बाड़मेर: राजस्थान में पाकिस्तानी सीमा से सटे थार रेगिस्तान वाले जिले बाड़मेर में सब्जियों के हरे-भरे खेत या फलों के बाग पहले शायद ही कभी नजर आते हों.
सदियों से ही शुष्क मौसम और खारे भूजल ने यहां होने वाली फसलों की प्रकृति तय कर रखी थी. यहां की रेगिस्तानी परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए ज्यादातर बाजरा, चना और जीरा जैसी फसलें ही उगाई जाती थीं.
लेकिन, हाल के वर्षों में कृषि विज्ञान की मदद से बाड़मेर में किसानों को एक नई इबारत लिखी है, और तमाम किसान अनार, खजूर और अंजीर जैसे फलों के अलावा टमाटर, बैंगन, मिर्च और मूली आदि सब्जियों की खेती करने लगे हैं.
यही नहीं, धीरे-धीरे मछली पालन को भी अपनाया जा रहा और कई किसानों ने सी-फिश के अलावा रोहू और कार्प जैसी अन्य बड़ी किस्मों में भी हाथ आजमाया है.
यह सारा बदलाव राष्ट्रीय कृषि अनुसंधान केंद्र के तहत कृषि विज्ञान केंद्र (केवीके) के आउटरीच प्रोजेक्ट के जरिए ही संभव हो पाया है.
केवीके के कृषि वैज्ञानिकों ने बाड़मेर को उगानी जाने वाली फसलों में विविधता लाने में मदद की है और कई किसान इसका लाभ उठा रहे हैं—इससे उन्हें पारंपरिक फसलों को उगाने की तुलना में पांच गुना तक ज्यादा लाभ मिल रहा है.
केवीके के वैज्ञानिक किसानों के पास जाते हैं, उनकी जमीन पर भूजल का पीएच स्तर (पानी कितना अम्लीय है) जांचते हैं मिट्टी की गुणवत्ता का भी विश्लेषण करते हैं, और फिर उन्हें बताते हैं कि वहां उगाने के लिए उपयुक्त फसल कौन-सी है.
कम बारिश और खारा भूजल सदियों से बाड़मेर में किसानों के लिए सबसे बड़ी चुनौती रही है जिसे खेती के लिए अनुपयुक्त माना जाता है.
हालांकि कुछ क्षेत्रों में अब भी किसानों के पास सिंचाई का कोई उपयुक्त साधन नहीं है, जिसकी वजह से वे थोड़ी-बहुत बारिश पर ही निर्भर रहते हैं और ऐसे में केवल बाजरा और चने जैसी फसलें ही उगा रहे हैं. लेकिन दूसरी तरफ तमाम किसानों ने अब अनार और खजूर (2010 से), अंजीर और सब्जियां (पिछले दो-तीन वर्षों से) उगाना शुरू कर दिया है.
नई फसलें उगाने वाले कई किसानों ने आरओ (रिवर्स ऑस्मोसिस) सिस्टम स्थापित किया है, जबकि कुछ अन्य किसानों ने अच्छे पानी वाले क्षेत्रों में ड्रिप सिंचाई का सहारा लिया है. हालांकि, ये अभी केवल बड़े जोत वाले संपन्न किसानों तक ही सीमित है.
रेगिस्तानी क्षेत्र में ग्रामीणों की आय बढ़ाने के लिए वैज्ञानिक लॉबस्टर और झींगा मछली के साथ-साथ मीठे पानी में पाली जाने वाली रोहू और कार्प (कटला) मछली के पालन का प्रयोग भी कर रहे हैं.
अनार की खेती रंग लाई
जिले में अनार की खेती की शुरुआत 2010 में हुई. अब तक, यह फसल किसानों के लिए सबसे अधिक लाभदायक साबित हुई है. मौजूदा समय में जिले में ये फल करीब 10,000 हेक्टेयर में उगाया जाता है, और किसान अनार उगाकर जीरा और बाजरा जैसी पारंपरिक फसलों की तुलना में 10 गुना तक लाभ कमा रहे हैं.
अनार उगाकर जबर्दस्त फायदा हासिल करने वाले ऐसे ही एक किसान हैं राडवा गांव के रहने वाले गणपत सिंह. अभी उनके 28 एकड़ के खेत में अनार के 8,000 पौधे लगे हैं.
गणपत सिंह ने दिप्रिंट को बताया, ‘पहले, मैं केवल जीरा और बाजरा उगाता था लेकिन कुछ लाभ नहीं मिलता था. मेरी आधी आय तो उत्पादन की लागत होती ही थी. लेकिन अनार उगाना बहुत उपयोगी साबित हुआ. कृषि विज्ञान केंद्र व्यवस्थित तरीके से इसे उगाने में मेरी मदद करता है, इसलिए मेरी फसल निर्यात गुणवत्ता की है और मुझे अच्छी कीमत मिलती है.’ गणपत ने बताया कि जीरा उगाने के दौरान उनकी वार्षिक आय 2-3 लाख रुपये होती थी जो अनार के उत्पादन के कारण बढ़कर 9-10 लाख रुपये हो गई है.
केवीके के बागवानी विभाग में कार्यरत बी.आर. मोरवाल कहते हैं कि किसान इसी तरह मुनाफा बढ़ने की जानकारी दे रहे हैं क्योंकि जीरे की तुलना में अनार प्रति हेक्टेयर दो-तीन गुना अधिक लाभ देता है.
हालांकि, अनार उगाने में कुछ समस्याएं भी सामने आती है. मोरवाल ने समझाया, ‘तापमान ज्यादा होने और पानी बहुत खारा होने की स्थिति में अनार के फल में दरारें पड़ने लगती हैं, और यह नेमाटोड (राउंडवॉर्म) से ग्रसित हो जाता है.’
कृषि विज्ञान केंद्र के प्रमुख वैज्ञानिक डॉ. विनय कुमार ने कहा कि फलों के चिटकने की समस्या से निपटने के लिए जिले ने अनार की एक बहुत छोटी किस्म भगवा पर फोकस करना शुरू किया है.
एक और मुश्किल यह है कि जिले में फल की अच्छी कीमत नहीं मिलती. मोरवाल का कहना है कि इस समस्या को बेहतर मार्केटिंग के जरिए सुलझाया जा सकता है.
उन्होंने कहा, ‘चूंकि अनार थोक में उगाया जाता है, इसलिए किसानों को तब तक अच्छा मुनाफा नहीं हो पाता जब तक फसल निर्यात गुणवत्ता वाली न हो. इससे जुड़े व्यवसायों के यहां आने की जरूरत है, जैसे अनारदाना पाउडर, शराब, जूस…आदि की फैक्टरी. अगर ऐसी फैक्ट्रियां यहां आती हैं तो किसानों को 100 रुपये में पांच किलो फल बेचने के बजाये प्रति किलो 80-90 रुपये तक के दाम मिल सकते हैं.’
थार में मछली
डॉ. कुमार ने कहा कि चूंकि बाड़मेर में पानी खारा होना एक जमीनी हकीकत है, इसलिए जिले ने एक्वाकल्चर और यहां तक कि सी-फिश पालन का प्रयोग शुरू किया है.
उन्होंने कहा, ‘केवीके के स्वामित्व वाले एक तालाब में हमने झींगा, रोहू, कतला का पालन किया और प्रयोग सफल रहा. तीन वर्षों में पांच-पांच किलोग्राम की बड़ी मछलियां हो गईं.’
रोहिदा और बोई जैसे सुदूर सीमावर्ती गांवों में अभी केवल चार किसानों ने अपने तालाबों में अन्य समुद्री जीव पालना शुरू किया है. जबकि पहले उन्होंने सिर्फ झींगा के साथ ही प्रयोग किया था.
डॉ. कुमार ने बताया, ‘बाड़मेर में होता दरअसल यह है कि किसान ट्यूबवेल लगाने में काफी पैसे खर्च करते हैं और जब भूजल खारा निकलता है और खेती के लिए लायक नहीं रहता तो वे निराश हो जाते हैं. इसलिए, अब हम उन्हें राज्य की खेत तालाब योजना के तहत एक तालाब बनाने और खारे पानी में सी-फिश पालन के लिए प्रोत्साहित कर रहे हैं.’
कुमार ने कहा कि रोहिदा और बोई के मछली पालक किसान सीमा सुरक्षा बल (बीएसएफ) को ताजी मछलियां बेचते हैं और इससे अच्छा मुनाफा कमाते हैं.
हालांकि, बाड़मेर में मछली पालन का यह प्रयोग अभी अपने प्रारंभिक चरण में है.
खजूर और अंजीर
बाड़मेर में अनार के बाद सबसे लोकप्रिय फल की खेती खजूर की है, जिसे जिले भर में 400 हेक्टेयर में उगाया जाता है.
लेकिन इस फल का पकना बारिश के साथ जुड़ा है (यह गुणवत्ता को खराब कर देती है) और पेड़ को फल देने में तीन से पांच साल तक लगते हैं—इन्हीं दो कारणों से यह खेती अनार की तुलना में कम लोकप्रिय है.
मोरवाल ने बताया, ‘एक हेक्टेयर में लगभग 157 खजूर लगाए जाते हैं, जबकि इतने ही क्षेत्र में अनार के लगभग 887 पेड़ लगाए जा सकते हैं. इसलिए, किसान खजूर उगाना ज्यादा पसंद नहीं करते. हालांकि, इसकी खेती धीरे-धीरे बढ़ रही है और इसे 400 हेक्टेयर में उगाया जा गया है.’
जिले में अंजीर की खेती अभी दो साल पहले ही शुरू हुई है. केवीके के आंकड़ों के मुताबिक, इसे करीब 400-500 हेक्टेयर क्षेत्र में उगाया गया है, लेकिन वे निजी कंपनियों के सहयोग से फल उगाने वाले किसानों की संख्या के बारे में कुछ नहीं कह सकते.
मोरवाल ने कहा, ‘हम किसानों को 80 रुपये प्रति पौधे की कीमत पर हमसे पौधे खरीदने को कहते हैं, लेकिन निजी कंपनियां अधिक सहायता देती हैं और बेहतर दाम का भी वादा करती हैं, इसलिए उनमें से कुछ किसान उनके साथ मिलकर काम करते हैं.’
ऐसे ही एक किसान हैं गिदा रोड गांव के निवासी मागा राम. उन्होंने बताया, ‘सरकार ने मुझसे कभी किसी भी तरह संपर्क नहीं किया.’ मागा राम ने करीब एक साल पहले अंजीर उगाने शुरू किए और एक निजी कंपनी से 340 रुपये प्रति पौधे की दर पर पौधे खरीदे थे. उन्हें आने वाले समय में अच्छे फायदे की उम्मीद है.
उन्होंने कहा, ‘लॉकडाउन के बाद से बाजार में जीरे की कीमतें नीचे आ गई हैं. यह 250 रुपये किलो से गिरकर 115 रुपये प्रति किलो ही रह गई है. इससे मुझे कोई खास कमाई नहीं होती है, और इसे उगाने में जोखिम भी रहता है क्योंकि फसल बहुत जल्दी खराब होती है. इसलिए मैंने अब अंजीर की खेती शुरू की है, देखते हैं इससे मुझे कितना फायदा होता है.’
मोरवाल ने आगे कहा कि हालांकि खजूर की खेती की शुरुआत सीमावर्ती जिले जैसलमेर में हुई है, लेकिन इसे करीब एक दशक पहले बाड़मेर में भी शुरू किया गया.
डॉ. कुमार ने कहा कि पारंपरिक रूप से यहां कभी अंजीर नहीं उगाए जाते थे, लेकिन चूंकि शुष्क पारिस्थितिकी इसकी खेती के लिए उपयुक्त है, इसलिए राज्य ने एक-दो साल पहले इस पर प्रयोग का फैसला किया और नतीजे काफी अच्छे रहे हैं.
बैंगन और टमाटर
बाड़मेर में दबे पांव आई एक और कृषि क्रांति सब्जियों की खेती से जुड़ी है. जिले में दो साल पहले जहां कम खेती होती थी, वहीं अब बैंगन, टमाटर, मिर्च और मूली जैसी सब्जियां उगाई जा रही हैं.
मोरवाल ने कहा, ‘बाड़मेर में एक छोटा-सा गांव शिवकर था जहां सब्जियों की खेती होती थी. अब, हम पीएच स्तर देखते हैं और किसान की भूमि (मिट्टी) का विश्लेषण करते हैं और उन्हें सलाह देते हैं कि कौन-सी सब्जियां उगाएं. दो साल में यह कवायद इतनी सफल रही है कि बाड़मेर अब सब्जियों के मामले में आत्मनिर्भर हो गया है. पहले यहां सब कुछ पड़ोसी राज्य गुजरात से लाया जाता था.
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