नई दिल्ली: संजय बसुमतारी करीब आठ महीने पहले हुए “भयानक हादसे” के बाद सिल्कयारा लौटने को लेकर आशंकित हैं. सुरंग में काम करने वाले उनके 31 साथी मजदूरों की तरह, जिन्होंने घटना के बाद विकल्पों पर काम करना शुरू कर दिया था, संजय अब अपने गांव में खेती कर रहे हैं.
असम के कोकराझार जिले के रामफलबिल गांव के निवासी संजय ने दिप्रिंट को बताया, “मैं सिल्कयारा जाना चाहता हूं, लेकिन मेरे परिवार ने मुझे ‘मौत के मुंह’ में लौटने से रोक दिया है.”
संजय उन 41 मज़दूरों में से हैं, जो पिछले साल नवंबर में उत्तराखंड के उत्तरकाशी में निर्माणाधीन सिल्क्यारा-बरकोट सुरंग में लगभग 17 दिनों तक फंसे रहे थे. इस साल मार्च में जब निर्माण फिर से शुरू हुआ, तो उनमें से ज़्यादातर काम पर लौटने के लिए अनिच्छुक थे.
अब तक केवल नौ मज़दूर ही सिल्क्यारा वापस लौटे हैं. ये नवयुगा इंजीनियरिंग कंपनी के कर्मचारी हैं, जिसके पास सुरंग बनाने का ठेका है.
सुरंग से मज़दूरों के बाहर आने के बाद, नवयुगा और उत्तराखंड में पुष्कर सिंह धामी के नेतृत्व वाली सरकार से मिली वित्तीय सहायता के साथ, संजय जैसे कई मज़दूरों ने नए रास्ते अपनाए हैं — खेती, छोटे व्यवसाय और निवेश करना.
संजय ने हाल ही में धान की खेती के लिए छह बीघा ज़मीन खरीदी है. उन्होंने कहा, “अब जब मैं खेतों में काम करता हूं, तो ऐसा लगता है कि मुझे आखिरकार शांति मिल गई है. मैं फिर से पहले जैसी ज़िंदगी जी रहा हूं.”
41 मज़दूरों को सुरक्षित निकालने के लिए कम से कम 13 एजेंसियों ने युद्धस्तर पर काम किया था. हिमालय की नाजुक प्रकृति के कारण, 400 घंटे के बचाव अभियान में कई बार रुकावटें आईं, जिसमें मलबे में ड्रिल करने के लिए लाई गई ऑगर मशीनों का बार-बार खराब होना भी शामिल है.
सिल्क्यारा सुरंग केंद्र सरकार की महत्वाकांक्षी चार धाम ऑल-वेदर कनेक्टिविटी परियोजना का एक हिस्सा है, जिसकी अनुमानित लागत लगभग 12,000 करोड़ रुपये है. सुरंग का उद्देश्य उत्तरकाशी से यमुनोत्री की दूरी को लगभग 25 किलोमीटर कम करना है.
सुरंग में फंसे लोग मुख्य रूप से प्रवासी मज़दूर थे. 41 मज़दूरों में से दो उत्तराखंड और असम से थे, एक हिमाचल प्रदेश से, पांच बिहार से, तीन पश्चिम बंगाल से, आठ उत्तर प्रदेश से, पांच ओडिशा से और 15 झारखंड से थे.
सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय (MoSPI) द्वारा जारी 2020-21 के लिए आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण (PLFS) पर आधारित भारत में प्रवासन 2020-21 रिपोर्ट के अनुसार, भारत में कुल प्रवास दर 28.9 प्रतिशत थी, जबकि ग्रामीण क्षेत्रों के लिए यह संख्या 26.5 प्रतिशत थी.
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शादी, फिक्स डिपॉजिट, पुराने कर्ज़
रेस्क्यू ऑपरेशन के बाद उत्तराखंड सरकार ने फंसे हुए प्रत्येक मज़दूर को एक लाख रुपये मुआवजा देने की घोषणा की. नवयुगा इंजीनियरिंग कंपनी के प्रतिनिधियों ने भी एम्स ऋषिकेश में उनसे मुलाकात की, जहां वे इलाज के लिए भर्ती थे और उन्हें दो महीने की सवेतन छुट्टी के साथ-साथ दो-दो लाख रुपये के चेक सौंपे.
मज़दूरों ने मुआवजे की राशि का इस्तेमाल विभिन्न उद्देश्यों के लिए किया — पूजा-पाठ करना, पुराने कर्ज चुकाना, खेती के लिए ज़मीन खरीदना, अपने लिए घर बनाना, अपने बच्चों के लिए एफडी करवाना, शादी करना और नए व्यवसाय शुरू करना.
बिहार के रोहतास के एक व्यस्त बाज़ार में पूजा के सामान से सजी सुशील की एक छोटी सी दुकान एक नई शुरुआत का प्रमाण है. मुआवजे के पैसे से सुशील ने अपनी दुकान खोली, न केवल आजीविका चलाने के लिए, बल्कि अपने परिवार के करीब रहने के लिए भी.
हालांकि, सुशील नवयुग के कर्मचारी थे, लेकिन उन्होंने सिल्क्यारा वापस नहीं जाने का फैसला किया.
उन्होंने दिप्रिंट को बताया, “अब मेरी कमाई वहां (उत्तरकाशी) की कमाई से आधी रह गई है, लेकिन मैं अपने परिवार के करीब रहता हूं और अपनी पत्नी और बच्चों की देखभाल करता हूं.”
झारखंड के एक मज़दूर राजेंद्र के पिता ने कहा, “सिल्क्यारा लौटना कभी भी एक विकल्प नहीं था. ऐसा कुछ फिर से अनुभव करने का डर बहुत बड़ा है. यहां परिवार के करीब होने से सुरक्षा और शांति का एहसास होता है जो किसी भी वित्तीय नुकसान से कहीं ज़्यादा है.”
हिमाचल प्रदेश के मंडी के बिशाल, जो दुर्घटना से कुछ महीने पहले उत्तरकाशी में काम पर आए थे, बताते हैं कि उन्होंने अपने मुआवजे के पैसे से जीवन बीमा पॉलिसी खरीदी और अपने घर का कंस्ट्रक्शन करवाया.
उन्होंने कहा कि वे भविष्य में साइट पर काम करने के बारे में सोच सकते हैं.
एक अन्य मज़दूर ओडिशा के निवासी भगवान ने घर पर किराने की दुकान खोली है, जब वे उत्तरकाशी में मज़दूरी करते थे, तो वे 15,000 रुपये प्रति माह कमाते थे.
कई अन्य लोगों ने भविष्य में उपयोग के लिए अपने बच्चों के लिए फिक्स डिपॉजिट कराए हैं.
जहां अधिकांश मज़दूरों ने मुआवज़े की राशि का उपयोग अपनी बुनियादी ज़रूरतों को पूरा करने के लिए किया, वहीं झारखंड के एक शांत गांव में रहने वाले बिस्वजीत के परिवार ने मुआवज़े की राशि का उपयोग पूजा के लिए करने का फैसला किया. उनकी पत्नी चमेली देवी ने दिप्रिंट को बताया कि उन्होंने अपने पति की “सुरक्षा” के लिए एक पूजा की, जिसकी लागत 2 लाख रुपये थी. बिस्वजीत को जबलपुर में दो महीने काम करने के बाद सिल्क्यारा वापस लौटना पड़ा क्योंकि वहां उन्हें वेतन नहीं मिल रहा था.
चमेली ने कहा, “उधर जो भी हुआ, उसके बाद सुरक्षा ज़रूरी थी.” परिवार के एक अन्य सदस्य ने कहा, “सिल्क्यारा वापस जाने का ख़याल बहुत डरावना था. यह पूजा सुरक्षा और शांति की भावना प्राप्त करने का हमारा तरीका था.”
हालांकि, ओडिशा के राजू, जो सुरंग में फंसे थे, ने वापस न लौटने का संकल्प लिया है और वह अभी भी अपने गृह राज्य में नौकरी के अवसरों की तलाश कर रहे हैं.
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‘सरकार आई, फोटो कराई, चले गए’
सुरंग से बाहर निकाले जाने के बाद, मज़दूरों को पहले उत्तरकाशी के जिला अस्पताल ले जाया गया और बाद में उन्हें ऋषिकेश के एम्स ले जाया गया. वहां से उन्हें उनके मूल शहरों में वापस भेज दिया गया. उस समय, कई राज्य सरकारों ने उन्हें घर, ज़मीन और यहां तक कि सरकारी नौकरी देने का वादा किया था, लेकिन मजदूरों का कहना है कि कुछ वादे अभी भी “अधूरे” हैं.
उदाहरण के लिए उत्तर प्रदेश सरकार ने मज़दूरों को प्रधानमंत्री आवास योजना के तहत घर और खेती और पशुपालन के लिए ज़मीन देने का वादा किया था, लेकिन “जिनके पास कुछ भी नहीं था”. राज्य के आठ में से सात मज़दूर अब किसान हैं.
लेकिन लखीमपुर खीरी के एक मज़दूर मंजीत, जिनके पास ज़मीन नहीं थी, राज्य सरकार द्वारा एक एकड़ आवंटित किए जाने वाले एकमात्र मजदूर थे.
उन्होंने कहा, “सरकार ने मुझे खेती के लिए कुछ ज़मीन दी, लेकिन उन्होंने जो काम और घर देने का वादा किया था, वो कभी नहीं मिला. अधिकारी अक्सर आते हैं, जांच करते हैं और चले जाते हैं. कोई ठोस नतीजा नहीं निकलता.”
उन्होंने कहा, “तब चुनाव की बहार थी, अधिकारी आते-जाते थे…अब कोई पूछता भी नहीं.”
उत्तर प्रदेश के मज़दूरों को घर पहुंचाने के लिए नियुक्त नोडल अधिकारी अरुण मिश्रा ने दिप्रिंट को बताया, “सरकार ने यह मानदंड तय किया था कि जिनके पास पक्का मकान नहीं है, उन्हें पक्का मकान दिया जाएगा, साथ ही खेती के लिए ज़मीन भी दी जाएगी, लेकिन अधिकारियों द्वारा निरीक्षण के दौरान उनमें से कोई भी मकान के लिए ‘योग्य’ नहीं पाया गया.”
मिश्रा ने दिप्रिंट को बताया कि यह थारू समुदाय के लोग हैं, जिनका मुख्य काम टोकरी बुनने और रस्सी बनाने का हैं, उन्हें इंडियन बैंक स्वरोजगार प्रशिक्षण संस्थान द्वारा हस्तशिल्प के व्यापार में प्रशिक्षित किया गया था, लेकिन दो महीने के काम के बाद, वे सभी खेती के काम में लौट गए.
ओडिशा में सरकार ने राज्य के दो मज़दूरों को एक-एक लाख रुपये की आर्थिक सहायता की थी.
सुरंग में फंसे 41 मज़दूरों में से 15 अकेले झारखंड के थे.
रांची के अनिल को श्रम विभाग ने एक सिलाई सेंटर में नौकरी की पेशकश की थी, लेकिन उन्होंने इसे अस्वीकार कर दिया क्योंकि उन्हें झारखंड के एक अलग जिले में भेजा जा रहा था.
अनिल ने कहा, “मुझे एक सिलाई सेंटर में नौकरी की पेशकश की गई थी, लेकिन यह मुझे सही नहीं लगा. क्योंकि सरकार राज्य में कहीं भी भेज रही थी.”
श्रम विभाग ने उन्हें बार-बार बुलाया, लेकिन वे तैयार नहीं हुए.
मुआवज़े से, अनिल ने अपने परिवार के लिए एक पक्का घर बनाया और बाकी पैसे अपने नए टेंट के बिजनेस में लगा दिए.
वे कहते हैं, “मेरा परिवार इस बात पर अड़ा था कि मुझे सिल्क्यारा वापस नहीं जाना है. वो मेरी सुरक्षा और भलाई के बारे में बहुत चिंतित थे. मैं उनके डर को समझता हूं और इसलिए मैं यहां रहूँगा.”
झारखंड के पूर्वी सिंहभूम के टिंकू का दावा है कि उन्हें ब्लॉक डिवीजन अधिकारी ने नौकरी देने का वादा किया था, लेकिन अभी तक कुछ नहीं हुआ है.
झारखंड के श्रम विभाग के एक अधिकारी, जो उस समय श्रमिकों को निकालने के दौरान नोडल अधिकारी के रूप में भी कार्यरत थे, ने दिप्रिंट से कहा, “तब यह हमारा काम था, हमने उन्हें सुरक्षित वापस लाया. अब हम क्या कर सकते हैं?”
असम सरकार ने भी दो मज़दूरों से इसी तरह के वादे किए थे, लेकिन वे निराश हो गए.
संजय ने दिप्रिंट से कहा, “सरकार ने मुझे नौकरी देने का वादा किया था, लेकिन इसके बदले मुझे एक चाय का ठेला मिला, जो अब हमारे आंगन में धूल फांक रहा है.”
उन्होंने कहा, “मुझे यकीन था कि नौकरी का वादा मुझे स्थिरता और नई शुरुआत देगा, लेकिन यह ठेला न केवल कोई आय लाने में विफल रहा, बल्कि मेरे परिवार पर बोझ भी बढ़ा दिया.”
असम के नोडल अधिकारी का कहना है कि वह अब इस योजना से जुड़े नहीं हैं और उन्हें इसके बारे में कुछ भी पता नहीं है.
बिहार के सुशील, जो अब एक पूजा सामग्री की दुकान चलाते हैं, ने कहा, “सरकार आई, फोटो कराई, गमछा दिया, चले गए. अब, यह मुद्दा और भी ज़्यादा चर्चा में नहीं आता. मैं 2018 से सुरंग में काम कर रहा था और हमारे मुख्यमंत्री ने हमारे लिए कुछ नहीं किया.”
दिप्रिंट ने बिहार सरकार के नोडल अधिकारी से कॉल और मैसेज के ज़रिए संपर्क किया, लेकिन कोई जवाब नहीं मिला.
‘परिवार का पेट पालना है’
सिल्क्यारा वापस लौटे नौ मज़दूरों का कहना है कि उन्हें कहीं और काम नहीं मिला और उन्हें अपने परिवारों का पेट पालने के लिए सुरंग में काम करना पड़ रहा है.
उन्होंने बताया कि सुरंग में तीन भागों में विभाजित करके ग्राफ्टिंग तकनीक से मलबा हटाने का काम चल रहा है.
केंद्रीय सड़क परिवहन एवं राजमार्ग मंत्रालय के निर्देश पर इस साल जनवरी में सुरंग के बड़कौट और सिल्क्यारा दोनों छोर पर सुरक्षात्मक प्रकृति का निर्माण कार्य शुरू हो गया था.
बिहार के एक मज़दूर सबा अहमद ने दिप्रिंट को बताया, “सिल्क्यारा की तरफ से गिरे 58 मीटर मलबे को तीन भागों में विभाजित किया गया है, जिसमें दाईं ओर से 40 मीटर मलबा हटाया जा रहा है और बाईं ओर से नौ मीटर तक का काम किया जा चुका है.”
अहमद मार्च से उत्तरकाशी में हैं.
नाइट शिफ्ट पूरी कर मेस की ओर जाते हुए उत्तर प्रदेश के एक मज़दूर ने कहा, “मज़दूरों को निकालने के लिए इस्तेमाल किए गए पाइप का इस्तेमाल अब सुरंग में आने-जाने के लिए किया जा रहा है.”
सिल्क्यारा में, कई लोगों का मानना है कि सुरंग बाबा बौखनाग के “क्रोध” के कारण ढह गई थी — एक स्थानीय देवता जिनका मंदिर निर्माण के लिए ध्वस्त किया गया था.
नवंबर में शुरुआती बचाव प्रयास विफल होने के बाद, पुजारी गणेश प्रसाद बिजलवान को नवयुगा इंजीनियरिंग कंपनी ने एक विशेष पूजा करने के लिए कहा. अब, सुरंग के मुहाने पर एक नया मंदिर बनाया जा रहा है.
कंपनी के अधिकारी सक्रिय रूप से मज़दूरों की मानसिक और भावनात्मक स्थिति का खयाल रखते हैं, जिन्होंने दिप्रिंट को बताया कि पहले की तुलना में अब अधिक सावधानी बरती जा रही है.
एक मज़दूर ने बताया, “अब हमें लंबे समय तक सुरंग में रहने से मना किया गया है. हम केवल बाहरी हिस्सों पर काम करते हैं.”
राष्ट्रीय राजमार्ग और अवसंरचना विकास निगम लिमिटेड (NHIDCL) के एक अधिकारी ने पुष्टि की कि सुरंग में काम इस साल पूरा नहीं होगा.
नाम न बताने की शर्त पर उन्होंने दिप्रिंट से कहा, “हर प्रोजेक्ट में कुछ न कुछ दिक्कतें आती ही हैं और कंपनी जल्द ही मज़दूरों के साथ मिलकर काम पूरा कर लेगी.”
2018 से प्रोजेक्ट साइट पर काम कर रहे अहमद ने बताया कि उनके परिवार को लगता है कि वे पुल पर काम करते हैं, जबकि असलियत में वे सुरंग में काम करते हैं.
उन्होंने कहा, “जब भी मेरे घरवालों का फोन आता है, मैं बाहर जाकर फोन उठाता हूं, ताकि उन्हें परेशानी न हो.”
उत्तरकाशी में वापस लौटे बिहार के बीरेंद्र ने दिप्रिंट से कहा, “पत्नी को मनाने में बहुत समय लगा. मेरा काम मशीनरी से जुड़ा है. जोखिम तो अब हर जगह है.”
उन्होंने आगे कहा, “अब मेरी पत्नी के पास एचआर टीम का नंबर है. इसलिए घरवालों को उतनी चिंता नहीं रहती.”
बिहार के सोनू ने कहा, “माता-पिता को मनाना थोड़ा मुश्किल था, लेकिन परिवार चलाने के लिए हमें ऐसा करना ही पड़ता है. अगर हम कमाएंगे नहीं, तो खाएंगे क्या?”
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