नई दिल्ली: 1 अगस्त 1857 का दिन था जब ईद अल-अधा मनाई जा रही थी, इसी दिन को अमृतसर के तत्कालीन डिप्टी कमिश्नर फ्रेडरिक कूपर ने अपने मुस्लिम घुड़सवारों को वहां दूर भेजने के ‘अच्छे बहाने’ के रुप में इस्तेमाल किया. अब वह आराम से ‘हिन्दुस्तानी’ सिपाहियों को मौत की सजा दे सकते थे क्योंकि कोई आपत्ति जताने वाला नहीं था. जहां तक कूपर की बात है तो उनकी नजर में 26वीं नेटिव इन्फैंट्री रेजिमेंट के ये ‘विद्रोही’ इसी सजा के हकदार थे, क्योंकि उन्होंने दो दिन पहले ही अपने कमांडिंग ऑफिसर को मार डाला था.
कूपर ने 1858 में अपनी किताब द क्राइसिस इन द पंजाब, फ्रॉम टेंथ ऑफ मई अनटिल द फाल ऑफ दिल्ली में लिखा है, ‘सिपाहियों को 10-10 के समूहों में बुलाया गया. उनके नाम लिए गए, एक-साथ कतारों में खड़ा किया गया और फिर मौत के घाट उतार दिया गया, इसे अंजाम देने के लिए फायरिंग पार्टी पहले से तैयार थी. कूपर के लिए यह सब एक ‘तमाशा’ था.
अब, इतिहासकारों, पुरातत्वविदों और फोरेंसिक वैज्ञानिकों के लगभग एक दशक लंबे प्रयासों से 1857 के मारे गए इन बागियों सिपाहियों को दफन किए जाने वाले स्थान का पता लग पाया है. यह खोज अजनाला के स्थानीय लोगों और इतिहासकारों की तरफ से की गई इस मांग को पूरा करने में मददगार हो सकती है कि उस समय ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ मोर्चा खोलकर अपना बलिदान देने वाले सिपाहियों की याद में एक स्मारक बनाया जाए.
सबसे पहले 1757 में ईस्ट इंडिया कंपनी की तरफ से स्थापित बंगाल नेटिव इन्फैंट्री में पूर्वी भारत के विभिन्न हिस्सों से सैनिकों को लिया गया था. इसके सैनिक मुख्य रूप से उच्च जाति के थे, जो ब्राह्मण, राजपूत और बंगाल, अवध और बिहार के भूमिहार होते थे. 1857 की शुरुआत तक बंगाल नेटिव इन्फैंट्री की 74 रेजिमेंट थीं, जिनमें से प्रत्येक में लगभग 800 सिपाही, 120 हवलदार और नायक, 20 सूबेदार और जमादार थे होते थे और शीर्ष पर, दो ब्रिटिश सार्जेंट और 26 ब्रिटिश कमीशन अधिकारी थे.
डेढ़ सदी से अधिक समय बाद 2014 में एक शौकिया पुरातत्वविद् सुरिंदर कोचर की अगुआई में ग्रामीणों की एक टीम ने अमृतसर के बाहरी क्षेत्र अजनाला में एक गुरु द्वारे के नीचे एक कुएं से 200 से अधिक मृत पुरुषों के कंकाल के अवशेषों का पता लगाया.
इसे लेकर एक रहस्य बना रहा है. कोचर जहां 1857 के नरसंहार को लेकर बनी ‘किंवदंती’ की जड़ें तलाश रहे थे, कुछ सालों में कंकालों को लेकर कुछ नई थ्योरी सामने आईं. कुछ लोगों ने कहा कि कंकाल विभाजन के समय के हैं, या मारे गए ब्रिटिश पुरुषों और महिलाओं के हैं.
हालांकि, विज्ञान ने इन सभी अटकलों पर विराम लगा दिया है. इसी साल 28 अप्रैल को फ्रंटियर्स इन जेनेटिक्स मैगजीन में प्रकाशित एक स्टडी के मुताबिक, डीएनए और आइसोटोप विश्लेषण ने इन कंकालों के अवशेष और अगस्त 1857 में मौत के घाट उतारे गए सिपाहियों के बीच जुड़ी कड़ी को स्थापित किया है.
पंजाब यूनिवर्सिटी के मानवविज्ञानी जे.एस. सहरावत द्वारा हैदराबाद स्थित सेंटर फॉर सेल्युलर एंड मॉलिक्यूलर बायोलॉजी (सीसीएमबी), लखनऊ स्थित बीरबल साहनी इंस्टीट्यूट और बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी (बीएचयू) के सहयोग से किया अध्ययन बताता है कि कंकालों का डीएनए अनुक्रम इस ऐतिहासिक तथ्य की पुष्टि करता है कि 26वीं नेटिव इन्फैंट्री रेजिमेंट में इंडो-गैंगेटिक मैदानों के लोग शामिल थे.
दिप्रिंट की मोहना बसु ने एक अलग लेख में बताया है कि कैसे फोरेंसिक वैज्ञानिकों के काम ने एक ऐसे नरसंहार के बारे में सच्चाई को सामने में मदद की है, जिसे ऐतिहासिक दृष्टि से व्यापक स्तर पर नजरअंदाज कर दिया गया था.
‘गांव के सफाईकर्मियों से एक ही गड्ढे में दफन कराया’
हत्याकांड से महीनों पहले ही पंजाब में माहौल बिगड़ गया था. 13 मई 1857 को मेरठ में विद्रोह की खबर पंजाब पहुंचते ही ऐहतियाती तौर पर 26 नेटिव इन्फैंट्री को निशस्त्र कर दिया गया था. इसके बावजूद, रेजिमेंट 30 जुलाई 1857 को अपने कमांडिंग ऑफिसर मेजर स्पेंसर को मार डालने में सफल रही.
कूपर के मुताबिक, सिपाहियों के बीच क्रांति की यह मशाल प्रकाश सिंह नामक एक सिपाही ने जलाई थी, जो एकदम निडर भाव के साथ ‘अपने कैंप से बाहर निकलकर तलवार लहरा रहा था, और चिल्ला-चिल्लाकर अपने साथियों से फिरंगियों को मारने के लिए कह रहा था’
यद्यपि सिपाही धूल भरी आंधी की आड़ में भागने में सफल रहे, लेकिन उन्हें केवल एक दिन की ही आजादी मिली थी. 31 जुलाई को रेजिमेंट को रावी के तट पर देखा गया.
कूपर के दावों के मुताबिक, स्थानीय ग्रामीण अंग्रेजों की सहायता के लिए आगे आ गए. कूपर ने लिखा, ‘रावी नदी के बाएं किनारे पर उन्हें (बागी सिपाहियों को) एक तहसीलदार का अप्रत्याशित विरोध झेलना पड़ा, जिसे ग्रामीणों का समर्थन हासिल था.’ कूपर का दावा है कि रेजिमेंट के 150 सदस्य वहीं पर या तो डूब गए या फिर पुलिस और ग्रामीणों के साथ लड़ते हुए मारे गए.
हालांकि, 282 सिपाहियों को इस दौरान पकड़ लिया गया, जिनमें से 66 को अजनाला से 10 किलोमीटर दूर एक पुलिस थाने में रखा गया और अन्य को पास के टॉवर या गढ़ में ले जाया गया.
आत्मसमर्पण करने वालों को उम्मीद थी कि वे कोर्ट मार्शल से बच सकते हैं, लेकिन जैसा कूपर ने काफी रोचक होने के अंदाज में लिखा है कि अंग्रेजों की योजना तो कुछ और ही थी.
सबसे पहले, रस्सियां मंगाने का आदेश दिया गया ताकि जरूरत पड़ने पर विद्रोहियों को पेड़ों की शाखाओं में फांसी पर लटकाया जा सके. कूपर के मुताबिक फिर पुलिस थाने के 100 गज के दायरे में स्थित कुएं को एक उपयुक्त विकल्प पाया गया.
कूपर ने लिखा है, ‘कुएं का वहां होना एक सुविधाजनक समाधान था, क्योंकि साफ-सफाई एक बड़ी बाधा थी कि मारे गए सैनिकों की लाशों को कैसे ठिकाने लगाया जाएगा.’
मुस्लिम घुड़सवारों के चले जाने के बाद कूपर खुद को सुरक्षित महसूस कर रहे थे: अब विरोध करने या बगावत पर उतरने के लिए कोई भारतीय सैनिक नहीं था. फिर इस ‘तमाशे’ को अंजाम देने के लिए ब्रिटिश अधिकारियों को बुलाया गया.
सैनिकों को दस-दस के समूहों में गोली मारी गई थी, जैसा कि कूपर ने अपनी पुस्तक में लिखा है उनमें से 237 को इसी तरह मौत के घाट उतारा गया. वहीं जिन अन्य 45 को अजनाला पुलिस थाने में रखा गया था, वो सब दम घुटने के कारण मारे गए.
इन सभी को बिना किसी आदर के साथ एक ही जगह दफना दिया गया था. कूपर के मुताबिक, ‘पैंतालीस शव, थकान, गर्मी और आंशिक तौर पर घुटन से दम तोड़ देने वालों को घसीटकर बाहर लाया गया और गांव के सफाईकर्मियों की सहायता से एक ही गढ्डे में दफना दिया गया.’
दांतों के अवशेषों के आइसोटॉपिक डीएनए अध्ययन के जरिये शोधकर्ताओं ने निष्कर्ष निकाला कि यहां 246 शव मिले हैं, जो कूपर द्वारा अपनी किताब में किए गए 282 की आंकड़े के दावे के काफी करीब है. 2014 में यहां 90 खोपड़ियां, 170 जबड़े की हड्डियां, आभूषण और 1857 के पदक मिले थे.
‘आपने जो किया उसके लिए प्रशंसा के पात्र’
1857 में ब्रिटिश कूपर के कृत्यों को जमकर सराह रहे थे और उनका तर्क था कि कैसे मौत की सजा विद्रोह की योजना बनाने वाले भारतीयों के लिए एक ‘सबक’ साबित हुई है.
पंजाब के चीफ कमांडर जॉन लॉरेंस ने 2 अगस्त 1857 को कूपर को लिखा, ‘मुझे विश्वास है कि इन सिपाहियों के साथ जो किया गया वो दूसरों के लिए एक चेतावनी के तौर पर काम करेगा.’
उस समय पंजाब के न्यायिक आयुक्त रॉबर्ट मोंटगोमरी के लिए यह उपलब्धि और भी अधिक प्रशंसनीय थी. उन्होंने एक पत्र में लिखा, ‘आपने जो किया है, उसके लिए आप प्रशंसा के पात्र हैं, और आपने इसे बहुत बेहतर तरीके से किया है.’
2022 के एक रिसर्च पेपर ‘अजनाला नरसंहार’ में लंदन स्थित किंग्स कॉलेज के वार स्टडी विभाग के स्कॉलर मार्क कोंडोस लिखते हैं कि कूपर ने सिपाहियों की महिलाओं और बच्चों की जान बख्श कर अपने कृत्यों को न्यायोचित ठहराने की कोशिश की, और साथ ही इसे 15 जुलाई 1857 को कानपोर (कानपुर) में हुए नरसंहार की प्रतिक्रिया साबित किया, जिसमें भारतीयों ने यूरोपीय महिलाओं और बच्चों को मार डाला था.
कोंडोस ने नोट किया कि अजनाला नरसंहार कोई एक अकेली घटना नहीं थी, बल्कि ‘शाही शासन की हिंसा की व्यापक संस्कृति का एक हिस्सा भर थी, जो संकट के समय मजबूत कार्यकारी अधिकार और कठोर दंड के मानदंड अपनाने की जरूरत पर जोर देती थी.’
लंबा-चौड़ा है इतिहास
यद्यपि, बंगाल नेटिव इन्फैंट्री की विद्रोही रेजिमेंट भंग कर दी गई थीं, लेकिन ईस्ट इंडिया कंपनी के प्रति निष्ठावान यूनिट बची रहीं. 1861 में, ऐसी ही 12 बंगाल नेटिव इन्फैंट्री रेजिमेंट को इलाहाबाद लेवी जैसी नई और आनन-फानन में गठित यूनिट के साथ जोड़ दिया गया, जिससे 33वीं बंगाल नेटिव इन्फैंट्री बनी. वहीं, 19वीं बंगाल नेटिव इन्फैंट्री के गठन के लिए पंजाब से सैनिकों को लिया गया.
जिन सैनिकों ने विद्रोह नहीं किया, उन्हें लखनऊ रेजिमेंट और लॉयल पुरबिया रेजिमेंट जैसी सैन्य संरचनाओं में शामिल होने की अनुमति मिली.
वे ‘वफादार’ सैन्य बल आज भी आधुनिक भारतीय सैन्य संरचनाओं की विरासत में अंतर्निहित हैं, और अपनी पूर्ववर्ती यूनिटों का युद्धक सम्मान बरकरार रखते है.
उदाहरण के तौर पर, जाट रेजिमेंट की जड़ें ईस्ट इंडिया कंपनी की कलकत्ता नेटिव मिलिशिया से जुड़ी हैं जिसे 1861 में बंगाल नेटिव इन्फैंट्री की 18वीं रेजिमेंट बनाया गया था. जाट रेजिमेंट की विरासत बंगाल नेटिव इन्फैंट्री की 43वीं और 65वीं रेजिमेंट से भी जुड़ी है.
सिख रेजीमेंट का इतिहास मूलत: 1861 के बाद बंगाल नेटिव इन्फैंट्री की 14वीं, 15वीं और 45वीं रेजीमेंट से जुड़ा है. इसी तरह, पंजाब रेजिमेंट की जड़ें बंगाल नेटिव इन्फैंट्री की 20वीं रेजिमेंट से जुड़ी हैं.
बलिदान देने वालों का सम्मान
अजनाला में कुएं की खोज ने ‘कालियां वाला कुआं’ या ‘अश्वेतों के कुएं’ की किवदंतियों को हकीकत में सामने ला दिया.
मारे गए सैनिकों के शव जिस कुएं में फेंके गए थे, वह अजनाला के सैन्य मैदान का हिस्सा बना और उस फिर वहां एक गुरुद्वारा बनाया गया. इसके बाद 28 फरवरी 2014 को सुरिंदर कोचर ने साइट की पहचान की और गुरुद्वारा समिति के साथ तर्क-वितर्क के बाद वहां खुदाई की.
कोंडोस अपने पेपर में बताते हैं कि अजनाला के लोग इस जगह पर शहीद सैनिकों के लिए एक स्मारक बनाना चाहते थे, ताकि उनके बलिदान को सम्मानित किया जा सके, लेकिन उन्हें ज्यादा सफलता नहीं मिली.
कोंडोस ने लिखा है, ‘शवों का पता लगाने के बाद से कोचर, गुरुद्वारा समिति और अजनाला के अन्य लोगों ने राज्य और केंद्रीय प्रशासन दोनों के सामने ‘स्मारक स्थल और संग्रहालय के निर्माण जैसी गतिविधियों के माध्यम से इन शहीदों को सम्मानित करने की गुहार लगाई. ताकि इन सिपाहियों का बलिदान इस तरह उपेक्षित न रहे और उन्हें राष्ट्रीय स्तर पर शहीदों की स्मृति का हिस्सा बनाया जा सके.’
कोंडोस बताते हैं कि प्रयास सफल न होने की कई वजहें थीं, जिसमें ‘सरकारी अधिकारियों की ओर से रुचि न लिया जाना, इसके लिए धन मुहैया कराने की अनिच्छा के साथ-साथ कोचर और गुरुद्वारा समिति के बीच विवाद भी शामिल हैं.’
अध्ययनकर्ता पंजाब यूनिवर्सिटी के मानवविज्ञानी जे.एस. सहरावत अब दिप्रिंट से बातचीत करते हुए कहते हैं कि यूनिवर्सिटी सिपाहियों के परिवारों का पता लगाने की कोशिश कर रही है.
उन्होंने कहा, ‘हम 26वीं नेटिव इन्फैंट्री रेजिमेंट में सैनिकों की सूची हासिल करने के लिए ब्रिटिश सरकार और वहां हमारे सहकर्मी शोधार्थियों के संपर्क में हैं. इसके साथ ही हम उनके परिवारों का पता लगाएंगे ताकि वे पूरे सम्मान के साथ उनका अंतिम संस्कार कर सकें.’
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