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Friday, 19 April, 2024
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बच्चों को वापस स्कूल भेजने को लेकर लगातार चिंता में हैं अभिभावक और इसकी वजह सिर्फ कोविड ही नहीं है

विभिन्न शहरों के शिक्षकों का कहना है कि महामारी के बाद भी अभिभावकों में बरकरार चिंता बच्चों की बड़ी संख्या में शारीरिक उपस्थिति वाली कक्षाओं से दूर रख रही है. हालांकि विशेषज्ञ सब से स्कूलों में लौटने का आग्रह करते हैं.

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नई दिल्ली: कोरोना महामारी के कारण उत्तर प्रदेश में लम्बे समय की स्कूल बंदी की वजह से छोटे छात्रों के लिए काफी अरसे तक चलने वाली वर्चुअल स्टडी के उपरांत सिंतबर महीने में शारीरिक उपस्थिति वाली कक्षाओं के दुबारा शुरू होने के बाद नोएडा के 10 वर्षीय छात्र जनमेजय सिंह ने सिर्फ 10 दिनों के लिए कक्षाओं में भाग लिया. साल के अंत में एक तीसरी कोविड लहर की आशंकाओं ने उसके माता-पिता – सुनीता और संतोष – को उसे स्कूल भेजने के प्रति फिर से अनिच्छुक बना दिया है.

पास ही के शहर दिल्ली में 12 साल की एक बेटी की अभिभावक स्मिता मोहन भी अपनी बच्ची को स्कूल भेजने से उतना ही डरती हैं. वे कहती हैं, ‘जिस तरह की भयावहता हम सभी ने दूसरी (कोविड) लहर में देखी है, वह हमें जीवन भर के लिए सतर्क रहने को मजबूर करने के लिए पर्याप्त है. मुझे अपने बच्चे के कुछ और महीनों के लिए ऑनलाइन कक्षाओं में ही भाग लेते रहने से कोई फर्क नहीं पड़ता … मैं शहर (दिल्ली) में कोविड के मामलों पर दिवाली के बाद पड़ने वाले प्रभाव को लेकर चिंतित हूं.‘

सिंह और मोहन ऐसे अकेले माता-पिता नहीं हैं जिन्हें इस बात का डर सता रहा है कि क्या अपने बच्चों को स्कूल भेजना सुरक्षित है? मौखिक रूप से प्राप्त कई साक्ष्य बताते हैं कि अभिभावक कोरोना महामारी के बाद से अभिभावक अपने बच्चों के स्वास्थ्य के बारे में अधिक सतर्क हो गए हैं, और स्कूल से उनकी अनुपस्थिति पहले की तुलना में अधिक आम बात हो गई है.

स्प्रिंगडेल्स स्कूल, दिल्ली की प्रधान अध्यापिका (प्रिंसिपल) अमीता मुल्ला वट्टल ने भी माना कि उन्होंने अपने बच्चों के स्वास्थ्य के बारे में अभिभावकों के बीच बढ़ती हुई चिंता को देखा है. वट्टल का कहना है की कोविड -19 के बाद बच्चों के माता-पिता बहुत अधिक सतर्क हो गए हैं … वे उन्हें हर चीज के डर से स्कूल भेजना बंद करना चाहते हैं, चाहे वह शहर में फैला डेंगू का प्रकोप हो, या बढ़ता वायु प्रदूषण.’

अभिभावकों से अपने डर को दूर करने और अपने बच्चों को स्कूलों में भेजने का आग्रह करते हुए, उन्होंने कहा, ‘उन्हें (अभिभावकों) को अपनी मानसिकता बदलने की जरूरत है और उन्हें यह महसूस करना होगा कि अगर लगातार ऐसे ही व्यवधान होता रहता है तो इस तरह की पढ़ाई से लंबे समय में बच्चों की सीखने की क्षमता प्रभावित होगी.’

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दिल्ली में कक्षा 9-12 के छात्रों के लिए 1 सितंबर से और बाकी सभी कक्षाओं के लिए 1 नवंबर से स्कूल फिर से खुल गए हैं. कक्षाएं हाइब्रिड मोड में हैं, जिसका अर्थ है कि घर से अध्ययन करने के इच्छुक बच्चों के लिए ऑनलाइन कक्षाएं जारी रहेंगीं.

हालांकि, दिल्ली सरकार द्वारा शहर में वायु प्रदूषण से निपटने के लिए एक योजना तैयार करने वाली आपात बैठक के बाद सोमवार से राष्ट्रीय राजधानी में स्कूलों को फिर से एक सप्ताह के लिए बंद कर दिया गया था. दिल्ली हाल के वर्षों में यहां फैले सबसे खराब डेंगू प्रकोपों में से एक का भी सामना कर रही है – और इन्हीं सब वजहों का मिलाजुला प्रभाव सभी अभिभावकों द्वारा अपने बच्चों को स्कूलों में भेजने के प्रति अनिच्छा दिखाने में योगदान दे रहा है.

हालांकि, देश में दिल्ली ही अकेली ऐसी जगह नहीं है जहां बच्चों के अभिभावक इस तरह की चिंताएं प्रदर्शित कर रहे हैं. शिक्षाविदों और स्वास्थ्य विशेषज्ञों द्वारा सभी कक्षाओं और आयु समूहों के छात्रों के लिए स्कूलों में अतिशीघ्र वापसी का आग्रह किये जाने के बावजूद, देश के अन्य कई हिस्सों से भी बच्चों को स्कूलों से दूर रखे जाने की खबरें आई हैं.


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दिल्ली के बाहर के अभिभावकों को कौन से चीजें परेशान कर रहीं हैं?

कोविड के बाद से अभिभावकों में आशंका और चिंता का एक नया स्तर देखा जा सकता है. ऑर्किड इंटरनेशनल स्कूल, यारी रोड, मुंबई के प्रिंसिपल (प्रधान अध्यापक) अर्जुमंद झांझरिया कहते हैं, ‘अभिभावक अपने बच्चों को स्कूल नहीं भेजना चाहते. इस साल की शुरुआत में हमने जिस तरह की महामारी देखी है, उसे देखते हुए कुछ हद तक उनकी चिंताएं जायज भी है.’

हालांकि उन्होंने आगे यह भी कहा, ‘यदि स्कूल सुरक्षा के उचित उपाय करते हैं और स्वास्थ्य अधिकारियों द्वारा निर्धारित दिशानिर्देशों का पालन करते हैं, तो यह अभिभावकों में अपने बच्चों की सुरक्षा के संबंध में विश्वास पैदा करेगा’.

अभिभावकों के विश्वास की वापसी के प्रति उनकी यह आस्था मुंबई की एक अभिभावक अनीता राघवन, जिनके दो बच्चे हैं – एक 9 साल की बेटी और एक 15 साल का बेटा – द्वारा व्यक्त की गई चिंता से विरोधाभासी सा नजर आता है.

जबकि राघवन ने किसी तरह अपने बेटे को स्कूल भेजने के साथ तो समझौता कर लिया है, लेकिन उन्हें अभी भी अपनी बेटी के लिए ऐसा करने के हेतु पर्याप्त आत्मविश्वास हासिल करना बाकी है. यहां तक कि उनकी बेटी को वायरल फीवर, या कोई अन्य संक्रमण जो कोविड नहीं भी हो, होने की संभावना, उन्हें चिंतित कर देती है.

वे कहती हैं, ‘स्कूल ने ऑनलाइन कक्षाओं को जारी रखने का विकल्प दिया है और मैं अपनी छोटी बच्ची को स्कूल भेजने से पहले कुछ महीने और इंतजार करना चाहूंगी. वैसे भी यह वायरल फीवर और अन्य संक्रमणों का मौसम है, मैं अपने बच्चे के स्वास्थ्य को जोखिम में नहीं डालना चाहती.’

उनके इस डर को भोपाल की एक मां सीमा शर्मा ने भी साझा किया, जिन्होंने अपनी दो बेटियों को स्कूल भेजना बंद कर दिया, क्योंकि उनके कुछ साथी छात्रों को वायरल बुखार हो गया था.

वे बताती हैं, ‘मेरी बड़ी बेटी की कक्षा के तीन बच्चे वायरल फीवर से पीड़ित हो गए थे और दो सप्ताह से गंभीर रूप से बीमार थे. यह दिवाली से पहले की बात है… उसके बाद मैंने अपनी दोनों बेटियों को स्कूल भेजना बंद कर दिया है. मैं उन्हें अब अगले महीने से ही स्कूल भेजूंगी.’

हालांकि अभिभावकों की यह चिंता स्कूलों में छात्रों की उपस्थिति सुनिश्चित करने के लिए संघर्ष कर रहे शिक्षकों के लिए चिंता का सबब बनती जा रही है.

भोपाल के कार्मेल कॉन्वेंट स्कूल की एक शिक्षिका ने अपना नाम न छापने की शर्त पर कहा कि वे अति-सतर्क अभिभावकों की वजह से संघर्ष कर रहीं हैं, जो अपने बच्चों को महामारी से पहले की तुलना में स्कूल जाने से ज्यादा रोक रहे हैं.

बे कहती हैं, ‘स्कूल के दुबारा खुलने के बाद से ही हम अति-सतर्क अभिभावकों की वजह से संघर्ष कर रहे हैं… पहले वे कोविड प्रोटोकॉल के बारे में आशंकित थे, जिनका अनुपालन हमने सुनिश्चित किया है. अब ऐसे भी अभिभावक हैं जो बच्चों के डेंगू, चिकनगुनिया, वायरल बुखार – जो साल के इस समय पर होने वाली आम बीमारियां हैं – से संक्रमित होने से डरते हैं और इस डर से बच्चों को स्कुल भेजना बंद करना चाहते हैं कि कहीं वे स्कूल में इस बीमारी से ग्रस्त न हो जाएं.’

शिक्षकों ने कहा कि जिन राज्यों में स्कूल में उपस्थिति वैकल्पिक है, वहां कई अभिभावक अभी भी अपने बच्चों के लिए ऑनलाइन मॉडल के विकल्प का ही चयन कर रहे हैं.

दिल्ली पब्लिक स्कूल, सूरत के प्रिंसिपल वामसी कृष्णा ने कहा, ‘गुजरात में (छात्रों की) उपस्थिति वैकल्पिक है और बहुत से अभिभावक अभी भी अपने बच्चों को ऑनलाइन मोड के माध्यम से पढ़ाने का विकल्प चुन रहे हैं.स्कूलों के फिर से खुलने के बाद से हमें उपस्थिति के मामले में किसी भी बड़ी समस्या का सामना नहीं करना पड़ा है, लेकिन ऐसा इसलिए भी है क्योंकि माता-पिता को अपने बच्चों को स्कूल नहीं भेजने की भी स्वतंत्रता है.’


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विशेषज्ञ स्कूलों में (बच्चो की) वापसी का आग्रह करते हैं

इस बीच, विशेषज्ञों का मानना है कि अभिभावकों और बच्चों द्वारा शारीरिक उपस्थिति वाली कक्षाओं में अपने आप को वापस ढालने में सक्षम होने के बाद ही उनकी चिंताएं कम होंगी.

राघवेंद्र प्रसाद, जो प्रोजेक्ट स्टेपवन, प्रौद्योगिकी और स्वास्थ्य सेवा पेशेवरों के एक गैर-लाभकारी सामूहिक स्टार्ट-अप, के संस्थापक हैं, ने दिप्रिंट को बताया, ‘महामारी के बाद त्योहारों के मौसम में कोरोना की एक और लहर के डर एवं अनिश्चितता, बच्चों को लगने वाले टीकों में देरी, और स्कूलों के भ्रमित करने वाले कोविड प्रोटोकॉल ने निश्चित रूप से अभिभावकों के बीच एक व्यामोह (पैरानोइया) वाली स्थिति पैदा कर दी है. कई लोग अपने बच्चों को स्कूल भेजने से पहले दिवाली के बाद कुछ हफ्तों तक इंतजार करने का तरीका अपना रहे हैं. हालांकि, जब बच्चे स्कूल जाना शुरू करेंगे और परिवार उनकी नई दिनचर्या में बस जाएंगे, तब ये शुरुआती डर स्वतः दूर हो जाएंगे.’

नेशनल कोएलिशन ऑन द एजुकेशन इमरजेंसी, देश भर के शिक्षाविदों और स्वास्थ्य विशेषज्ञों का एक और समूह भी नियमित रूप से शारीरिक उपस्थिति वाली कक्षाओं में लौटने के महत्व के बारे में बात कर रहा है. समूह ने उन अंतरालों पर भी प्रकाश डाला है जो महामारी के कारण स्कूलों के 18 महीनों तक बंद रहने के दौरान पैदा हुए हैं और इस बारे में भी बताया है कि उन्हें हल करने के लिए क्या कुछ करने की आवश्यकता है.

(इस ख़बर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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