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Saturday, 2 November, 2024
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बंगाल में जूट मिलों के बंद होने का सिलसिला नहीं थम रहा, टीएमसी-भाजपा एक दूसरे को ठहरा रही जिम्मेदार

देश आजाद होने के बाद पचास से सत्तर के दशक तक कोलकाता के आसपास के कितने ही उपनगर भोजपुरी भाषियों ने ही आबाद किए थे. अब हालात बिगड़ने के बाद ज्यादातर लोग बोरिया-बिस्तर बांध कर गांव लौट गए हैं.

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कोलकाता: पश्चिम बंगाल की राजधानी कोलकाता से सटे उत्तर 24-परगना जिले में शुक्रवार को एक और जूट मिल बंद होने के बाद नाराज़ मजदूरों ने तोड़-फोड़ और आगजनी की. इसके बंद होने से लगभग चार हजार मजदूर एक झटके में सड़क पर आ गए हैं. श्यामनगर इलाके में स्थित वेवरली जूट मिल में वैसे तो महीने भर से उत्पादन बंद था और बकाया वेतन-भत्तों के भुगतान के मुद्दे पर प्रबंधन और मज़दूर यूनियन के बीच बातचीत चल रही थी. लेकिन शुक्रवार सुबह मज़दूर जब काम करने मिल पहुंचे तो उनको गेट पर काम बंद का नोटिस लटकता मिला. इससे नाराज़ मजदूरों ने मिल के दफ्तर में तोड़फोड़ की और वहां खड़ी दो कारों में आग लगा दी. इस घटना के बाद अब सत्तारुढ़ तृणमूल कांग्रेस और भाजपा में ठन गई है और दोनों ने इस घटना के लिए एक-दूसरे को जिम्मेदार ठहराया.

किसी जमाने में बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश के लाखों मजदूरों को रोजगार मुहैया कराने वाला बंगाल का जूट उद्योग अब अपने सबसे बुरे दौर से गुजर रहा है. इन मिलों में नौकरी करने आने वाले प्रियतमों के विरह में उन इलाकों की नई-नवेली दुल्हनों के लिए न जाने कितने ही लोकगीत लिखे और गाए जाते रहे हैं. मसलन- ‘लागा नथुनिया के धक्का, बलम कलकत्ता पहुंच गए.’

उस दौर में इन मिलों को नवविवाहिताओं की सौत कहा जाता था. भोजपुरी के शेक्सपियर कहे जाने वाले भिखारी ठाकुर ने इसी पर लिखा था- ‘छह महीनवा कहि के रे गईलें, बीत गईल बारह बरिस रे विदेशिया’ यानी पति छह महीने में लौटने का भरोसा देकर गए थे लेकिन बारह साल बीत गए. खासकर फागुन के महीने और तीज-त्योहार के दौरान भिखारी ठाकुर के ऐसे कितने ही गीत मज़दूर कालोनियों और पूर्वी उत्तर प्रदेश व बिहार के गांवों में गूंजते रहते थे. कहीं लाउडस्पीकर पर तो कहीं विरह वेदना से व्यथित प्रियतमा के मन में. लेकिन अब हुगली के किनारे बसी लगभग चार सौ जूट मिलों में से आधी से ज्यादा बंद हो चुकी हैं. बाकियों की हालत भी ठीक नहीं है. लगभग हर महीने किसी न किसी मिल के बंद होने की खबर आती है या फिर वेतन-भत्तों का भुगतान नहीं होने की वजह से वहां होने वाली हिंसा की. कोई पांच साल पहले तो मजदूरों ने वेतन-भत्तों पर विवाद के बाद हुगली जिले के भद्रेश्वर स्थित नार्थ ब्रूक जूट मिल के सीईओ एच.के.माहेश्वरी को जिंदा ही जला दिया था. हिंसा की ऐसी कई अन्य घटनाएं भी होती रही हैं.

देश आजाद होने के बाद पचास से सत्तर के दशक तक कोलकाता के आसपास के कितने ही उपनगर इन भोजपुरी भाषियों ने ही आबाद किए थे. अब हालात बिगड़ने के बाद ज्यादातर लोग बोरिया-बिस्तर बांध कर गांव लौट गए हैं. बंद मिलों के हजारों कर्मचारी रिटायरमेंट के बाद मिलने वाली सुविधाओं की राह तकते दुनिया ही छोड़ गए. सैकड़ों ने भूख से दम तोड़ दिया. जो बचे हैं वह दूसरे धंधों या नौकरियों से जुड़ गए हैं. अस्सी के दशक की शुरुआत तक जूट मिल की जिस नौकरी को वरदान समझा जाता था वह अब अभिशाप बन चुकी है.


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‘वो भी क्या दिन थे! तब यह चिमनियां धुआं नहीं बल्कि सोना उगलती थीं. उन दिनों जूट मिलों को रोज़गार की खान माना जाता था. अब तो सब कुछ खत्म हो चुका है.’ यह कहते हुए 82 वर्ष के सुरंजन महतो की आंखें सुनहरे दिनों की याद में चमक उठती हैं. बिहार के आरा जिले के निरंजन लगभग 60 साल पहले अपने पिता रामेश्वर के साथ कलकत्ता की गाड़ी पकड़कर जूट मिल में काम करने के लिए यहां पहुंचे थे. उनके दादा भी जूट मिल में ही काम करते थे. वह बताते हैं कि गांव के दर्जनों लोग कलकत्ते में इन मिलों में नौकरी करते थे.

आखिर भारी मुनाफे में चलने वाले इस उद्योग की यह हालत क्यों है ? जूट मिल मालिकों की दलील है कि जूट की अब पहले जैसी मांग नहीं रही. मशीने काफी पुरानी हो चुकी हैं. उनके आधुनिकीकरण के लिए पैसा नहीं है. इंडियन जूट मिल्स एसोसिएशन (इज्मा) के एक प्रवक्ता कहते हैं, ‘कच्चे माल की बढ़ती कीमत, मांग में गिरावट और पैकेजिंग में प्लास्टिक उद्योग के बढ़ते असर ने इस उद्योग को मुश्किल में डाल दिया है. इस वजह से मजदूरों को ज्यादा भुगतान देना मुश्किल है.’

लेकन मजदूरों का आरोप है कि पहले वामपंथी और फिर तृणमूल कांग्रेस से संबद्ध मज़दूर संगठनों के उग्र आंदोलन, राज्य सरकार की गलत औद्योगिक नीतियों और मिल मालिकों की फूट डालो व राज करो की नीति ने ही इस उद्योग को बदहाल बना दिया है. इंटक नेता रमेन सरकार कहते हैं, ‘राज्य में माकपा की अगुवाई वाली वाममोर्चा सरकार के सत्ता में आने के बाद से ही जूट उद्योग की हालत बिगड़ने लगी. मिलों में मारपीट, हत्या व आगजनी की घटनाएं बढ़ने लगीं. उसके बाद ही मालिकों और मजदूरों के बीच खाई भी बढ़ने लगी.’

लेकिन सीटू से संबद्ध मजदूर यूनियन नेता अनादि साहू जूट मिलों की बदहाली के लिए तृणमूल कांग्रेस सरकार को जिम्मेदार मानते हैं. वह कहते हैं, ‘वाममोर्चा सरकार ने अपने स्तर पर ठोस पहल कर कई बंद मिलों को दोबारा खुलवाया था.’ लगभग यही दावा श्रम मंत्री और तृणमूल कांग्रेस के वरिष्ठ नेता मलय घटक भी करते हैं. वह कहते हैं, ‘सरकार विभिन्न समस्याओं से जूझ रहे इस उद्योग में जान फूंकने की हरसंभव कोशिश करती रही है. लेकिन सबकुछ हमारे हाथ में नहीं है.’

देश की आजादी के बाद लगभग तीन दशकों तक इन मिलों के पुराने मालिक मजदूरों से अपने परिजनों की तरह स्नेह करते थे और उनके दुख-सुख में भागीदार रहते थे. लेकिन बाद में मालिकों ने भी इस धंधे से हाथ समेटना शुरू किया. मिलें धीरे-धीरे बिकने लगीं. नए मालिकों को सिर्फ अपने मुनाफे से मतलब था. वे मजदूरों का जम कर शोषण करने लगे. नतीजतन मजदूरों में असंतोष बढ़ने लगा. इसके चलते मजदूर संगठनों के तादाद भी बढ़ने लगी. अब हालत यह है कि इन मिलों में कहीं-कहीं तो एक-एक दर्जन मजदूर संगठन हैं.


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मजदूरों के असंतोष का लावा अक्सर फूटता रहता है. मजदूरों के असंतोष का हवाला देकर जूट मालिक भी आए दिन मिल में तालाबंदी या कामबंदी की नोटिस लटका देते हैं. ज्यादातर मिल मालिकों ने मजदूरों की भविष्य निधि, ग्रेच्युटी और चिकित्सा बीमा के मद में अपना अंशदान भी बंद कर दिया है. रियल इस्टेट के धंधे में होने वाले मोटे मुनाफे ने भी मिल मालिकों को मिलें बंद करने के लिए उकसाया है. हर मिल के पास काफी जमीन है जो उन लोगों ने सरकार से मिट्टी के मोल खरीदी थी. कई मिलों की खाली जमीन पर अब बहुमंजिली इमारतें खड़ी हैं. जो बची हैं उन पर भी धडल्ले से निर्माण कार्य चल रहा है.

जूट मिलों के बंद होने की खबर को अब न तो मीडिया गंभीरता से लेता है और न ही सरकार. आए दिन अखबारों के भीतरी पन्नों पर किसी न किसी मिल के बंद होने की छोटी-सी खबर छपती रहती है. लोग उसे पढ़कर भूल जाते हैं. मजदूरों का आक्रोश भड़कने पर कोई बड़ा हादसा होने की स्थिति में सरकार सक्रिय होती है और जांच के लिए आनन-फानन में कमिटी का गठन कर देती है. लेकिन उसके बाद मामला दब जाता है. हुगली या उत्तर 24-परगना जिले के उपनगरों में फैले इन जूट मजदूरों की किसी भी कॉलोनी में जाने पर सुनहरे अतीत की अनगिनत कहानियां फिजां में तैरती हुई मिल जाएंगी. लेकिन इन मजदूरों की जिंदगी पर अब अनिश्चित भविष्य की कालिमा छा चुकी है.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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