नई दिल्ली: यौन अपराध के मामलों की सुनवाई में तेजी लाने के लिए मोदी सरकार द्वारा विशेष फास्ट-ट्रैक अदालतों (FTSCs) की स्थापना के लिए अपनी केंद्र प्रायोजित योजना को जारी रखने की संभावना है. दिप्रिंट को यह जानकारी मिली है.
केंद्रीय कानून और न्याय मंत्रालय के वरिष्ठ अधिकारियों ने दिप्रिंट को बताया कि न्याय विभाग (डीओजे) ने अपने प्रस्ताव को अंतिम रूप दे दिया है और इसे मंजूरी के लिए केंद्रीय महिला और बाल विकास मंत्रालय (डब्ल्यूसीडी) को भेज दिया है.
डीओजे में कार्यरत एक अधिकारी ने कहा, ‘इस योजना के लिए पैसे निर्भया फंड से आवंटित किया जाता है, जिसे दिसंबर 2012 की घटना के बाद स्थापित किया गया था. जिसमें दक्षिण-पश्चिम दिल्ली में एक चलती बस में एक महिला के साथ क्रूरतापूर्वक गैंगरेप किया गया था और मारपीट में लगी चोटों के कारण उसकी मौत हो गई थी. इसलिए, इससे पहले कि हम इसे लागू करने के लिए आगे बढ़े, डब्ल्यूसीडी की मंजूरी की जरूरत है.’
उन्होंने कहा कि 31 मार्च 2023 को समाप्त होने वाली इस योजना को तीन साल के लिए बढ़ाया जाएगा और अगर मंजूरी मिल जाती है तो इसका कुल परिव्यय 2,600 करोड़ रुपये होगा.
डीओजे के एक दूसरे अधिकारी ने रेखांकित किया कि यह योजना हजारों मामलों को निपटाने में प्रभावी रही है.
पॉक्सो सहित यौन उत्पीड़न के 3.5 लाख से अधिक मामले अंतिम निर्णय के लिए पेंडिंग हैं. 2020 से एफटीएससी ने इस श्रेणी में आने वाले 1.44 लाख मामलों का फैसला किया है.
FTSC योजना के तहत, केंद्र सरकार को अदालतों के खर्च का 60 प्रतिशत निधि देना आवश्यक है, जबकि संबंधित राज्य सरकारें शेष 40 प्रतिशत का योगदान करती हैं.
एफटीएससी की शुरुआत अप्रैल 2019 में आपराधिक कानून में संशोधन के बाद हुई थी, जिसमें यौन अपराधों के लिए कड़ी सजा और ऐसे मामलों में सुनवाई पूरी करने के लिए दो महीने की समय सीमा तय की गई थी.
योजना ने 31 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में 1,023 एफटीएससी प्रस्तावित किए थे, जबकि 28 में से केवल 765 काम कर रहे हैं. इनमें से 418 POCSO (यौन अपराधों से बच्चों का संरक्षण) अदालतें हैं. प्रारंभ में, यह योजना 767.25 करोड़ रुपये के कुल परिव्यय के साथ दो वित्तीय वर्षों में फैली हुई थी.
इसके बाद, इस योजना का मूल्यांकन एक बाहरी एजेंसी – राष्ट्रीय उत्पादकता परिषद – द्वारा किया गया, जिसने सिफारिश की कि इसे अगले दो वर्षों तक जारी रखा जाना चाहिए. इस सलाह पर अमल करते हुए, कानून मंत्रालय ने 1,572 करोड़ रुपये के कुल परिव्यय के साथ इस योजना को मार्च 2023 तक बढ़ा दिया.
डीओजे के दूसरे अधिकारी ने कहा, ’31 मार्च, 2023 की समय सीमा नजदीक आ रही थी, इसलिए विभाग ने एक बार फिर एफटीएससी की प्रभावकारिता का अध्ययन करने का फैसला किया और इसके लिए भारतीय लोक प्रशासन संस्थान (आईआईपीए) की मदद लीं.’
उन्होंने कहा कि आईआईपीए ने अपनी ड्राफ्ट रिपोर्ट में एफटीएससी की मौजूदा स्थापना को जारी रखने की आवश्यकता पर बल दिया है. इस बीच, 15वें वित्त आयोग (FC) की रिपोर्ट में भी बलात्कार और POCSO मामलों को प्राथमिकता देने की बात कही गई और सुझाव दिया गया कि FTSCs मार्च 2026 तक काम करते रहें.
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एक ‘सफलता’, लेकिन पीछे है अन्य राज्य
डीओजे के दूसरे अधिकारी ने कहा, वित्त आयोग की सलाह के साथ-साथ फास्ट-ट्रैक अदालतों की ‘सफलता’ ने उनके कार्यकाल को और तीन साल के लिए बढ़ाने का प्रस्ताव दिया.
उन्होंने कहा, ‘इन विशेष अदालतों की सफलता और आईआईपीए के समर्थन के मूल्यांकन को देखते हुए, कानून मंत्रालय ने इस योजना को मार्च 2026 तक जारी रखने का फैसला किया.’
उन्होंने यह भी कहा कि योजना के इस चरण में, मंत्रालय राज्यों को उनके संबंधित अधिकार क्षेत्र के लिए निर्धारित सभी अदालतों को स्थापित करने के लिए मनाने की दिशा में भी काम करेगा.
अब तक, अधिकांश राज्यों में सभी एफटीएससी कार्य कर रहे हैं. हालांकि, चार राज्यों – महाराष्ट्र, बिहार, आंध्र प्रदेश और असम – को अभी भी उन सभी अदालतों का संचालन करना है जो उन्हें आवंटित की गई थीं. इसके अलावा, पश्चिम बंगाल और अरुणाचल प्रदेश ने एक भी एफटीएससी स्थापित नहीं किया है.
पहले डीओजे अधिकारी ने कहा, ‘इस योजना ने महाराष्ट्र में 138 FTSCs की परिकल्पना की थी. लेकिन अब तक, उन्होंने केवल 100 की शुरुआत की है. बिहार, आंध्र प्रदेश और असम भी अपने लक्ष्य से पीछे हैं, लेकिन यह अंतर महाराष्ट्र जितना नहीं है.’
कानून मंत्रालय के अधिकारियों ने दावा किया कि महाराष्ट्र, बिहार, आंध्र प्रदेश और असम ने सभी एफटीएससी शुरू करने में सक्षम नहीं होने के कारण मैनपावर की कमी का हवाला दिया है, जबकि पश्चिम बंगाल और अरुणाचल प्रदेश इस मुद्दे पर चुप हैं.
डीओजे के पहले अधिकारी के अनुसार, प्रत्येक राज्य के लिए एफटीएससी की संख्या लंबित मामलों के आधार पर निर्धारित की गई थी.
अधिकारी ने कहा, एक अध्ययन उस समय किया गया था जब 2018 में योजना तैयार की जा रही थी. तब यह देखा गया था कि प्रत्येक सत्र न्यायालय सालाना 168 मामलों को निपटाने में सक्षम था. इसलिए, जिस योजना पर अंतिम रूप से काम किया गया था, उसमें प्रत्येक एफटीएससी को 165 मामले आवंटित किए गए थे और प्रत्येक राज्य में ऐसी अदालतों की संख्या की योजना बनाई गई थी.
अपने बजट आवंटन में, मंत्रालय ने प्रत्येक अदालत कक्ष को चलाने के लिए वार्षिक लागत के रूप में 75 लाख रुपये आवंटित किये. इस बजट में 84 फीसदी पीठासीन अधिकारी और कोर्ट स्टाफ के वेतन भुगतान के लिए आरक्षित है. इस योजना में प्रत्येक FTSC के लिए एक न्यायिक अधिकारी और सात अदालती कर्मचारी शामिल हैं.
यह सुनिश्चित करने के लिए कि योजना के उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए न्यायाधीशों और अदालती कर्मचारियों की नियुक्ति एक बाधा नहीं बने, मंत्रालय ने राज्यों को रिटायर्ड न्यायिक अधिकारियों और कर्मचारियों की सहायता लेने की भी अनुमति दी थी.
इस योजना में कारगर बनाने के लिए राज्यों को इन अदालतों को चलाने के लिए परिसर किराए पर लेने की अनुमति भी दी गई है, अगर मौजूदा सुविधाएं एफटीएससी को समायोजित नहीं कर सकती हैं.
अधिकारी ने कहा, ‘हालांकि, ऐसा प्रतीत होता है कि राज्य योजना में प्रदान की गई इन अंतरिम व्यवस्थाओं का पालन करने में अनिच्छुक हैं.’
आईआईपीए द्वारा तीसरे पक्ष के मूल्यांकन ने भी प्रक्रियात्मक खामियों की ओर इशारा किया है जो योजना को एक पूर्ण सफलता दर प्राप्त करने से रोक रहे हैं. इनमें बलात्कार के मामलों में समय पर जांच रिपोर्ट, फोरेंसिक दस्तावेज और डीएनए रिपोर्ट जमा करने में देरी शामिल है.
कानून मंत्रालय के अधिकारियों ने कहा, अन्य चुनौतियां इन अदालतों में विशेष सरकारी वकील नियुक्त करने और पीड़ितों को अनुकूल वातावरण प्रदान करने से संबंधित हैं. उन्होंने कहा, ‘बहुत कम राज्य हैं जिन्होंने इसपर काम किया है. योजना के जरिये इसके वास्तविक उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए राज्यों द्वारा अधिक ध्यान देने की आवश्यकता है.’
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