन्ना ने राजनीति में भी अपनी लोकप्रियता साबित की. कहा जाता है कि उनकी वजह से आडवाणी को यह सीट छोड़कर गुजरात के गांधीनगर जाना पड़ा था. 1991 में कांग्रेस पार्टी से वह नई दिल्ली लोकसभा सीट से चुनाव लड़े और महज 1589 वोट के बहुत कम मार्जिन से आडवाणी से चुनाव हार गए थे, आडवाणी को 93,662, जबकि राजेश खन्ना को 92,073 मिले थे.
1992 में आडवाणी के इस सीट से इस्तीफा दिया दे दिया. उपचुनाव में राजेश खन्ना फिर उतरे और बीजेपी के शत्रुघ्न सिन्हा को हराया. कुल 10,1625 वोट के साथ सिन्हा को 28,256 के भारी मतों से पटखनी दी. 1992-1996 तक वह सांसद रहे.
1996 में कांग्रेस ने राजेश खन्ना को फिर मैदान में उतारा था लेकिन इस बार बीजेपी के जगमोहन से वह 58,315 मतों से चुनाव हार गए थे.
यह भी पढे़ं: मिस्टर एंड मिसेज़ 55 एक प्यार-भरी कॉमेडी है, जो इस ज़माने में नारीवाद के सवाल खड़ा करती है
अंजू महेंद्रू से टीना मुनीम तक अफेयर
यासिर उस्मान कहते हैं, ‘राजेश खन्ना की दोस्त अंजू महेंद्रू उनके संघर्ष के दिनों से ही साथ रहीं. वह चाहते थे कि अंजू उनके स्टारडम या कामयाबी को महसूस करे. पर वह उनके साथ सुपर स्टार के बजाय दोस्त जैसा ही बर्ताव करती थीं, जो गलत लगता था उससे रोकती थींं. बाद में वह अंजू को कम वक्त देने लगे थे और दोनों के रिश्तों में दरार आ गई.’
यासिर कहते हैं कि ‘इसके बाद राजेश खन्ना की जिंदगी में डिंपल आईं. उम्र में बहुत छोटी डिंपल से उन्होंने तीन चार दिनों में ही शादी करने का फैसला कर लिया.’
वह कहते हैं, ‘जब उनकी बारात बांद्रा से जूहू जा रही थी तो उन्होंने उसका रास्ता बदला और अंजू महेंद्रू के घर के सामने से ले गए. वह उन्हें जताना चाहते थे कि मैं क्या हूं. हालांकि बाद में फिर अंजू महेंद्रू से दोस्ती हो गई थी.’
कई फ्लाप फिल्मों के बाद राजेश खन्ना ने एक बार फिर सौतन में वापसी की. लगा कि पुराने राजेश खन्ना की वापसी हो गई है. इसके निर्देशक सावन कुमार टाक बताते हैं कि फिल्म के दौरान ही राजेश खन्ना का टीना मुनीम से रोमांस शुरू हो गया था और डिंपल कपाड़यिा उनके जीवन से बाहर हो गईं.
अकेले होते चले गए
यासिर बताते हैं कि राजेश खन्ना आखिरी समय में बहुत अकेले हो गए थे. कैंसर ने शिकार बना लिया था.
वह बताते हैं कि आखिरी वक्त में टैक्स विभाग ने उनका बंगला सील कर दिया था. वह अपने ऑफिस में ही रहने लगे थे. पास के मैकडोनाल्ड रेस्त्रां में अपना फेवरेट बर्गर खाने और स्ट्रॉबेरी शेक पीने जाया करते थे.’
यासिर बताते हैं कि वह अक्सर वहां जाते थे. इंतज़ार करते थे कि कोई आए और उन्हें पहचान ले. कभी-कभी कोई फैन उन्हें पहचान लेता था तो वह खुश होते थे.’