फिरोजपुर: पंजाब के हबीबवाला गांव में हर रात 75 साल के शेर सिंह लाउडस्पीकर पर कई घोषणाएं करते थे — एक जब लाइट बंद करने और खाना पकाने की आग बुझाने का वक्त होता था, तो दूसरी बार ब्लैकआउट से ठीक पहले सभी को इकट्ठा होने के लिए बुलाते थे. ड्रोन दिखने की स्थिति में, वह खास ग्रामीणों को फोन करते थे, जो चुपचाप सुनिश्चित करते थे कि हर कोई अलर्ट पर है.
पाकिस्तान की सीमा के पास अपने छोटे से कमरे में, शेर सिंह — जो 1971 के युद्ध के दौरान होमगार्ड थे — भारत-पाकिस्तान के बीच बढ़ते तनाव के बीच रात भर जागते रहे.
फिरोजपुर जिले में लगभग 4,000 लोगों की आबादी वाला एक शांत गांव हबीबवाला, सुरक्षा बाड़ के घेरे के पीछे बसा हुआ था. अधिकांश परिवार केंद्रीय बस्ती में रहते थे, लेकिन कुछ लोग बिखरी हुई ढाणियों में रहते थे — गांव के केंद्र से दूर खेत पर बने साधारण घर.
इलाका समृद्ध और हरा-भरा था, जिसमें अरबी, शिमला मिर्च और मिर्च के खेत दूर-दूर तक फैले हुए थे. ये खेत अंतर्राष्ट्रीय सीमा के साथ बफर जोन तक पहुंचते हैं. मूली और गाजर के खेतों की देखभाल करने वाले ग्रामीण सुरक्षा बलों द्वारा जारी किए गए विशेष सीमा पास का उपयोग करके लोहे की बाड़ को पार करते हैं.

‘घबराओ मत और सेना का साथ दो’
जैसे-जैसे तनाव बढ़ता गया, हबीबवाला और पास के जलालवाला में परिवारों ने एक दर्दनाक फैसला किया: उन्होंने अपने बेटों, बहुओं और पोते-पोतियों को गांव के अंदरूनी सुरक्षित इलाकों में भेज दिया. बुजुर्ग पीछे रह गए — मवेशियों की देखभाल करने, सुरक्षा बलों का समर्थन करने और लाइन में डटे रहने के लिए.
65 साल के पूरन सिंह ने कहा, “हम अपने वंश को बचाए रखना था, अगर हालात हाथ से निकल गए और यह जगह खत्म हो गई तो. हम मवेशियों को छोड़ना नहीं चाहते थे. हमारे युवा दिन में खेती, आपूर्ति का भंडारण और बंकर बनाने में मदद करने के लिए वापस आते थे.”
उन्होंने कहा, “हमें जवानों का साथ देना था. हम मरने से नहीं डरते थे. यह हमारा पहला युद्ध नहीं था. मेरे पूर्वजों ने 1947 देखा, मेरी बहनों ने 1965 देखा. अगर हम चले गए, तो दूसरों का मनोबल कौन बनाए रखेगा? हम बूढ़े ज़रूर हैं, लेकिन हम अभी भी लड़ सकते हैं.”
उनके बगल में खड़ी उनकी पत्नी बंतो बाई ने सिर हिलाया. यह पूछे जाने पर कि क्या उन्हें डर लगा था, उन्होंने कहा, “एक सेकंड के लिए भी नहीं. मैंने अपने बेटों और उनके बच्चों को डर के कारण दूर नहीं भेजा. मेरे पिता हमेशा कहते थे, ‘युद्ध के दौरान कुछ भी करो, लेकिन घबराओ मत और सेना का साथ दो’.”
63 साल की बंतो बाई एक सैनिक की बेटी हैं, जिन्होंने 1965 के भारत-पाकिस्तान युद्ध में सेवा की थी. उनका घर सीमा से बमुश्किल 500 मीटर की दूरी पर था.
उन्होंने बताया, “हम पाकिस्तान के टारगेट ज़ोन में थे, यहां सेना के बेस के बीच में स्थित थे. लोगों ने हमें भागने के लिए कहा. हमने उनसे कहा, अगर जवान रुक सकते हैं, तो हम भी रुकेंगे. अगर कोई घायल होता, अगर उसे मदद की ज़रूरत होती, तो हम यहां रहेंगे. हमारे पास मजबूत बने रहने के अलावा कोई विकल्प नहीं था.”

पूरन सिंह का लगभग 300 सदस्यों वाला परिवार हबीबवाला और जलालवाला में फैला हुआ था.
‘ड्रोन ड्यूटी’
शेर सिंह की यह पहली रात्रि जागरण नहीं थी. बाकी वक्त में जब भी ग्रामीणों ने ड्रोन देखे थे, तो वे उनके पास गए थे.
एक अरबी के खेत के बीच में अपनी चारपाई पर बैठे हुए उन्होंने कहा, “जंग से एक हफ्ते पहले, मैंने एक ड्रोन को कुछ गिराते देखा था — यह हेरोइन थी. मैंने स्थानीय पुलिस को बुलाया और उन्होंने इसका ध्यान रखा.”
उन्होंने कहा, “मैं पूरी रात ड्यूटी पर था. ग्रामीण मुझ पर भरोसा कर रहे थे. नींद और उम्र मायने नहीं रखती.”
उन्होंने कहा कि 1971 का युद्ध अलग था. “अब, हम यह भी नहीं जानते कि हमला कहां से हो सकता है. सब कुछ तकनीक से चलता है. ड्रोन को पहचानना मुश्किल है. हम प्रोटोकॉल जानते हैं — उनके पास मत जाओ, कुछ भी मत छुओ.”
जलालवाला में, इकरा बाई और महिलाओं का एक समूह रोज़ाना चपाती और सब्ज़ी तैयार करता था और आस-पास तैनात सेना और सीमा सुरक्षा बल के जवानों के लिए टिफिन पैक करता था.
एक रात, वह अपने कुत्ते को देखने बाहर निकलीं थीं — जो गर्भवती थी और शेड में रो रही थी — तभी उन्होंने आसमान में टिमटिमाती हुई सफेद रोशनी देखी.
45 साल की इकरा बाई ने कहा, “मैं अंदर भागी और दूसरी महिलाओं को बुलाया. हमने जल्दी से अपने सभी जानवरों को अंदर कर दिया और उस रात मेरे कुत्ते ने पांच पिल्लों को जन्म दिया.”
बंकर बनाना

पूरन सिंह के बेटे, हबीबवाला के सरपंच बगीचा सिंह ने पड़ोसी गांवों, उनके सरपंचों से सलाह ली और एक योजना बनाई: बंकर बनाएं क्योंकि हमले दिन के उजाले में भी शुरू हो गए थे.
बहेके गांव की दुर्गा बाई, जलालवाला की इकरा बाई और हबीबवाला की बंतो बाई ने महिलाओं को फावड़े लाने के लिए सचेत किया. 19-वर्षीय सूरज ने द्विपक्षीय समझौते से दो दिन पहले गांव के युवा पुरुषों को इकट्ठा किया. साथ में, उन्होंने सुबह से शाम तक खुदाई की.

चार बड़े बंकर बनाए गए, जिनमें से हर एक को लोहे के शटर से मजबूत किया गया. आराम के लिए अंदर गद्दे रखे गए. पाकिस्तानी सेना के आगे बढ़ने की स्थिति में पुरुषों और महिलाओं ने हथौड़ों, चाकूओं और डंडों से खुद को लैस कर लिया.
दुर्गा बाई ने कहा, “जब महिलाएं खेतों में होती थीं, तो पुरुष खुदाई करते थे. जब पुरुष काम करते थे, तो महिलाएं खुदाई करती थीं. हमने बंकरों को रेत और पत्तियों से ढकने की योजना बनाई ताकि वह आस-पास के बागानों के साथ मिल जाएं.”
पास में ही नौ-वर्षीय गुरचरण सिंह ने एक बीएसएफ जवान को टिफिन देते हुए कहा, “मैं आपके जैसा बनना चाहता हूं.”
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