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Thursday, 9 May, 2024
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‘आरटीआई संशोधन बिल मूलभूत अधिकारों के लिए खतरा’

सरकार द्वारा सूचना का अधिकार कानून में प्रस्तावित संशोधन सीधे तौर पर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमला है.

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नई दिल्ली: नरेंद्र मोदी सरकार 2.0 सूचना का अधिकार (आरटीआई) कानून में बदलाव कर रही है. सरकार के इस कदम का विपक्ष, आरटीआई कार्यकर्ताओं और पूर्व केन्द्रीय सूचना आयुक्तों ने विरोध किया है. उनका आरोप है कि इस विधेयक में सूचना आयोगों का प्राधिकार कम करने का प्रयास किया गया है और सरकार इस संशोधन के माध्यम से आरटीआई कानून को पूरी तरह से कमजोर करना चाहती है. उनका मानना है कि सरकार द्वारा सूचना का अधिकार कानून में प्रस्तावित संशोधनों से इस पारदर्शिता पैनल की स्वायत्तता से समझौता होगा, क्योंकि यह उसे कार्यपालिका का अधीनस्थ बना देगा.

आपको बता दें कि विपक्षी पार्टियों के कड़े विरोध के बावजूद आरटीआई संशोधन बिल लोकसभा में पारित हो चुका है और अब राज्यसभा में विचाराधीन है.

नई दिल्ली के वीमेन प्रेस क्लब में केंद्रीय सूचना आयोग के पूर्व मुख्य सूचना आयुक्त वजाहत हबीबुल्ला, दीपक संधू एवं पूर्व सूचना आयुक्त शैलेश गांधी, श्रीधर आचार्यालु, एमएम अंसारी, यशोवर्धन आज़ाद एवं अन्नपूर्णा दीक्षित ने पत्रकारों को संबोधित करते हुए आरटीआई संशोधन बिल का सामूहिक विरोध किया.

आरटीआई संशोधन को लागू करने के वाज़िब कारण नहीं

सूचना आयुक्त रह चुके शैलेश गांधी ने कहा कि सरकार ने इस संशोधन को लागू करने के लिए वाज़िब कारण नहीं दिए हैं. सरकार का कहना है कि सूचना आयोग एक कानूनी संस्था है जबकि चुनाव आयोग एक संवैधानिक संस्था है. अतः दोनों को बराबर दर्जा नहीं दिया जा सकता. यह पिछली सरकार द्वारा जल्दबाजी में लिया गया एक निर्णय था. इस दावे को ख़ारिज करते हुए शैलेश गांधी ने कहा कि कुछ वर्ष पहले एक संसदीय समिति जिसमे वर्तमान राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद भी शामिल थे, ने सूचना आयोग को बहुत विचार विमर्श के बाद चुनाव आयोग के बराबर का दर्जा देने की पेशकश की थी. गांधी का कहना है की सरकार इस मामले में पूरी तरह से पारदर्शी नहीं है. इस संशोधन के माध्यम से वह सूचना आयोग की निष्पक्षता एवं स्वतंत्रता को कमज़ोर करना चाहती है.


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पूर्व सीआईसी दीपक संधू ने कहा ‘आरटीआई आम जनता के हाथ में एक अहम हथियार है. इस बिल में संशोधन लाने से पहले सरकार ने संवैधानिक रूप से कोई सुझाव नहीं लिया. सूचना आयोग पूरी तरह से  निष्पक्ष और राजनीतिक प्रभाव से मुक्त रहना चाहिए. देश के नागरिकों का कर्त्तव्य है कि इस संशोधन के खिलाफ आंदोलन कर सूचना आयोग की स्वतंत्रता को नष्ट होने से बचाए.

अपने हितों के लिए काम करने के लिए मजबूर कर सकती हैं सरकारें

पूर्व सूचना आयुक्त यशोवर्धन आज़ाद ने इस बिल की कमजोरियों की तरफ इशारा करते हुए कहा कि यदि सूचना आयुक्तों की आय और नियुक्ति की अवधि निश्चित नहीं होगी, तो सबके लिए क्या तय पैमाना होगा? ऐसे में अलग-अलग सरकारें अपने हिसाब से आय और अवधि तय कर सूचना आयुक्त को अपने हितों के लिए काम करने के लिए मजबूर कर सकते हैं. उन्होंने कहा की आरटीआई कानून में संशोधन की आवश्यकता ज़रूर है. परन्तु उसको सुदृढ़ करने के लिए ना कि और कमज़ोर बनाने के लिए.

वहीं, एम एम अंसारी का मानना है कि ये सीधे तौर पर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमला है. वोट देने के अधिकार को संवैधानिक अधिकार माना गया है. परन्तु जब नागरिक पारदर्शी तरीके से सूचना नहीं पा सकेंगे, तो वे वोट देने के लिए सही ढंग से राय कैसे बना पायेंगे? उन्होंने ये भी कहा की सरकार सीबीआई, चुनाव आयोग के बाद अब सरकार सूचना आयोग को अपने काबू में रखना चाहती है. यदि सरकार सूचना आयुक्तों की नियुक्ति अवधि व आय अनिश्चित रखेगी तो बहुत कम लोग इन पदों के लिए आवेदन करना चाहेंगे. अन्नपूर्णा दीक्षित ने भी संशोधन की आलोचना की और कहा ‘इस संशोधन से पता चलता है की सरकार निष्पक्ष तौर पर सूचना जारी करने से कितना डरती है.’

प्रोफेसर आचार्युलू ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट ने हमेशा से सूचना के अधिकार को मूलभूत अधिकारों में से एक माना है. सूचना आयुक्त की कार्यावधि और आय निश्चित होने की वजह से ही वे निश्चिंत होकर अपना काम करते थे, ऐसा न होने की स्थिति में उन पर दबाव पड़ेगा. सूचना आयुक्तों को एक तय दर्जा नहीं दिए जाने पर कैबिनेट सेक्रेटरी और अन्य अधिकारियों की उनके प्रति कोई जवाबदेही नहीं रहेगी.


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मुख्य सूचना आयुक्त वजाहत हबीबुल्ला का कहना था की यह संशोधन पूरी तरह से अनावश्यक है. यदि कोई संशोधन लाना ही है, तो वो सूचना आयोग को एक संवैधानिक संस्था बनाने का होना चाहिए. चूंकि ये सरकार ‘स्वच्छता’ अभियान पर जोर देती है, आरटीआई राजनीति की सफाई का एक हथियार है और इसे कमज़ोर नहीं होने देना चाहिए.

सूचना आयोग को कमज़ोर बनाने का प्रयास

नेशनल कमीशन फॉर पीपल्स राईट टू इनफार्मेशन (एनसीपीआरआई) की सह संयोजक अंजलि भारद्वाज ने कहा कि सरकार द्वारा सूचना आयोग को कमज़ोर बनाने के लिए निरंतर प्रयास किये जा रहे हैं. वर्ष 2014 के बाद से सरकार ने कोर्ट के निर्देश के बगैर किसी सूचना आयुक्त की नियुक्ति नहीं की है. उन्होंने कहा कि देश भर में इसके खिलाफ प्रदर्शन हो रहे हैं और अगर ये बिल पास हुआ तो नागरिकों के सूचना के अधिकार का हनन होगा. आरटीआई एक्टिविस्ट लोकेश बत्रा ने सुप्रीम कोर्ट के आदेश का हवाला देते हुए कहा कि सरकार को सूचना आयुक्तों की निष्पक्ष और समय से नियुक्ति के निर्देश दिए गए थे, परन्तु आज तक भी सूचना आयोग में खाली पड़ी 4 मुख्य सूचना आयुक्तों के पद पर कोई नियुक्ति नहीं हुई है.

ज्ञात हो कि कांग्रेस समेत देश कि सभी विपक्षी पार्टियों ने आरटीआई संशोधन कानून का विरोध किया है.

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