नई दिल्ली: विवाह में जीवनसाथी से यौन संबंध बनाने की अपेक्षा होती है, लेकिन पति अपनी पत्नी को उसकी इच्छा के विरुद्ध यौन संबंध बनाने के लिए मजबूर नहीं कर सकता. केंद्र ने सुप्रीम कोर्ट में दलील दी है कि चूंकि ऐसी अपेक्षाएं “किसी अजनबी के मामले में पूरी तरह से अनुपस्थित हैं”, इसलिए वैवाहिक जीवन में गैर-सहमति वाले यौन संबंध को विवाह के बाहर गैर-सहमति से बनाए जाने वाले यौन संबंधों से अलग किया जाना चाहिए.
केंद्रीय गृह मंत्रालय ने भारत में मैरिटल रेप को अपराध घोषित करने की मांग करने वाली याचिकाओं का विरोध करने के लिए गुरुवार को सुप्रीम कोर्ट में पेश किए गए हलफनामे में ये दलीलें दीं.
49 पन्नों के हलफनामे के ज़रिए केंद्र ने सुप्रीम कोर्ट को बताया कि वैवाहिक संस्था के भीतर, पति-पत्नी द्वारा एक-दूसरे के साथ उचित तरीके से यौन संबंध बनाने की निरंतर अपेक्षा की जाती है.
इस बात पर लगातार ज़ोर देते हुए कि पति के पास अपनी पत्नी की सहमति का उल्लंघन करने का “निश्चित रूप से कोई मौलिक अधिकार नहीं है”, केंद्र ने कहा कि विवाह संस्था से “बलात्कार” जैसे अपराध को जोड़ना यकीनन “अत्यधिक कठोर” और “गैर-आनुपातिक” माना जा सकता है.
हलफनामे में कहा गया है, “हालांकि ये अपेक्षाएं पति द्वारा अपनी पत्नी को उसकी इच्छा के विरुद्ध यौन संबंध बनाने के लिए मजबूर करने का अधिकार नहीं देती हैं. साथ ही, यह भी कहा गया है कि ये दायित्व, अपेक्षाएं और विचार, जो यौन संबंध बनाने वाले किसी अजनबी या किसी अन्य अंतरंग संबंध के मामले में पूरी तरह से अनुपस्थित हैं, वैवाहिक जीवन के भीतर और इसके बिना गैर-सहमति वाले यौन संबंध की घटना के बीच गुणात्मक रूप से अंतर करने के लिए विधायिका के लिए पर्याप्त आधार बनाते हैं.”
केंद्र ने अपने तर्क का समर्थन करने के लिए भारत के विधि आयोग की 172वीं रिपोर्ट का हवाला दिया. बलात्कार कानूनों की समीक्षा के विषय पर, रिपोर्ट में भारतीय दंड संहिता की धारा 375 के “अपवाद 2” का उल्लेख किया गया है.
अपवाद में किसी पुरुष द्वारा अपनी पत्नी के साथ यौन संबंध या कृत्य के लिए बलात्कार के अपराध से छूट शामिल है, बशर्ते कि उसकी उम्र 15 वर्ष से अधिक हो. मार्च 2000 में आई विधि आयोग की रिपोर्ट में कहा गया है, “हम इस बात से संतुष्ट नहीं हैं कि इस अपवाद को हटाने की सिफारिश की जानी चाहिए क्योंकि यह वैवाहिक संबंधों में अत्यधिक हस्तक्षेप हो सकता है.”
केंद्र ने कहा कि “अपवाद 2” को संवैधानिक रूप से वैध होने के संदेह के आधार पर खत्म करने से वैवाहिक संस्था पर दूरगामी प्रभाव पड़ेगा, अगर किसी पुरुष द्वारा अपनी पत्नी के साथ यौन संबंध या यौन कृत्य को “बलात्कार” के रूप में दंडनीय बना दिया जाता है.
केंद्र द्वारा हलफनामे में कहा गया है, “इससे वैवाहिक संबंधों पर गंभीर असर पड़ सकता है और विवाह संस्था में गंभीर गड़बड़ी हो सकती है. तेजी से बढ़ते और लगातार बदलते सामाजिक और पारिवारिक ढांचे में, संशोधित प्रावधानों के दुरुपयोग से भी इनकार नहीं किया जा सकता है क्योंकि किसी व्यक्ति के लिए यह साबित करना मुश्किल और चुनौतीपूर्ण होगा कि सहमति थी या नहीं.”
केंद्र ने कहा कि यह मुद्दा कानूनी नहीं बल्कि “सामाजिक” है, इसलिए सभी हितधारकों के साथ उचित परामर्श या सभी राज्यों के नज़रिए पर विचार किए बिना इस पर निर्णय नहीं लिया जा सकता.
केंद्र के हलफनामे के अनुसार, देश में रहने वाले व्यक्तियों द्वारा किसी भी कार्य को करने या चूक के अपराधीकरण या गैर-अपराधीकरण का प्रश्न “पूर्ण विधायी नीति” का एक हिस्सा है, जो न्यायिक रूप से प्रबंधनीय मानकों से बाहर आने वाले विभिन्न सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक कारकों पर निर्भर करता है. यह बताते हुए, केंद्र ने कहा कि ऐसे मामलों में न्यायिक समीक्षा का दायरा उपयुक्त रूप से तैयार किया जाना चाहिए.
कानून के तहत महिलाओं के लिए उपलब्ध वैकल्पिक कानूनी उपायों की ओर ध्यान आकर्षित करते हुए, केंद्र ने आईपीसी, 1860 की धारा 354, 354 ए, 354 बी और 498 ए का हवाला दिया. ये धाराएं किसी महिला पर उसकी शील भंग करने के इरादे से हमला या आपराधिक बल का प्रयोग; यौन उत्पीड़न और इसके लिए सजा; किसी महिला पर उसके कपड़े उतारने के इरादे से हमला या आपराधिक बल का प्रयोग; और किसी महिला पर उसके पति या उसके रिश्तेदार द्वारा की गई क्रूरता से संबंधित हैं.
केंद्र ने घरेलू हिंसा से महिलाओं की सुरक्षा अधिनियम, 2005 के प्रावधानों का भी उल्लेख किया. उदाहरण के लिए, धारा 3 (ए) घरेलू हिंसा को प्रतिवादी के किसी भी कार्य, चूक या आचरण के रूप में परिभाषित करती है, जो पीड़ित व्यक्ति के स्वास्थ्य, सुरक्षा, जीवन, अंग या कल्याण को नुकसान पहुंचाता है या खतरे में डालता है, चाहे वह मानसिक हो या शारीरिक. इसमें शारीरिक, यौन, मौखिक, भावनात्मक और आर्थिक दुर्व्यवहार करना शामिल है.
भारतीय न्याय संहिता (बीएनएस) की धारा 63 का “अपवाद 2”, जिसने आईपीसी की जगह ली, वैवाहिक संस्था के भीतर बलात्कार के अपराध से भी छूट प्रदान करता है.
करीब दो साल पहले, मई में, दिल्ली उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति राजीव शकधर और न्यायमूर्ति सी. रविशंकर की दो न्यायाधीशों वाली पीठ ने वैवाहिक बलात्कार को अपराध माना जाना चाहिए या नहीं, इस पर विभाजित फैसला दिया था. इसके बाद, मामला सर्वोच्च न्यायालय पहुंचा, जहां भारत के मुख्य न्यायाधीश (सीजेआई) धनंजय वाई. चंद्रचूड़ की अगुवाई वाली तीन न्यायाधीशों वाली पीठ इस मामले की सुनवाई कर रही है.
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