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Friday, 19 April, 2024
होमदेशकैम्ब्रिज में भारतीय स्कॉलर ने पाणिनि के ग्रंथों में 2,500 साल पुरानी संस्कृत एल्गोरिदम की गुत्थी सुलझाई

कैम्ब्रिज में भारतीय स्कॉलर ने पाणिनि के ग्रंथों में 2,500 साल पुरानी संस्कृत एल्गोरिदम की गुत्थी सुलझाई

पाणिनि के संस्कृत व्याकरण में परस्पर विरोधाभासी नियम दिखते हैं जो सदियों से विद्वानों को भ्रमित करते रहे हैं. लेकिन अब, एक शोधकर्ता ने दर्शाया है कि कैसे ये एल्गोरिदम बिना त्रुटियों के सही शब्द और वाक्य संरचना करते हैं.

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बेंगलुरु: कैम्ब्रिज के सेंट जॉन्स कॉलेज में एशियन एंड मिडल ईस्टर्न स्टडीज फैकल्टी में पीएचडी स्कॉलर ऋषि अतुल राजपोपट ने प्राचीन संस्कृत विद्वान पाणिनि के लिए ग्रंथों से उपजी व्याकरण संबंधी समस्या सुलझाने में सफलता हासिल की है.

पाणिनि के ग्रंथ अष्टाध्यायी—जिसमें मूल शब्दों से नए शब्द गढ़ने या बनाने संबंधी नियमों का एक पूरा समूह दिया गया है, में अक्सर नए शब्द बनाने से जुड़े नियम परस्पर विरोधी नजर आते हैं. इससे तमाम विद्वान इस बात को लेकर भ्रमित रहते हैं कि आखिर किन नियमों का उपयोग करना है.

इस ग्रंथ में भाषाई एल्गोरिदम की जटिलता को सुलझाने में कई विद्वानों की रुचि रही है. सूत्रों में इस तरह के विरोधाभास को दूर करने के लिए खुद पाणिनि ने एक असिद्ध नियम बनाया था, जिसकी अब तक की व्याख्या में विद्वानों ने पाया कि एक समान महत्व वाले दो सूत्रों के बीच विरोधाभास की स्थिति में व्याकरण क्रम में बाद में आने वाला सूत्र लागू होगा.

अपने शोध में राजपोपट ने तर्क दिया है कि इस असिद्ध नियम को ऐतिहासिक रूप से गलत समझा गया था—इसके बजाये, पाणिनि का मतलब किसी शब्द के बाएं और दाएं पक्ष पर लागू होने वाले नियमों से था और वह चाहते थे कि पाठक दाईं ओर लागू होने वाले नियम को चुने.

इस तर्क के साथ, राजपोपट ने पाया कि पाणिनि का एल्गोरिदम बिना किसी त्रुटि के व्याकरण के लिहाज से सही शब्दों और वाक्यों का निर्माण करते हैं.

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उदाहरण के तौर पर, एक वाक्य ज्ञानम् दियाते गुरुना—अर्थात ज्ञान गुरु द्वारा दिया जाता है—में गुरुना शब्द बनाने में नियम संबंधी विरोधाभास दिखता है, जिसका अर्थ है ‘गुरु द्वारा’ और यह एक ज्ञात शब्द है.

इस शब्द में मूल में शामिल है गुरु+आ, और पाणिनि के सूत्रों के मुताबिक एक नया शब्द, जिसका अर्थ ‘गुरु द्वारा’ होगा, बनाने के दो नियम लागू होते हैं—एक गुरु शब्द के लिए, और एक आ के लिए. इसका समाधान उस नियम को चुनकर किया जाता है जो दाईं ओर के शब्द पर लागू होता है, जिसके परिणामस्वरूप सही नया रूप गुरुना बनता है.

राजपोपट का शोध ढाई सहस्राब्दी के दौरान विद्वानों के निकाले निष्कर्षों को खारिज करता है.

तमाम विद्वानों ने पाणिनी के सूत्रों की जटिलताएं सुलझाने की कोशिश की, जिनमें जयादित्य और वामन का भाष्य ग्रंथ काशिकावती भी शामिल है. पतंजलि ने अपने महाभाष्य में और कात्यायन ने अपने वार्तिकाकार में भी यही कोशिश की है.


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पाणिनी के एल्गोरिथम ग्रंथ

निश्चित तौर पर अपने समय के भाषाविद् रहे पाणिनि ने संस्कृत व्याकरण पर गहरी पकड़ के साथ व्यापक ग्रंथ लिखे हैं.

अष्टाध्यायी—जैसा नाम से ही जाहिर है कि यह आठ खंडों वाला ग्रंथ हैं—में वह किस मूल शब्द के रूपांतरों को इस तरह से बनाने वाले नियमों की व्याख्या करते हैं कि वे संस्कृत के नियमों के मुताबिक व्याकरण और वाक्य-विन्यास की दृष्टि से सही हों. इसमें नए शब्द को गढ़ने के व्याकरण संबंधी नियम शामिल हैं, जैसे संधि या दो शब्दों को जोड़कर एक तीसरा शब्द रचना.

कुल मिलाकर, इस ग्रंथ में लगभग 4,000 नियमों को सूत्र के रूप में संकलित किया गया है, और प्रत्येक खंड एक क्रमवार विधि—एल्गोरिदम से हर स्तर पर जांच—के जरिये शब्दों को गढ़ने और बनाने का तरीका रेखांकित करता है. लेकिन सूत्र हमेशा अपने अर्थ में स्पष्ट नहीं होते. चूंकि वे संक्षिप्त हैं और सीमित शब्दों से बने हैं, इसलिए आधुनिक पाठक उनसे भ्रमित हो सकते हैं.

इसके अलावा, ये सूत्र अकेले भी नहीं हैं—प्रत्येक सूत्र में भाषाई आधार पर नियमों का एक पूर्ववर्ती समूह लागू होता है जिसे अनुवृत्ति कहा जाता है, यानी अगले नियम की निरंतरता. इसका मतलब है कि सूत्र में पूर्व में इस्तेमाल शब्द और उनका संदर्भ खोजने के संकेतक समाहित हैं.

कभी, इसे लेकर भ्रम की स्थिति खड़ी हो जाती है कि क्या कोई सूत्र पिछले नियमों का संदर्भ देता है, तो कभी-कभी, यह स्पष्ट नहीं हो पाता कि किसी नियम को अगले नियम तक जारी रखने की आवश्यकता है या नहीं. अधिकांशत: जब किसी नियम को उसके अर्थ में समझा जाता है, तब भी यह स्पष्ट नहीं होता है कि इसे कहां लागू किया जाए.

शायद सबसे अधिक भ्रमित करने वाली बात यह है कि जब किसी भाषाविद् को यह पता भी होता है कि किसी नियम को कहां लागू करना है, तो उसी चरण में दूसरा परस्पर विरोधाभासी नियम भी लागू हो जाता है. इससे एक नियम दूसरे को बाधित कर देता है, या दोनों एक-दूसरे को काट देते हैं. राजपोपट ने अपनी थीसिस में नियमों के इसी परस्पर विरोधाभास को सुलझाया है.

उदाहरण के तौर पर राजपोपट ने वृक्ष धातु रूप से बने शब्दों का उल्लेख किया है. वृक्ष और भ्याम शब्दों को जोड़कर वृक्षाभ्याम बनता है, जहां पहले शब्द की अंतिम ‘अ’ ध्वनि को लंबी ‘आ’ ध्वनि से बदल दिया जाता है. दूसरी ओर, वृक्ष और सु के संयोजन से वृक्षेषु बनता है जहां वही ध्वनि ‘ई’ से बदल जाती है. अब, जब वृक्ष शब्द को बहुवचन भ्या में जोड़ा जाना है, तो क्या ‘ए’ को ‘ऐ’ या ‘ई’ से बदल दिया जाना चाहिए?

विभिन्न विद्वानों का तर्क रहा है कि अलग-अलग नियमों की अलग-अलग तरह से व्याख्या की जानी थी, लेकिन राजपोपत का ओक्कम रेजर सॉल्यूशन इसका सही रूप देता है, वृक्षेभ्यः.

राजपोपट के सुपरवाइजर विन्सेन्ज़ो वर्गियानी ने एक बयान में कहा, ‘मेरे स्टूडेंट ऋषि ने इसे क्रैक कर लिया. उन्होंने सदियों से विद्वानों के लिए समस्या रही नियमों की एक पहेली को असाधारण ढंग से सुलझा लिया है. यह खोज ऐसे समय में संस्कृत अध्ययन में क्रांतिकारी बदलाव लाएगी जब इस भाषा के प्रति रुचि बढ़ रही है.’

वहीं, राजपोपट ने भी बताया कि कैसे वह इस निष्कर्ष पर पहुंचने में सफल रहे. उन्होंने कहा, ‘आखिरकार कैम्ब्रिज में मेरे लिए एक सुनहरा पल आ ही गया. करीब महीने तक इस पहेली को सुलझाने की कोशिश करने के बाद मैंने इसे लगभग छोड़ने का मन बना लिया था क्योंकि कहीं कुछ हाथ नहीं आ रहा था. इसलिए मैंने एक महीने के लिए किताबें एकदम बंद कर दीं और बस गर्मियों का आनंद लिया, तैराकी, साइकिल चलाना, खाना बनाना, प्रार्थना करना और ध्यान लगाना आदि. फिर, एकदम अनिच्छा से काम पर लौटा और जैसे ही पन्ने पलटने शुरू किए कुछ मिनटों में एकदम ये पैटर्न उभरने लगे, और सब कुछ समझ में आने लगा. आगे करने के लिए तो और भी बहुत कुछ था लेकिन पहेली का सबसे अहम सिरा मेरी पकड़ में आ गया था.’

उन्होंने अपनी थीसिस पूरी करने से पहले प्रोजेक्ट पर करीब ढाई साल तक काम किया.

कंप्यूटर के लिए संस्कृत

संस्कृत को अक्सर ‘कंप्यूटर के लिए उपयुक्त भाषा’ माना जाता है, यह किसी अन्य भाषा की तरह ही है.

हालांकि, पाणिनि के व्यापक ग्रंथ नेचुरल लैंग्वेज प्रॉसेसिंग (एनएलपी) के लिए उपयोगी हैं, क्योंकि कंप्यूटर प्रासंगिक तौर पर प्राकृतिक भाषा और इसकी बारीकियों को समझते हैं. मशीन लर्निंग एल्गोरिदम में एनएलपी के कुछ पहलुओं को लेकर दिक्कत आती है जैसे भाषा का प्राकृतिक रूप और उसकी अगली जेनरेशन के बारे में. लेकिन एक नियम-आधारित दृष्टिकोण, जैसा अष्टाध्यायी में है, एनएलपी के लिए एआई सिस्टम को ट्रेंड करने में संभावत: उपयोगी हो सकता है.

पाणिनि का कार्य विस्तृत व्याकरण नियमों से जुड़ा पहला कार्य नहीं है, बल्कि पिछले कार्यों पर आधारित है. यह इस संबंध में लिखे गए सबसे पुराने ग्रंथों में से एक है जो संस्कृत भाषा में है जो अभी पूरी तरह जीवित है, और यह भाषाई रूप से इतिहास के सबसे पुराने ग्रंथों में से एक है. यह शास्त्रीय संस्कृत रूप में लिखा गया था, और वास्तव में इसे शास्त्रीय संस्कृत युग की शुरुआत का प्रतीक माना जाता है.

वैदिक संस्कृत शास्त्रीय संस्कृत से पहले की है, और वैदिक संस्कृत में लिखे ग्रंथों के साथ प्रातिशाख्य थे, जो बताते थे कि वेदों में पाठ उच्चारण कैसे किया जाता है. इन पूरक ग्रंथों को ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी में पतंजलि (एक नाम के कई प्राचीन विद्वानों में से एक) समेत कई विद्वानों ने आगे बढ़ाया था.

सम (एक साथ, अच्छा, सिद्ध) और कृत (बनाया, गठित, काम) शब्दों के संयोजन से बनी संस्कृत को विद्वानों ने व्यापक स्तर पर संपादित किया और एक भाषा के तौर पर परिष्कृत किया. नतीजतन, भाषा में अच्छी तरह से निर्धारित व्याकरणिक नियम हैं, जिन्हें सबसे पहले पाणिनी ने लिपिबद्ध किया था.

आज भी, अष्टाध्यायी एक व्यापक और संपूर्ण ग्रंथ के तौर पर सामने है जो एल्गोरिदम आधारित भाषा का वर्णन करती है और यह बताती है कि गलत व्याख्या के बिना भाषा में नए शब्द कैसे बनाते हैं. इसकी प्रकृति एक मशीन की तरह है और इस प्रकार यह एनएलपी मॉडल के प्रशिक्षण के लिए पूरी तरह उपयोगी है.

राजपोपट ने कहा, ‘नेचुरल लैंग्वेज प्रोसेसिंग पर पर काम कर रहे कंप्यूटर वैज्ञानिकों ने 50 साल पहले ही नियम-आधारित दृष्टिकोण छोड़ दिया था. तो कंप्यूटर को यह सिखाना कि ह्यूमन स्पीच तैयार करने में पाणिनि के सूत्र-आधारित व्याकरण के साथ वक्ता की मंशा को कैसे जोड़ना है, मशीनों के साथ ह्यूमन इंटरैक्शन के इतिहास के साथ-साथ भारत के बौद्धिक इतिहास में एक मील का पत्थर साबित होगा.’

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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