नई दिल्ली: कार्यकर्ताओं, राजनेताओं, पूर्व आईपीएस अधिकारियों, और दूसरे बहुत से सिविल सर्वेंट्स ने, फरवरी दंगों में दिल्ली पुलिस की जांच को लेकर सवाल उठाए हैं, जिसमें 50 से अधिक लोग मारे गए थे.
नौ पूर्व आईपीएस अधिकारियों ने तो, दिल्ली पुलिस आयुक्त एसएन श्रीवास्तव को पत्र लिखकर मांग भी की, कि वो दंगों की फिर से ‘निष्पक्ष’ तरीक़े से जांच करें. सीनियर एडवोकेट प्रशांत भूषण और कार्यकर्ता हर्ष मंदर ने भी, इन्हीं भावनाओं का इज़हार करते हुए मांग की कि दिल्ली पुलिस की तहक़ीक़ात की जांच करने के लिए, एक स्वतंत्र आयोग बनाया जाए. भूषण ने तहक़ीक़ात को एक ‘अपराधिक साज़िश’ क़रार दिया.
निष्पक्ष जांच की मांग उस समय और बढ़ गई, जब 16 सितंबर को पुलिस ने, 17,000 से अधिक पन्नों की एक चार्जशीट दाख़िल की, जिसमें 15 लोगों को बतौर मुख्य साज़िशकर्ता नामज़द किया गया था. इनमें पिंजरा तोड़ कार्यकर्ता नताशा नरवाल व देवांगना कलिता, और छात्र कार्यकर्ता सफ़ूरा ज़रगर शामिल हैं.
लेकिन, इस सब के बीच पुलिस अपनी बात क़ायम है, कि अपनी तफ़तीश में वो प्रोटोकोल का पालन करती रही है. पहले, जब दिप्रिंट ने दिल्ली पुलिस के अतिरिक्त पीआरओ, अनिल मित्तल से बात की, तो उन्होंने कहा कि पुलिस ने दंगों के सभी मामलों की जांच, पेशेवर तरीक़े से बारीकी के साथ की थी.
लेकिन ये पहली बार नहीं है, कि दंगों में दिल्ली पुलिस की किसी जांच पर सवाल उठाए गए हैं. इसी तरह की चीज़ राष्ट्रीय राजधानी में होने वाले, 1984 के सिक्ख विरोधी दंगों में, पुलिस जांच के दौरान हुई थी.
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दिल्ली पुलिस के खिलाफ सीबीआई के दावे
1984 में, 31 अक्तूबर को जब उनके अंगरक्षकों ने, तब की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या कर दी, तो उसके कुछ ही देर बाद, देश के कई हिस्सों में दंगे भड़क उठे, जिनके निशाने पर सिख थे.
उन दंगों ने 3,300 से अधिक लोगों की जान ले ली, और रिपोर्ट्स के मुताबिक़, उनमें से 2,700 लोग दिल्ली में मारे गए थे.
2010 में जब सुप्रीम कोर्ट में, मुख्य अभियुक्त और पूर्व कांग्रेस नेता, सज्जन कुमार से जुड़े एक मुक़दमे की सुनवाई चल रही थी, तो सीबीआई ने दंगों में ‘दिखावटी जांच और फर्ज़ी मुक़दमों’ के लिए दिल्ली पुलिस की कड़ी आलोचना की थी.
अपने हलफनामे में जांच एजेंसी ने कहा था, कि दिल्ली पुलिस ने दिसंबर 2005 में, कोर्ट के सामने ग़लत तरीक़े से क्लोज़र रिपोर्ट पेश की थी.
इस के अलावा, 2018 में जब एक ट्रायल कोर्ट ने कुमार को बरी कर दिया, तो उसके बाद सीबीआई ने इसके खिलाफ दिल्ली हाईकोर्ट में अपील की, और कहा कि कुमार की कथित भूमिका के बारे में, पुलिस की जांच ‘दाग़दार’ थी, और दिल्ली पुलिस ने राजनेता की हिमायत करने की कोशिश की थी.
सीबीआई ने हाईकोर्ट से ये भी कहा था, कि पुलिस ने दंगों के दौरान दायर एफआईआर्स को ‘सीतनिद्रा’ में रख दिया, इस उम्मीद में, कि ये मामला आख़िरकार तय हो जाएगा, और कुछ समाधान निकल आएगा.
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अदालतों ने क्या कहा
अदालतों ने भी दंगों में दिल्ली पुलिस की जांच की आलोचना की.
2017 में, दिल्ली की एक अदालत ने दिल्ली पुलिस की आलोचना की, कि दंगों के 33 साल बाद भी, एक मामले में उन्होंने अपनी तफतीश पूरी नहीं की थी.
कोर्ट ने ये भी कहा कि ऐसा लगता है, कि जैसे कथित रूप से दंगे भड़काने में शामिल, अपने अधिकारियों को ‘बचाने के लिए’, पुलिस ने एक ‘कार्टेल’ बना लिया था.
मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट शिरीश अग्रवाल ने कहा था, ‘ये केस एक ऐसी दुखद स्थिति की कहानी है, जहां अपराधों की गंभीरता के बावजूद, पुलिस लगातार अधूरी पुलिस रिपोर्ट्स दाख़िल करती रही. हालांकि अंजाम दिए गए अपराध साफ नज़र आ रहे थे, लेकिन पुलिस लगातार इनकार ही करती रही.’
एक साल बाद 2018 में, न्यायमूर्ति एस मुरलीधर और न्यायमूर्ति विनोद गोयल की, दिल्ली हाईकोर्ट की एक एक बेंच ने कहा, कि दिल्ली पुलिस दंगों के मामले में एफआईआर्स दर्ज करने, और जांच करने में ‘पूरी तरह विफल’ रही, जिसके नतीजे में अभियुक्त बरसों तक आज़ाद घूमते रहे.
दिल्ली हाईकोर्ट ने ये भी कहा, कि 1984 के सिक्ख-विरोधी दंगों के गवाह, डर के साए में जी रहे थे और पुलिस पर भरोसा गंवा चुके थे. उनमें विश्वास तब पैदा हुआ, जब सीबीआई ने जांच अपने हाथ में ली.
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दंगों की फिर से जांच के लिए 11 कमेटियां बनाई गईं
दिल्ली पुलिस की जांच के असफल रहने के इन तमाम दावों के बीच, 1984 के दंगों की फिर से जांच के लिए, बहुत सी कमेटियां बनाई गईं.
पहली कमेटी नवंबर 1984 में गठित की गई, जिसके मुखिया तब के अतिरिक्त पुलिस आयुक्त वेद मारवाह थे. इसे नरसंहार में पुलिस की भूमिका की जांच करनी थी. कुल मिलाकर ऐसी 11 कमेटियां बनाई गईं.
सबसे हालिया और ग्यारहवीं कमेटी, जस्टिस एसएन ढींगरा कमेटी थी, जो 2017 में गठित की गई. इस कमेटी के मुखिया थे दिल्ली हाईकोर्ट के पूर्व जज, न्यायमूर्ति एसएन ढींगरा. 2019 में सुप्रीम को दी गई अपनी रिपोर्ट में, कमेटी ने दंगों के कई अभियुक्तों के, बिना सज़ा छूट जाने के लिए, “पुलिस में दिलचस्पी के अभाव” को ज़िम्मेदार ठहराया.
रिपोर्ट ने उस तरीक़े पर भी प्रकाश डाला, जिससे जांच को अंजाम दिया गया था, और कहा कि दिल्ली पुलिस ने कोई न्यायिक सबूत संभालकर नहीं रखे, और 1984 दंगों में मारे गए कुछ लोगों के, पारिवारिक सदस्यों से संपर्क भी नहीं किया.
जस्टिस ढींगरा कमेटी रिपोर्ट में ये भी दावा किया गया, कि कल्याणपुरी के तब के एसएचओ, इंस्पेक्टर सूरवीर सिंह त्यागी ‘दंगाइयों के साथ एक साज़िश में थे.’
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