नई दिल्ली: केंद्र सरकार द्वारा चलाई जा रही प्रधानमंत्री मातृ वंदना योजना (पीएमएमवीवाई) से जुड़ी कई ख़ामिया निकल कर सामने आई हैं. गुजरात और मध्य प्रदेश जैसे राज्यों में इससे जुड़े रजिस्ट्रेशन फ़ॉर्म भरते समय आधार को बड़ी समस्या बताया गया. कहा जा रहा है कि उत्तर प्रदेश में फॉर्म भरवाने के लिए हर फॉर्म पर 500 रुपए की मांग होती है.
महिलाओं को तुरंत मातृत्व का लाभ मिले इसे लेकर इंडियन विमेंस प्रेस क्लब (आईडब्ल्यूपीसी) में एक चर्चा के दौरान मातृत्व सुरक्षा से जुड़ी केंद्र और राज्यों की नीतियों और योजनाओं से जुड़ी गंभीर ख़ामिया निकलकर सामने आईं.
मध्य प्रदेश में राइट टू फ़ूड कैंपेन से जुड़ी अंजलि आचार्य ने कहा, ‘ज़मीनी स्थिति जानने के लिए हमने 177 महिलाओं पर किए गए एक प्रयोग से पता चला कि 144 का पीएमएमवीवाई फ़ॉर्म नहीं भरा गया. इसमें आधार सबसे बड़ी समस्या है और फ़ॉर्म भरने वाले को रसीद भी नहीं मिलती. ऊपर से 2018 के बाद के डाटा पर लॉक लगा दिया है. अब हमें आरटीआई से जानकारी लेनी पड़ती है.’
इस दौरान बताया गया कि 2013 में पास हुए खाद्य सुरक्षा कानून के तहत प्रेग्नेंट महिलाओं को हर महीने 6000 रुपए मिलने थे. लेकिन 2016 में केंद्र सरकार पीएमएमवीवाई लेकर आई जिसे कई जगहों पर ठीक से लागू किया जाना है. साथ हीं महिलाओं को मिलने वाली रकम घटाकर 5000 कर दी गई.
कहा गया कि मातृत्व लाभ कानून को 2017 में संशोधित कर कामकाजी महिलाओं को 26 हफ़्ते की छुट्टी का प्रावधान किया गया. लेकिन इसमें वो 95 प्रतिशत महिलाएं छूट गईं जो असंगठित क्षेत्र में काम करती हैं. राइट टू फ़ूड कैंपेन से जुड़े लोगों ने कहा कि देश के पोषण डाटा में सुधार नहीं हुआ. उल्टे पीएमएमवीवाई को एक ‘संस्कारी योजना’ बना दिया गया.
‘संस्कारी योजना’ का मतलब ये बताया गया कि योजना भले ही महिलाओं के लिए हैं लेकिन इससे जुड़े जो फॉर्म भरवाए जाते हैं उनमें महिला के साथ पति का आधार, राशन कार्ड पर दोनों के नाम जैसी मांगें की जाती हैं.
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राइट टू फूड के लिए गुजरात में काम कर रहीं सीमा शाह ने कहा, ‘गुजरात में पीएम मातृ वंदना योजना महज़ पहले बच्चे के लिए होती है. पंचमहल और दाहोद जैसे आदिवासी इलाकों में फ़ॉर्म भरने वालों को पर्ची नहीं मिलती.’
इसे ‘संस्कारी योजना’ बताते हुए उन्होंने कहा कि 18 साल से कम की लड़कियां अगर प्रेग्नेंट हो जाती हैं तो डर के मारे खुद को रजिस्टर नहीं करवाती जबकि कुपोषण के मामले में गुजरात के दाहोद की हालत बहुत ख़राब है.
बदनामी के डर से रेड लाइट इलाकों की महिलाओं को किसी टीके का पता नहीं चल पाता. सेक्स वर्करों के पास अबॉर्शन का कोई विकल्प नहीं होता. मातृत्व भत्ता तो इनके लिए सपने जैसा है क्योंकि बच्चे के पिता का नाम नहीं होता और कोई दस्तावेज नहीं होते. ऐसे में इन महिलाओं को सबकुछ निजी क्षेत्रों से लेना पड़ता है.
सेक्स वर्करों से जुड़े एक एनजीओ एआईएनएसडब्ल्यू की अध्यक्ष कुसुम ने कहा, ‘आंगनवाड़ी वालों का एजेंडा है कि वो इन इलाक़ों में नहीं जाना चाहतीं. पीएमएमवीवाई को चरित्र के दायरे में बांध दिया गया है. जो महिलाएं ‘सही चरित्र’ की नहीं होतीं उन्हें योजना का लाभ नहीं मिलता.’ उन्होंने कहा कि इसमें पति का नहीं होना एक बड़ी बाधा है.
नेशनल फेडरेशन ऑफ इंडियन वूमेन की एनी राजा ने कहा, ‘प्रधानमंत्री मातृ वंदना योजना के तहत पहले बच्चे के लिए लाभ मिलता है वो भी तब जब महिला 19 साल से ऊपर की हो जबकि 35% महिलाएं 18 से कम उम्र में मां बनती हैं. काग़ज़ी काम में 10 महीने में निकल जाते हैं.’
इस दौरान कहा गया कि मातृत्व को हमेशा बच्चे की देखभाल से जोड़ा जाता है. लेकिन ये निजी नहीं बल्कि सामाजिक मुद्दा है. आज़ादी के इतने सालों बाद भी कुषोषण और भुखमरी का मुद्दा बना हुआ है. ग्लोबल हंगर इंडेक्स में भारत 102वें नंबर पर है. कहा गया कि प्रेगनेंसी के दौरान मिनिमम वेज के तौर पर कम से कम 25,000 रुपए महीने मिलने चाहिए ताकि एक महिला अपने बूते अपना पोषण कर सके और असंगठित-क्षेत्र में काम कर रही महिलाओं को मातृत्व अवकाश मिले.