नई दिल्ली: वैश्विक आबादी के आठ अरब के आंकड़े तक पहुंचने के मद्देनज़र सोमवार को जनसंख्या दिवस ‘आठ अरब की दुनिया : सभी के लिए एक लचीले भविष्य की ओर-अवसरों का दोहन और सभी के लिए अधिकार और विकल्प सुनिश्चित करना’ विषय के साथ मनाया जायेगा.
जनसंख्या के मामले में भारत 1.35 अरब की आबादी के साथ विश्व में दूसरे पायदान पर है. जनसंख्या नियंत्रण कानून और बुजुर्ग आबादी की देखभाल और परिवार नियोजन के मुद्दों पर ‘पॉपुलेशन फाउंडेशन ऑफ इंडिया’ की कार्यकारी निदेशक पूनम मुत्रेजा से ‘भाषा’ के पांच सवाल और उनके जवाब.
सवाल : भारत जैसे बड़े भूगोल वाले और संसाधनों से भरे देश के लिए जनसंख्या को समस्या की तरह कैसे देखा जाने लगा. नीतिगत स्तर पर हम कहां गलत रहे हैं?
जवाब : भारत दुनिया के सबसे ज्यादा जनसंख्या वाले देशों में से एक है और यहां 1952 में राष्ट्रीय स्तर पर भी सबसे पहले जनसंख्या कार्यक्रम लाया गया था. साथ ही यहां के लोग हमेशा से ही जनसंख्या के सवाल पर काफी सजग रहे हैं. 1950 और 1960 के दशक में सरकार ने लोगों द्वारा परिवार नियोजन को अपनाने के लिए बढ़ावा दिया. इसका मुख्य मकसद स्वास्थ्य और परिवार नियोजन के प्रति देश के लोगों को जागरूक करना था.
भारत में 1970 के दशक में आपातकाल के दौरान पुरुषों की जबरन नसबंदी जैसे कई अभियान चलाए गए, जो परिवार नियोजन के संबंध में देश के दृष्टिकोण में एक प्रमुख मोड़ साबित हुए. नसबंदी या जबरन नसबंदी की नृशंस कहानियां सामने आईं. परिवार नियोजन का विषय काफी समय तक सरकार की प्राथमिकता सूची में निचले पायदान पर पहुंच गया था. इसके बाद, पुरुषों में नसबंदी कराने में हिचकिचाहट के कारण 1980 के दशक में महिला नसबंदी मुख्य गर्भनिरोधक विधि बन गई. प्रगतिशील देश में परिवार नियोजन के विषय पर बेहतर जानकारी होने के बावजूद, कुछ मिथक और भ्रांतियां आज भी मौजूद हैं.
सवाल : कुछ राज्य जनसंख्या नियंत्रण नीति को लेकर मुखर हैं और उसे लागू करने की ओर अग्रसर हैं, वहीं केंद्र व राज्यों के बीच इस नीतिगत विरोधाभास को कैसे देखेंगे?
जवाब : विभिन्न राज्यों में कई नीति निर्माताओं ने ‘जनसंख्या विस्फोट’ और ‘जनसंख्या नियंत्रण’ की आवश्यकता के बारे में चिंताओं को गलत बताया है. उदाहरण के लिए असम राज्य ने 2021 में ‘दो बच्चों’ की नीति अपनाने का फैसला किया था. राज्य सरकार के मुताबिक दो से अधिक बच्चों वाले परिवार सरकार द्वारा दी जाने वाली विशिष्ट योजनाओं का लाभ नहीं उठा पाएंगे. राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-पांच (एनएफएचएस) 2019-2021 के अनुसार, असम में कुल प्रजनन दर (टीएफआर)-(प्रत्येक महिला से पैदा हुए बच्चों की औसत संख्या) 1.9 प्रतिशत है, जो राष्ट्रीय औसत से कम है, जबकि एनएफएचएस-पांच के अनुसार, असम में 15-49 आयु वर्ग के विवाहित जोड़ों में 77 प्रतिशत महिलाएं और 63 प्रतिशत पुरुष और बच्चे नहीं चाहते हैं. इससे पता चलता है कि जनसंख्या नीति के बिना भी, पुरुष और महिलाएं छोटा परिवार चाहते हैं. राज्यों को किशोरों और युवाओं की बड़ी आबादी को देखते हुए विशेष रूप से लंबे समय तक काम करने वाले प्रतिवर्ती गर्भनिरोधक (एलएआरसी) समेत अन्य गर्भनिरोधक विकल्पों पर विचार करने की ज़रूरत है.
सवाल : अभी भारत को युवाओं का देश कहा जाता है, लेकिन एक समय के बाद जनसंख्या का बड़ा हिस्सा बुजुर्ग होगा. उस स्तर के लिए क्या हमारे पास पर्याप्त तैयारी है, खासकर सामाजिक सुरक्षा को लेकर?
जवाब : भारत में अगले 12 साल में जनसंख्या वृद्धि के अनुमानित स्तर पर पहुंचने से पहले स्थिर होने की उम्मीद है. भारत में बुजुर्गों की आबादी 2025 तक कुल आबादी के अनुपात में 12 प्रतिशत तक बढ़ने का अनुमान है. यूएनएफपीए (संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष) की एक रिपोर्ट के अनुसार, दक्षिणी और पश्चिमी राज्यों में 2030 तक बुजुर्ग आबादी एक करोड़ 92 लाख तक पहुंच जाएगी और वर्तमान के मुकाबले लगभग दोगुना हो जाएगी. 2050 तक हर पांचवां भारतीय बुजुर्ग होगा. इसलिए इस आबादी के लिए स्वास्थ्य और आर्थिक सुरक्षा संबंधित योजनाओं को प्राथमिकता देनी होगी. बुजुर्गों की आबादी में यह वृद्धि सामाजिक और वित्तीय चुनौतियों का सामना करेगी. इसके लिए वृद्धावस्था देखभाल की ओर बदलाव के लिए मजबूत स्वास्थ्य प्रणाली को तैयार करने की आवश्यकता है. 2007 में, भारतीय संसद ने ‘माता-पिता एवं वरिष्ठ नागरिक भरण-पोषण एवं कल्याण विधेयक’ पारित किया था, जिसके मुताबिक बच्चों या रिश्तेदारों द्वारा माता-पिता या वरिष्ठ नागरिकों का रखरखाव अनिवार्य है. इसका उल्लंघन करने पर दंड के प्रावधान भी निर्धारित किए गए थे. ‘वरिष्ठ नागरिकों पर राष्ट्रीय नीति 2011’ वरिष्ठ नागरिकों को देश के लिए एक मूल्यवान संसाधन के रूप में मान्यता देती है और समाज में उनकी पूर्ण भागीदारी सुनिश्चित करती है.
सवाल : क्या कोरोना महामारी के कारण जनसंख्या परिवर्तन की दर में कुछ बदलाव देखे गए हैं?
जवाब : जनसांख्यिकीय परिवर्तनों को सामने आने में लंबा समय लगता है. जनसांख्यिकीय बदलाव होने में दशकों लग सकते हैं. व्यापक आंकड़े भी हर दस साल में जनगणना होने पर ही उपलब्ध हो पाते हैं. अभी, कोविड-19 महामारी को जनसांख्यिकीय परिवर्तन के लिए जिम्मेदार ठहराने के लिए सबूत बहुत कम हैं. इसलिए, यह कहना मुश्किल है कि महामारी का कुल जनसंख्या पर किस प्रकार का प्रभाव पड़ सकता है.
सवाल : वर्तमान समय में 11 राज्यों में जनसंख्या नियंत्रण कानून मौजूद है. नए कानून में क्या बदलाव होने चाहिए.
जवाब : जैसा कि पहले कहा गया है, किसी भी भारतीय राज्य में ‘जनसंख्या नियंत्रण’ कानून की कोई आवश्यकता नहीं है. राज्यों को अपनी आबादी को एक दायित्व के बजाय एक संपत्ति के रूप में देखने की ज़रूरत है. यह दिखाने के लिए पर्याप्त सबूत हैं कि जबरन लागू नीतियों के नकारात्मक परिणाम हुए हैं. पूर्व वरिष्ठ भारतीय प्रशासनिक सेवा अधिकारी (आईएएस) निर्मला बुच द्वारा पांच राज्यों (मध्य प्रदेश, आंध्र प्रदेश, हरियाणा, ओडिशा, राजस्थान) में किए गए एक अध्ययन (‘पंचायतों में दो बच्चों के नियम- निहितार्थ, परिणाम और अनुभव’) में पाया गया कि दो बच्चों की नीति अपनाने वाले राज्यों में लिंग-चयन करने और असुरक्षित गर्भपात में वृद्धि हुई थी. पुरुषों ने स्थानीय निकाय चुनाव लड़ने के लिए अपनी पत्नियों को तलाक दे दिया और परिवारों ने अयोग्य घोषित होने से बचने के लिए बच्चों को गोद देने के लिए आश्रय गृहों में छोड़ दिया.
वैश्विक सबूतों से पता चलता है कि प्रोत्साहन और हतोत्साहन की नीति काम नहीं करती हैं. भारत को परिवार नियोजन के अधिकार-आधारित दृष्टिकोण पर ध्यान केंद्रित करना होगा, जिसके प्रति उसने 1994 में जनसंख्या विकास पर अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन (आईसीपीडी) में 179 देशों की अन्य सरकारों के साथ करने के लिए प्रतिबद्धता जताई थी.
परिवार नियोजन और विकास कार्यक्रमों को मजबूत करने के माध्यम से विवाहित जोड़ों की स्वयं के सकारात्मक प्रजनन विकल्प अपनाने में मदद की जानी चाहिए. सभी स्तरों पर सरकारों को स्वास्थ्य देखभाल पर अधिक खर्च करने, व्यापक यौन शिक्षा और यौन एवं प्रजनन स्वास्थ्य सेवाएं मुहैया करवाने की आवश्यकता है. हमें कौशल शिक्षा के क्षेत्र में निवेश करना चाहिए, पुरुषों और महिलाओं के लिए आजीविका के अवसर उत्पन्न करने चाहिए.
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