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Sunday, 3 November, 2024
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रंजन गोगोई की RS सीट 2020 में ख़बरों में रही लेकिन वो उन 70% जजों में हैं, जिन्हें रिटायरमेंट के बाद भी कुछ न कुछ काम दिया गया

1999 के बाद से रिटायर होने वाले, सुप्रीम कोर्ट जजों के विश्लेषण से पता चलता है, कि कम से कम 71 प्रतिशत ने, ऑफिस छोड़ने के बाद कुछ न कुछ काम स्वीकार किया.

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नई दिल्ली: ‘प्रतिस्पर्धी अनौचित्य’, ‘गलत मिसाल’, ‘अनुचित बदलाव’—इस साल मार्च में भारत के मुख्य न्यायाधीश के तौर पर रिटायर होने के सिर्फ चार महीने बाद, जस्टिस रंजन गोगोई के राज्यसभा नामांकन ने बहुत लोगों को हैरत में डाल दिया था.

एक जज के तौर पर गोगोई ने उन बैंचों की अध्यक्षता की थी जिन्होंने कई महत्वपूर्ण मामले हैंडल किए थे, जिनमें राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद और भारत की फ्रांस से 36 राफेल जेट विमानों की ख़रीद की जांच कराने के लिए दायर की गईं समीक्षा याचिकाएं शामिल थीं.

लेकिन गोगोई की नियुक्ति अकेली मिसाल नहीं है, जिसमें सुप्रीम कोर्ट के जजों ने रिटायरमेंट के बाद कोई दूसरा पद या काम स्वीकार किया हो.

1999 के बाद से रिटायर होने वाले सुप्रीम कोर्ट जजों- कुल 103 (जिनमें से एक, 63 वर्षीय जस्टिस एम श्रीनिवासन की, फरवरी 2000 में सेवा के दौरान ही मौत हो गई थी) – के विश्लेषण से पता चलता है कि कम से कम 71 प्रतिशत ने, ऑफिस छोड़ने के बाद कुछ न कुछ काम स्वीकार किया.

इन कार्यों में ट्राइब्यूनल्स, मानवाधिकार आयोगों, सरकार द्वारा नियुक्त अस्थाई आयोगों, कोर्ट द्वारा नियुक्त कमेटियों, जल ट्राइब्यूनल्स, और बतौर लेकायुक्त या राज्य-स्तरीय भ्रष्टाचार विरोधी पदाधिकारों की नियुक्तियां शामिल हैं.

क़रीब 63 प्रतिशत (103 में से 65) ने, रिटायर होने के तीन साल के भीतर ही कोई असाइनमेंट स्वीकार कर लिया, जिनमें से कुछ ने तो एक के बाद एक कई पद ग्रहण किए. इस रिपोर्ट के लिए, दिप्रिंट ने रिटायरमेंट के बाद केवल पहले असाइनमेंट का संज्ञान लिया है जो इन जजों ने लिए हैं.

कम से कम 60 प्रतिशत (103 में से 62) जजों के पहले असाइनमेंट वो थे, जिनमें या तो सरकार द्वारा सीधी नियुक्ति की गई, या उनकी नियुक्तियों में सरकार का दख़ल था.

इनमें ट्राइब्यूनल्स और राष्ट्रीय उपभोक्ता विवाद निवारण आयोग (एनसीडीआरसी) जैसी इकाइयों, विधि आयोग, मानवाधिकार आयोग, और अस्थाई आयोग व कमेटियों में नियुक्तियां तथा लोकायुक्त जैसे पद शामिल हैं.

62 जजों में से दो- जस्टिस पीपी नावलेकर और बी सुदर्शन रेड्डी- को उनके रिटायरमेंट के फौरन बाद लोकायुक्त नियुक्त कर दिया गया था. पांच अन्य- जस्टिस शिवराज वी पाटिल, एन संतोष हेगड़े, लोकेश्वर सिंह पांटा, सीरियक जोज़फ और पीसी घोस- के मामले में लोकपाल/लोकायुक्त पदों पर नियुक्ति, रिटायरमेंट बाद के दूसरे पदों के बाद हुई थी.

फिर पूर्व सीजेआई जस्टिस पी सदाशिवम हैं, जिन्हें 2014 में रिटायर होने के चार महीने बाद ही केरल का राज्यपाल बना दिया गया था.


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ये बात सच है कि क़ानून में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है, जो जजों को रिटायरमेंट के बाद कोई असाइनमेंट लेने से रोकता हो, और न ही इसके लिए कोई कूलिंग-ऑफ पीरियड है. लेकिन, आलोचक रिटायरमेंट के फौरन बाद ऐसी नियुक्तियों को, हितों के संभावित टकराव के रूप में देखते हैं, और कहते हैं कि इससे सेवा में रहने के दौरान, जजों द्वारा दिए गए फैसलों पर सवाल खड़े होते हैं.

लेकिन इस बीच, ऐसी नियुक्तियों के समर्थक कहते हैं कि कुछ विषय को हैंडल करने के लिए, ऐसे विशेषज्ञों की ज़रूरत होती है, जो भारतीय क़ानूनों की बारीकियों से भलि-भांति वाक़िफ हों, जिस वजह से कुछ नियुक्तियों के लिए, जज अपरिहार्य हो जाते हैं.

बहुत से पूर्व जज इस ज़रूरत पर भी बल देते हैं कि अदालतों द्वारा दिए गए असाइनमेंट्स को, उन असाइनमेंट्स से अलग करके देखना चाहिए, जिनमें सरकार शामिल होती है, चूंकि दूसरी श्रेणी में वेतन और भत्ते, सरकार की ओर से दिए जाते हैं.

रिटायरमेंट के बाद जजों के दूसरे असाइनमेंट्स लेने के औचित्य के बारे में पूछे जाने पर, सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज एमबी लोकुर ने कहा कि इस मुद्दे पर विस्तृत चर्चा करने, और एक ऐसी नीति बनाने की ज़रूरत है, जो न केवल जजों, बल्कि चुनाव आयुक्तों, विजिलेंस आयुक्तों और सरकारी अधिकारियों जैसे, सभी दूसरे पदाधिकारियों पर भी लागू हो’.

उन्होंने कहा कि आख़िरकार ये एक ऐसा मामला है, जिस पर हर जज को निजी तौर पर विचार करना है.

विभिन्न मामलों को देखने के लिए, सुप्रीम कोर्ट द्वारा गठित आयोगों में शामिल होने के न्यौतों के बारे बात करते हुए उन्होंने कहा, ‘जहां तक मेरी बात है, मैं पुराने विचारों वाला इंसान हूं और मेरे लिए अनुरोध तो छोड़िए, किसी प्रस्ताव को भी ‘ना’ कहना, तक़रीबन नामुमकिन होता है’.

उन्होंने आगे कहा, ‘लेकिन मैं एक लकीर खींचूंगा और बहुत आदर के साथ किसी भी ट्राइब्यूनल या आयोग में नियुक्ति को ‘ना’ कह दूंगा’.

‘ट्राइब्यूनल्स को कौन चलाएगा?’

रिटायरमेंट बाद के असाइनमेंट्स का सबसे अहम कारण ये होता है कि क़ानून में ट्राइब्यूनल्स समेत कई दूसरी इकाइयों को चलाने के लिए, रिटायर्ड जजों को नियुक्त करने की बात कही गई है.

जस्टिस लोकुर ने कहा कि कई क़ानून हैं, जिनमें कहा गया है कि केंद्रीय प्रशासनिक ट्राइब्यूनल (कैट), आर्म्ड फोर्सेज़ ट्राइब्यूनल (एएफटी), नेशनल ग्रीन ट्राइब्यूनल (एनजीटी), राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (एनएचआरसी) आदि के पदों पर, रिटायर्ड जजों, या रिटायर्ड सरकारी अधिकारियों को नियुक्त किया जाए.

उन्होंने कहा, ‘अगर ऐसे पदों पर उन्हें नियुक्त नहीं किया जाएगा, तो क़ानून बैठ जाएंगे’.

दिप्रिंट के विश्लेषण के मुताबिक़, 1999 के बाद रिटायर हुए 103 जजों में से 16, शीर्ष अदालत में उनका कार्यकाल ख़त्म होने के फौरन बाद, एनएचआरसी या राज्य मानवाधिकार आयोगों के सदस्य अथवा अध्यक्ष नियुक्त कर दिए गए थे.

इनमें न्यायमूर्ति सुजाता वी मनोहर, पीसी घोस, सीरियक जोज़फ, एएस आनंद, एस राजेंद्र बाबू, केजी बालकृष्णन, जीपी माथुर, शिवराज वी पाटिल, एचएल दत्तू और पीसी पंत शामिल हैं.

इनके अलावा चार जज रिटायर होने के एक साल के भीतर, एनसीडीआरसी के अध्यक्ष नियुक्त किए गए. एक पांचवें जज, जस्टिस डीके जैन ने भी रिटायर होने के एक हफ्ते के भीतर, एनसीडीआरसी अध्यक्ष का पदभार संभाल लिया, लेकिन इससे पहले वो कुछ समय के लिए भारतीय विधि आयोग (एलसीआई) के अध्यक्ष भी रहे.

1999 के बाद से, तीन रिटायर्ड जजों के लिए एलसीआई, रिटायरमेंट के बाद पहला असाइनमेंट रही है. प्रतिस्पर्धा अपीलीय ट्राइब्युनल (सीएटी) और एडवांस रूलिंग प्राधिकरण (एएआर) भी, तीन-तीन जजों के लिए रिटायरमेंट के बाद पहले असाइनमेंट रहे. इस बीच, पांच जजों के लिए ये असाइनमेंट, दूरसंचार विवाद निपटान एवं अपीलीय ट्रिब्यूनल (टीडीसैट) था.

जस्टिस बीएन किरपाल को 2002 में, पहले राष्ट्रीय वन आयोग (एनएफसी) का अध्यक्ष बनाया गया था- जिसकी घोषणा उनके रिटायर होने के एक महीने बाद की गई. जस्टिस एके माथुर एफटी के पहले अध्यक्ष थे- ये पद उन्होंने 2008 में रिटायर होने के एक महीने के भीतर ही ग्रहण कर लिया.

जस्टिस बीएन श्रीकृष्णा को, जो मई 2006 में रिटायर हुए, तब के केंद्रीय वित्त मंत्री पी चिदंबरम ने, फौरन ही छठे वेतन आयोग का अध्यक्ष बनने के लिए कह दिया.

रिटायरमेंट के बाद जस्टिस एसजे मुखोपाध्याय ने, राष्ट्रीय कंपनी कानून अपीलीय न्यायाधिकरण (एनसीएलएटी) के अध्यक्ष पद पर काम किया, और दूसरे दो जजों- न्यायमूर्तियों मार्कण्डेय काटजू तथा सीके प्रसाद ने प्रेंस काउंसिल ऑफ इंडिया (पीसीआई) के अध्यक्ष का पद संभाला.

पांच जज- न्यायमूर्ति बृजेश कुमार, बीएस चौहान, जेएम पांचाल, मुकुंदकम शर्मा और बीएन अग्रवाल ने, जल विवाद ट्राइब्यूनल्स की अध्यक्षता की, जिनका काम विभिन्न राज्यों के बीच किसी अतंर्राज्यीय नदी, या नदी घाटी के पानी के इस्तेमाल, वितरण, या नियंत्रण से जुड़े झगड़ों को, सुलझाना है.

सीनियर एडवोकेट गोपाल सुब्रह्मण्यम ने कहा कि दरअसल ये जजों के रिटायर होने की उम्र है, जो आंशिक रूप से इसके लिए ज़िम्मेदार है कि रिटायरमेंट के बाद वो कोई असाइनमेंट ले लेते हैं.

उन्होंने आगे कहा, ‘दिक़्क़त ये है कि जज ऐसी उम्र में रिटायर हो रहे हैं, जब बहुत से दूसरे लोग अपने पेशे में बने रहते हैं. 65 वर्ष की रिटायरमेंट आयु ज़रा कम है. इसे बढ़ाकर 70 के क़रीब कर दिए जाने की ज़रूरत है’.


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कोई कूलिंग-ऑफ पीरियड नहीं

रिटायरमेंट के बाद जजों के असाइनमेंट स्वीकार करने के विरोध में, अलग-अलग तरह की दलीलें हैं. कुछ का मानना है कि रिटायर होने के बाद, जजों के किसी भी तरह के असाइनमेंट लेने पर रोक होनी चाहिए, जबकि कुछ दूसरों की राय है कि उन्हें इसकी अनुमति तो होनी चाहिए, लेकिन ऐसी नियुक्ति एक कूलिंग-ऑफ पीरियड या रिटायरमेंट के कुछ अंतराल के बाद होनी चाहिए.

ऐसी नियुक्तियों के क़ानूनों में, कूलिंग-ऑफ पीरियड न होने की तरफ इशारा करते हुए सुब्रह्मण्यम ने कहा, ‘आपको एक कूलिंग-ऑफ पीरियड रखना चाहिए, ताकि अगर हितों के टकराव का कोई मुद्दा हो तो उससे बचा जा सके.

सुब्रह्मण्यम ने आगे कहा, ‘वरना अक्सर होता ये है कि किसी जज का दिया गया फैसला, अगर सरकार के पक्ष में होता है, तो उसे बाद में हुई जज की नियुक्ति से जोड़ दिया जाता है. और हमेशा एक शक बना रहता है कि ऐसा क्यों किया गया’.

विभिन्न पदों पर रिटायर्ड जजों की नियुक्ति से संबंधित, भारत के किसी भी क़ानून में ऐसे किसी कूलिंग-ऑफ का प्रावधान नहीं है. इसलिए, मिसाल के तौर पर, जस्टिस स्वतंत्र कुमार को एनजीटी का अध्यक्ष (2012 से 2017) तब नियुक्त किया गया, जब वो सेवा में ही थे. उनके रिटायर होने में क़रीब 12 दिन बचे थे और नया पद लेने के लिए उन्होंने इस्तीफा दिया. जस्टिस एके गोयल को जुलाई 2018 में, उनके रिटायरमेंट के दिन ही एनजीटी का अध्यक्ष नियुक्त कर दिया गया.

जस्टिस लोकेश्वर सिंह पांटा 2010 से 2011 के बीच, 14 महीने के लिए एनजीटी के अध्यक्ष रहे थे, जिसके बाद उन्हें हिमाचल प्रदेश का लोकायुक्त बना दिया गया.

सीनियर एडवोकेट केटीएस तुलसी भी इस सुझाव से सहमत थे कि जजों के रिटायर होने के बाद एक कूलिंग-ऑफ पीरियड होना चाहिए.

उन्होंने कहा, ‘भले ही कुछ विशेष श्रेणियों के मामलों में, न्यायिक निर्णय के लिए न्यायिक रूप से योग्य लोगों का होना ज़रूरी हो सकता है, लेकिन फिर भी कम से कम दो साल का, कूलिंग-ऑफ पीरियड ज़रूर होना चाहिए’.

उन्होंने आगे कहा, ‘हो सकता है कि जज रहते हुए उनके फैसलों पर कोई असर न हो, लेकिन कुछ लोगों को ज़रूर ऐसा लगता है, और वो उनके फैसलों की व्याख्या, उस पद के संदर्भ में करते हैं, जो उन्हें बाद में पेश किया जाता है और जिसे वो रिटायरमेंट के फौरन बाद स्वीकार कर लेते हैं’.

लेकिन, भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश जस्टिस केजी बालकृष्णन, जिन्हें उनके रिटायरमेंट के एक महीने के अंदर, एनएचआरसी अध्यक्ष बना दिया गया था, नहीं मानते कि किसी कूलिंग-ऑफ पीरियड की ज़रूरत है.

उन्होंने कहा, ‘कुछ ट्राइब्यूनल्स में सिर्फ कोई जज रह सकता है, क्योंकि उनमें क़ानूनी ज्ञान और क़ानूनी विशेषज्ञता की ज़रूरत होती है’.

उन्होंने आगे कहा, ‘जहां क़ानूनी विशेषज्ञता और क़ानूनी ज्ञान की ज़रूरत होती है, वहां उच्च न्यायालयों के जजों को, रिटायरमेंट के फौरन बाद नियुक्त करने में कुछ ग़लत नहीं है’.

जस्टिस लोकुर ने कहा कि ‘कूलिंग-ऑफ पीरियड के बारे में बात करना तो अच्छा है, लेकिन बीच के अंतराल में क्या होगा?’

उन्होंने आगे कहा, ‘क्या वो किसी देसी या बहुराष्ट्रीय कॉर्पोरेशन में, कोई निजी जॉब या कंसल्टेंसी ले सकते हैं? क्या कूलिंग-ऑफ पीरियड की ख़ातिर उनकी विशेषज्ञता बेकार चली जाने दिया जाए?’

‘एक राष्ट्रीय बहस की ज़रूरत’

केंद्रीय मंत्री पीयूष गोयल से लेकर, उनके पूर्व मंत्रिमंडलीय सहयोगी स्वर्गीय अरुण जेटली तक, कई राजनीतिज्ञों ने भारतीय क़ानूनों में रिटायरमेंट के बाद न्यायिक नियुक्तियों के बढ़ते अवसरों पर चिंता जताई है.

भारत के पहले विधि आयोग ने, 1958 में अपनी 14वीं रिपोर्ट में आमराय से सिफारिश की थी कि जजों को रिटायरमेंट के बाद सरकार से कोई पद नहीं लेने चाहिए, क्योंकि इससे संभावित रूप से, न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर असर पड़ सकता है.

विडंबना ये है कि बॉम्बे हाईकोर्ट के तब के मुख्य न्यायाधीश, जस्टिस एमसी छागला ने, जो पहले विधि आयोग का हिस्सा थे, एक सरकारी नियुक्ति को स्वीकार कर लिया, जिसमें वो अमेरिका में भारतीय राजदूत (1958-61) रहे और बाद में यूके में भारतीय उच्चायुक्त रहे (1962-63) रहे. अमेरिका में राजदूत के तौर पर उनकी नियुक्ति, 26 अक्टूबर को उनके रिटायर होने के, दो महीने के भीतर हो गई थी.

बाद में उन्होंने शिक्षामंत्री (1963-66) और विदेश मामलों के मंत्री (1966-67) के तौर पर भी अपनी सेवाएं दीं.

पूर्व सीजेआई आरएम लोधा ने कहा कि न्यायपालिका पर सियासी प्रभाव की संभावित चिंताओं को दूर करने के लिए, अपने रिटायर होने से पहले उन्होंने तब के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को एक मौलिक प्रस्ताव दिया था.

उन्होंने आगे कहा, ‘मैंने एक सुझाव दिया था कि जहां तक रिटायर होने जा रहे जजों का ताल्लुक़ है, रिटायर होने से तीन महीने पहले उन्हें एक विकल्प दिया जाना चाहिए कि वो पेंशन लेना पसंद करेंगे, या रिटायरमेंट के बाद कोई असाइनमेंट लेना चाहेंगे’.

उन्होंने कहा कि अगर जज पेंशन को चुनते हैं, तो उन्हें उनके आख़िरी वेतन के बराबर राशि दी जानी चाहिए, लेकिन फिर रिटायरमेंट के बाद, उन्हें कोई असाइनमेंट नहीं दिया जाना चाहिए.

उन्होंने आगे कहा, ‘लेकिन अगर कोई जज रिटायरमेंट के बाद किसी असाइनमेंट में दिलचस्पी रखता है, तो फिर सीजेआई या उनके मनोनीत की अध्यक्षता में, एक कमेटी बनाई जानी चाहिए, और जैसे ही कोई रिक्ति सामने आती है, तो सरकार को इस कमेटी से नाम मांगने चाहिए’.

सीनियर कांग्रेस नेता और पूर्व केंद्रीय क़ानून मंत्री, एम वीरप्पा मोइली की अभी भी यही राय है कि किसी कूलिंग-ऑफ पीरियड से पहले, जजों को कोई असाइनमेंट नहीं लेना चाहिए.

उन्होंने कहा, ‘कूलिंग-ऑफ पीरियड के बग़ैर, रिटायरमेंट के बाद जजों के नियुक्तियां स्वीकार करने के मुद्दे पर, एक राष्ट्रीय बहस होनी चाहिए’.

उन्होंने आगे कहा, ‘जहां पर भी ये संवैधानिक रूप से ज़रूरी नहीं है, वहां सरकार को किसी भी आयोग या ट्राइब्यूनल में, जजों को नियुक्त नहीं करना चाहिए. रिटायरमेंट पश्चात किसी भी तरह के फायदे, सिर्फ जजों की निष्ठा की बुनियाद को ही हिलाएंगे’.

‘नियुक्तियों में गुणात्मक और मात्रात्मक अंतर’

1999 के बाद से रिटायर हुए 103 जजों में आठ को सरकार द्वारा स्थापित, अस्थाई समितियों और आयोगों में नियुक्त किया गया.

मसलन, मई 2002 में, रिटायर होने के दो साल बाद, गुजरात सरकार ने जस्टिस जीटी नानावती को, उस साल हुए गोधरा ट्रेन कांड और उसके बाद होने वाले दंगों की जांच के लिए नियुक्त किया.

कम से कम 10 जज सुप्रीम कोर्ट या हाईकोर्ट द्वारा, विभिन्न अस्थायी आयोगों और समितियों में नियुक्त किए गए, जिनका गठन किसी विशेष उद्देश्य के लिए किया गया था.

रिटायरमेंट के बाद के असाइनमेंट्स में सबसे चर्चित वो था, जो जस्टिस आरएम लोधा, आरवी रवींद्रन और अशोक भान को सौंपा गया, जिन्होंने भारतीय क्रिकेट की शीर्ष प्रशासनिक बॉडी, बोर्ड ऑफ कंट्रोल फॉर क्रिकेट इन इंडिया (बीसीसीआई) में सुधार लाने की कोशिश की.

जस्टिस लोधा सितंबर 2014 में रिटायर हुए थे, जस्टिस रवींद्रन अक्टूबर 2011 में, और जस्टिस भान अक्टूबर 2008 में रिटायर हुए थे. सुप्रीम कोर्ट ने ये कमेटी 2015 में नियुक्त की.

जहां तक ऐसी नियुक्तियों और ट्राइब्यूनल्स, अन्य स्थाई इकाइयों तथा सरकार द्वारा नियुक्त अस्थाई आयोगों में अंतर का सवाल है, जस्टिस लोकुर ने कहा कि ‘अलग अलग तरह की नियुक्तियों/नामांकनों में, गुणात्मक और मात्रात्मक अंतर होता है’.

किसी ट्राइब्यूनल या कमीशन में नियुक्ति, आमतौर पर सुप्रीम कोर्ट या हाईकोर्ट्स के मुख्य न्यायाधीश की, प्रशासनिक अनुशंसा पर की जाती है. उन्होंने आगे कहा कि इस तरह की सिफारिश या नामांकन के साथ, आमतौर पर दिए जाने वाले वेतन और भत्ते, सरकार की ओर दिए जाते हैं.

जहां तक कोर्ट द्वारा नियुक्त समितियों का सवाल है, उन्होंने कहा कि ये आम तौर से खुली कोर्ट में, और न्यायिक कार्यवाही के दौरान की जाती हैं.

उन्होंने कहा, ‘नियुक्ति कभी कभी, हालांकि हमेशा नहीं, बिना किसी पारिश्रमिक और भत्ते के भी होती है, और उन्हें कोर्ट के आदेश द्वारा तय किया जाता है. इस तरह की कमेटी अमूमन कोर्ट के समक्ष किसी मामले में, उसकी सहायता के लिए नियुक्त की जाती है’.

जस्टिस लोधा का विचार है कि कोर्ट द्वारा नियुक्त कमेटियां ‘कोई नियुक्तियां नहीं होतीं’. उन्होंने कहा, ‘सिर्फ कुछ काम होते हैं जो किसी कमेटी को दिए जाते हैं. इनके साथ कोई लाभ या सुविधाएं नहीं होतीं. इनका पारिश्रमिक या तो कोर्ट तय करती है, या वो आमूमन बहुत कम होता है. ये काम पर आधारित होती हैं, कार्यकाल पर नहीं’.

पराए आदमी

न्यायपालिका के भीतर से भी, जजों के रिटायरमेंट के बाद जॉब लेने की प्रथा के खिलाफ आवाज़ें उठने लगीं हैं. इसके विरोधियों में न्यायमूर्ति जे चेलमेश्वर और कुरियन जोज़फ भी शामिल हैं, ये उन चार में से दो जज हैं, जिन्होंने जनवरी 2018 में वो अभूतपूर्व प्रेस कॉन्फ्रेंस की थी, जिसमें जस्टिस दीपक मिश्रा के भारत के मुख्य न्यायाधीश के कार्यकाल के दौरान, न्यायपालिका को लेकर कुछ चिंताएं व्यक्त की गईं थीं. चेलमेश्वर और जोज़फ दोनों, 2018 में रिटायर हो गए.

इसी साल अपने रिटायरमेंट से पहले, जस्टिस दीपक गुप्ता ने कहा कि वो सरकार की ओर से, किसी ऑफर को स्वीकार नहीं करेंगे. उन्होंने ये भी कहा कि अगर उन्हें जस्टिस गोगोई की तरह, राज्यसभा में मनोनीत किए जाने का ऑफर मिलता, तो उन्होंने मंज़ूर नही किया होता. उन्होंने आगे कहा, ‘हालांकि मुझे लगता है कि किसी ने मुझे पेशकश ही न की होती’.

इस बीच बहुत से जज आरबिट्रेटर्स बन गए हैं. इनमें शामिल हैं न्यायमूर्ति अजय प्रकाश मिस्रा, एसपी भरूचा, जीबी पटनायक, दोराइस्वामी राजू, एसएन वरियावा, बीपी सिंह, किरियन जोज़फ़, दीपक मिश्रा, जेएस खेहर, टीएस ठाकुर, वी गोपाला गौड़ा, एसएस निज्जर, ज्ञान सुधा मिश्रा, अल्तमस कबीर और दीपक वर्मा.

लेकिन, सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन (एससीबीए) अध्यक्ष दुष्यंत दवे ने कहा कि रिटायर्ड जजों का आरबिट्रेटर्स बनना भी एक ‘अस्वस्थ’ प्रथा है.

उन्होंने आगे कहा, ‘मेरे विचार में श्रेष्ठ अदालतों के जजों को, आरबिट्रेटर्स बनने देना भी एक स्वस्थ चीज़ नहीं है, चूंकि आरबिट्रेशन नियुक्तियों की उम्मीद में बहुत से जजों को, बड़ी लॉ फर्मों की हिमायत करते देखा गया है और कुछ मामलों में, जिन जजों ने बड़े कॉरपोरेट घरानों के पक्ष में फैसले दिए हैं, उन्हें आरबिट्रेटर के तौर पर नियुक्त किया गया है’. उन्होंने ये भी कहा कि ‘ये बहुत परेशान करने वाली बात है’.

कुछ जजों ने अंतर्राष्ट्रीय नियुक्तियां भी स्वीकार की हैं. मिसाल के तौर पर, जस्टिस एमबी लोकुर दिसंबर 2018 में रिटायर हुए, और उन्हें फिजी के सुप्रीम कोर्ट के अनिवासी पैनल का जज नियुक्त कर दिया गया, जो 21 जनवरी 2019 से प्रभावी था. इसी तरह जस्टिस एके सिकरी, रिटायर होने के पांच महीने बाद, पिछले साल अगस्त में सिंगापुर इंटरनेशनल कमर्शियल कोर्ट के अंतर्राष्ट्रीय जज नियुक्त कर दिए गए.

अप्रैल 2012 से, जस्टिस दलवीर भंडारी अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय (आईसीजे) के जज चले आ रहे हैं- एक ऐसा पद जिस पर भारत सरकार ने, उन्हें उस समय मनोनीत किया था, जब वो सिटिंग जज बने हुए थे. आईसीजे में जाने के लिए उन्होंने सुप्रीम कोर्ट से इस्तीफा दिया, और 2017 में एक ब्रिटिश उम्मीदवार के साथ नज़दीकी मुक़ाबले में उन्हें फिर से कोर्ट के लिए चुन लिया गया.

बहुत से जज रिटायमेंट के बाद अपनी निजी पहलक़दमियों में लग गए हैं. मसलन, पूर्व सीजेआई जस्टिस आरसी लाहोटी ने अपने रिटायर होने के फौरन बाद, एक भ्रष्टाचार-विरोधी संगठन ‘इंडिया रीजुविनेशन इनीशिएटिव’ की सह-स्थापना की. उन्होंने ‘न्याय चौपाल’ नाम के एक मंच की भी अध्यक्षता की, जिसका लक्ष्य पारिवारिक झगड़े, संपत्ति विवाद, और पड़ोसियों से झगड़े आदि, दीवानी के मामले निपटाने में मदद करना था.

इस मंच की स्थापना 2018 में आरएसएस से जुड़ी अखिल भारतीय अधिवक्ता परिषद (एबीएपी) ने की थी.

(इस ख़बर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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