नई दिल्ली: पूर्व सिविल सेवकों के एक ग्रुप ने सुप्रीम कोर्ट को पत्र लिखकर आग्रह किया है कि वह “कॉरपोरेट्स के पैसों की बर्बादी” के बजाय नागरिकों के स्वास्थ्य और जीवन के अधिकार को प्राथमिकता दे और अपने ‘पॉल्यूटर पे’ (प्रदूषक भुगतान करे) के सिद्धांत को कायम रखे.
उन्होंने चेतावनी दी कि पर्यावरण को बाद में मंजूरी देने (एक्स-पोस्ट फैक्टो एनवायरनमेंटल क्लियरेंस) और अरावली पहाड़ियों की नई परिभाषा से जुड़े अदालत के फैसले नागरिकों के स्वच्छ और स्वस्थ पर्यावरण के मूल अधिकार को कमजोर करते हैं. पत्र में एक और आदेश का ज़िक्र किया गया है, जो केंद्रीय सशक्त समिति (सीईसी) के कामकाज को “कमज़ोर” करता है.
उनका कहना है कि ऐसे आदेश भारत की पर्यावरण सुरक्षा को कमज़ोर करते हैं.
28 दिसंबर को जारी इस पत्र पर संवैधानिक आचरण समूह (सीसीजी) के 79 सदस्यों के हस्ताक्षर हैं, जिनमें पूर्व दिल्ली उपराज्यपाल नजीब जंग, पूर्व राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार शिवशंकर मेनन, पूर्व चुनाव आयुक्त अशोक लवासा, पूर्व रॉ प्रमुख ए.एस. दुलत और पूर्व पंजाब डीजीपी जूलियो रिबेरो शामिल हैं.
अरावली क्षेत्र की परिभाषा सीमित करने वाले सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद, कार्यकर्ता, शिक्षाविद और आम लोग ‘100 मीटर’ की परिभाषा के खिलाफ आवाज उठा रहे हैं. बाद में शीर्ष अदालत ने 2:1 के फैसले से इस आदेश को पलट दिया.
पूर्व सिविल सेवकों ने अदालत को लिखे पत्र में कहा कि ऐसे आदेश “भारतीय नागरिकों के हितों के खिलाफ” हैं.
पत्र में कहा गया है, “सुप्रीम कोर्ट के ये तीन आदेश, जो बहुत कम समय के अंतराल में पारित किए गए, भारतीय नागरिकों और हमारे देश में प्रकृति संरक्षण के हितों के खिलाफ हैं. अदालत से हमारी अपील है कि वह कॉरपोरेट्स के पैसों की बर्बादी के बजाय नागरिकों के स्वास्थ्य और जीवन के अधिकार को प्राथमिकता दे, और अपने ही ‘पॉल्यूटर पे’, ‘एहतियाती सिद्धांत’ और ‘पीढ़ियों के बीच समानता’ के सिद्धांतों को कायम रखे.”
ग्रुप ने यह भी विस्तार से बताया कि अगर अरावली की नई परिभाषा लागू की गई तो क्या-क्या गलत हो सकता है.
पत्र में कहा गया है, “अरावली पर्वतमाला, जिसका अधिकांश हिस्सा 100 मीटर से कम ऊंचा है, लगभग 67 करोड़ साल पुरानी मानी जाती है. यह थार रेगिस्तान के फैलाव को धीमा करने, सूक्ष्म जलवायु को संतुलित करने और भूजल भंडार को रिचार्ज करने में प्राकृतिक बाधा का काम करती है.”
ग्रुप ने कहा, “नई परिभाषा के कारण अरावली क्षेत्र का 90 प्रतिशत से अधिक हिस्सा पर्यावरण संरक्षण से बाहर हो सकता है. इससे खनन और निर्माण का रास्ता खुलेगा और दिल्ली-एनसीआर क्षेत्र के लिए धूल रोकने वाली इसकी भूमिका लगभग खत्म हो जाएगी.” उन्होंने यह भी कहा कि इससे दिल्ली-राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र (एनसीआर) में मरुस्थलीकरण तेज़ी से आगे बढ़ेगा.
केंद्रीय सशक्त समिति (सीईसी) से जुड़े आदेश पर समूह ने कहा कि सीईसी अपनी स्वतंत्रता खो रही है और वन व वन्यजीव संरक्षण की स्वतंत्र निगरानी करने के बजाय पर्यावरण मंत्रालय के अनुरूप काम कर रही है.
पूर्व सिविल सेवकों ने कहा कि ये आदेश पर्यावरण से जुड़ी वर्षों पुरानी न्यायिक परंपराओं और जंगलों व पहाड़ियों की रक्षा के लिए बनाए गए सुरक्षा उपायों को कमज़ोर करते हैं.
उन्होंने कहा, “ये फैसले मजबूत पर्यावरण न्याय व्यवस्था को पीछे धकेलते हैं और संविधान के तहत जंगलों, वन्यजीवों और पर्यावरण-संवेदनशील इलाकों की रक्षा के दायित्व को निभाने के बजाय उल्लंघन करने वालों को इनाम देते हैं.”
उन्होंने आगे कहा, “पहले से मौजूद सुरक्षा उपायों को वापस लेना उल्लंघन करने वालों को फायदा पहुंचाता है और जंगलों, पहाड़ियों और स्वस्थ पर्यावरण के अधिकार की रक्षा के लिए बनाई गई दशकों पुरानी पर्यावरणीय व्यवस्था को पलट देता है.”
समूह ने कहा कि ये आदेश ऐसे समय आए हैं, जब अत्यधिक जलवायु घटनाएं और रिकॉर्ड स्तर का वायु प्रदूषण पहले से ही कड़े पर्यावरण सुरक्षा उपायों की मांग कर रहे हैं. उन्होंने जोड़ा कि अगर अरावली में खनन शुरू होता है, तो इससे दिल्ली-एनसीआर में एयर क्वालिटी इंडेक्स (AQI) और खराब हो जाएगा, जो पहले ही दम घोंटने वाली स्थिति में है.
पत्र में कहा गया है, “दिल्ली-एनसीआर में, जहां पहले से ही सांस लेने लायक हवा की भारी कमी है, वहां खनन का एयर क्वालिटी इंडेक्स पर क्या असर होगा, इसकी केवल कल्पना ही की जा सकती है. यह राज्य द्वारा संचालित तबाही के बराबर होगा, जिसका सबसे ज्यादा असर दिल्ली-एनसीआर के सबसे हाशिये पर रहने वाले लोगों पर पड़ेगा, जिनके पास एयर प्यूरीफायर जैसी सुविधा नहीं है और जिन्हें ऐसे जहरीले हालात में बाहर काम करना पड़ता है.”
(इस रिपोर्ट को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)
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