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Tuesday, 19 November, 2024
होमदेशआरोपी के खिलाफ 'सीधा सबूत नहीं' - गुजरात की अदालत ने गोधरा मामले में 35 लोगों को क्यों बरी किया

आरोपी के खिलाफ ‘सीधा सबूत नहीं’ – गुजरात की अदालत ने गोधरा मामले में 35 लोगों को क्यों बरी किया

गुजरात सत्र न्यायालय ने पुलिस जांच और गवाहों के बयानों में चूक पाई, कहा कि प्रमुख हिंदू व्यक्तियों को 'अनावश्यक रूप से फंसाया गया' और 'स्यूडो-सेक्युलर मीडिया के हंगामे' के कारण गिरफ्तारियां की गईं.

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नई दिल्ली: गुजरात के एक सत्र न्यायालय ने 2002 के गोधरा दंगों के मामले में उस समय के दर्ज एक मामले में 35 लोगों को बरी करते हुए कहा कि 2002 के गोधरा के बाद के दंगे स्वतःस्फूर्त थे, नियोजित नहीं, जैसा कि “स्यूडो-सेक्युलर व्यक्तियों, मीडिया और राजनेताओं” द्वारा कहा गया था, और जिन्होंने ऐसा कह कर “पीड़ित लोगों के घाव पर नमक छिड़का.” यह आदेश कोर्ट ने पिछले सोमवार को दिया था.

गुजरात के हलोल (पंचमहल जिले) के अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश हर्ष बालकृष्ण त्रिवेदी ने आगे कहा कि पुलिस ने उस मामले में डॉक्टर, प्रोफेसर, शिक्षक, व्यवसायी आदि जैसे क्षेत्र के प्रमुख हिंदू व्यक्तियों को “अनावश्यक रूप से फंसाया” था.

उन्होंने कहा कि ये सभी गिरफ्तारियां, “स्यूडो-सेक्युलर मीडिया और संगठनों के हंगामे” के कारण की गई थीं.

कलोल पुलिस स्टेशन में दर्ज दंगा और हिंसा के एक मामले में 36 पन्नों का फैसला सुनाया गया. एफआईआर के मुताबिक, गोधरा ट्रेन नरसंहार के एक दिन बाद 28 फरवरी, 2002 को हलोल में चार स्थानों – डेलोल गांव, डेरोल रेलवे स्टेशन क्षेत्र, कलोल बस स्टैंड और कलोल तलाव झुग्गी – में बड़े पैमाने पर सांप्रदायिक हिंसा देखी गई.

अदालत ने अपने आदेश में कहा, चारों घटनाओं के संबंध में एक ही प्राथमिकी दर्ज की गई थी. प्रारंभिक एफआईआर में हत्या का कोई आरोप नहीं था और यह हिंदू और मुस्लिम दोनों समुदायों के खिलाफ गैरकानूनी जमावड़े को लेकर थी.

एफआईआर में दावा किया गया था कि (चार स्थानों पर) हुई हिंसा एक दिन पहले गोधरा में दर्ज की गई “साबरमती ट्रेन नरसंहार की प्रतिक्रिया” थी और वह (हिंसा और दंगा) एक “हिंदू कट्टरपंथी भीड़” द्वारा किया गया था, जिसमें आरोपी ने “बदला लेने के मकसद से” भाग लिया.

रेलवे पुलिस बल ने सबसे पहले मामले की जांच अपने हाथ में ली क्योंकि जिन इलाकों में हिंसा हुई उनमें से कुछ उनके अधिकार क्षेत्र में आते हैं. बाद में मामला गुजरात पुलिस को स्थानांतरित कर दिया गया था.

अदालत के आदेश में आगे कहा गया कि जब पुलिस ने 52 लोगों के खिलाफ मामले में चार्जशीट दायर की तब हत्या का प्रावधान जोड़ा गया. इनमें से 17 लोगों की लंबी सुनवाई के दौरान मौत हो गई. अभियोजन पक्ष ने अपने मामले के समर्थन में 130 गवाहों का परीक्षण किया और कई दस्तावेजी सबूत पेश किए.

हालांकि, अपने आदेश में न्यायाधीश ने कहा कि “अभियुक्तों को घटना से जोड़ने के लिए कोई प्रत्यक्ष सबूत नहीं था, पुलिस यह साबित करने में विफल रही कि वे एक गैरकानूनी जमावड़े का हिस्सा थे और अभियोजन पक्ष भी स्वतंत्र गवाहों के माध्यम से उनसे हथियारों की बरामदगी और जब्ती की पुष्टि नहीं कर सका.”

अदालत ने कहा- पुलिस की थियरी (दंगे के पीछे का मकसद बदला लेना था) को अदालत ने स्वीकार नहीं किया, जिसमें कहा गया था कि हालांकि, अभियोजन पक्ष ने गैरकानूनी जमावड़े से हुए हिंसा और संपत्तियों को नुकसान की बात साबित की, लेकिन यह “हिंसा” के साथ “अभियुक्तों का संबंध होने” को स्थापित नहीं कर सका,” इसलिए, “गैरकानूनी जमावड़े के मकसद का पहलू महत्वहीन हो जाता है”.


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नतीजतन, अदालत ने कहा, आरोपियों को “अनावश्यक रूप से लंबे मुकदमे का सामना करना पड़ा”.

लंबे समय तक चले मुकदमे के परिणामस्वरूप मामले के दो जांच अधिकारियों – पहले और आखिरी से पूछताछ नहीं हो पाई. गवाह के रूप में बुलाए जाने से पहले ही दोनों की मृत्यु हो गई.

जज ने “मुस्लिम गवाहों” का भी उल्लेख किया, जो उन्होंने कहा, दंगों के कथित पीड़ित थे. उन्होंने कहा, उन्होंने दंगों के बारे में बिल्कुल अलग-अलग बातें बताईं.

न्यायाधीश ने कहा, “हमारे देश में लोगों के बीच सच्चाई का स्तर बहुत कम है. इस मामले में, लगभग सभी गवाहों की गवाही पूरी तरह से अविश्वसनीय थी.”

गवाहों ने ‘हर बार पेश की नई कहानी’

न्यायाधीश ने मामले में लंबे समय तक जांच के लिए गवाहों को जिम्मेदार ठहराया. उनके बयानों का विश्लेषण करते हुए, न्यायाधीश ने कहा कि गवाहों – जिनमें से अधिकांश “मुस्लिम समुदाय के व्यक्ति” थे – ने मामले में “बार-बार लिखित आरोप” दिए.

उन्होंने कहा, ‘उनकी गवाही से कोई भरोसा पैदा नहीं होता.’

न्यायाधीश ने कहा कि कुछ बयानों की छानबीन से पता चला कि गवाहों ने घटनाओं के संबंध में कई सुनी-सुनाई बातें रिकॉर्ड करवाईं.

कुछ ने पुलिस को दिए गए अपने पिछले बयान के विपरीत बयान दिया, जबकि कुछ अदालत में पेश नहीं हो सके क्योंकि गवाह के रूप में बुलाए जाने से पहले ही उनकी मृत्यु हो गई. न्यायाधीश ने कहा कि बयानों ने अभियुक्तों की पहचान के बारे में गंभीर संदेह पैदा किया.

इस निष्कर्ष का आधार “मुस्लिम समुदाय के कई व्यक्तियों, जिन्हें सांप्रदायिक हिंसा का शिकार बताया गया था” द्वारा एक उच्च अधिकारी को दिए गए मौखिक और लिखित रिप्रेजेंटेशन थे, अदालत के अनुसार, इस दौरान उन्हें हुए नुकसान के लिए मिलने वाले मुआवज़े का लाभ उठाना था.

इन रिप्रेज़ेंटेशन को देखने पर, जज ने पाया कि गवाहों ने “हर बार एक नई कहानी पेश की”.

अदालत ने कहा, किसी भी रिप्रेंजेंटेशन में इन व्यक्तियों ने किसी हिन्दू व्यक्ति का नाम नहीं लिया. इसके विपरीत, उनमें से प्रत्येक ने कहा कि एक “हिंदू कट्टरपंथी भीड़” ने यह काम किया. लेकिन यह निष्कर्ष निकालने का कोई तरीका नहीं था कि चार्जशीट में जिन अभियुक्तों का नाम है वे भीड़ का हिस्सा थे.

जज ने यह भी कहा कि रेलवे पुलिस पर “स्यूडो-सेक्युलर राजनेताओं और मीडिया” द्वारा “अत्यधिक दबाव” भी था, जिसकी वजह से वह हिंसा के स्थानों से महत्वपूर्ण नमूने एकत्र करने में असफल रही.

“यह कहा जा सकता है कि जांच में शांत दिमाग से किया जाना चाहिए. एक शांत दिमाग भावनात्मक रूप से उत्तेजित व्यक्ति की तुलना में चीजों को बेहतर तरीके से देखता है,” जज ने कहा, “वह इस तरह के नमूने एकत्र नहीं करने के लिए पुलिस (एएसआई अधिकारी) को दोष नहीं देंगे”.

जज ने यह भी बताया कि अभियोजक ने “अदालत में पूछने के लिए कई गवाहों” को बुलाया था. उन्होंने समझाया, ऐसा इसलिए था क्योंकि अभियोजक “विशिष्ट समुदाय के नेतृत्व वाले गैर सरकारी संगठनों से डरते हैं” और “शायद ही उन्हें कभी कोई मदद मिलती”.

‘सुन-सुनाए सबूत’

अदालत ने पुलिस जांच में खामियां पाईं और कहा कि अधिकांश आरोपियों को केवल अन्य-आरोपियों के बयानों के आधार पर फंसाया गया था.

इसमें कहा गया कि यह दिखाने के लिए कोई प्रत्यक्ष सबूत नहीं था कि कौन सा विशिष्ट आरोपी “हिंसा के वक्त कौन सा हथियार लिए हुए था” और “उसका प्रयोग कर रहा था”.

अदालत ने कहा कि फोरेंसिक साक्ष्य भी एफआईआर में उल्लिखित घटनाओं के बारे में अभियोजन सिद्धांत (प्रतिशोध के) का समर्थन नहीं करते हैं.

एक उदाहरण में, फोरेंसिक जांच यह स्थापित नहीं कर सकी कि अपराध स्थल से एकत्र की गई हड्डियों के नमूने मानव के हैं या जानवर के. अदालत ने कहा कि यह कथित अवशेषों की उम्र और लिंग पर भी कोई तथ्य नहीं पेश कर सका.

अदालत के अनुसार, क्राइम सीन का नक्शा, “सुना-सुनाया साक्ष्य” बना रहा.

नक्शे में कथित रूप से दर्ज सूचना देने वाले व्यक्ति से पूछताछ के अभाव में, अदालत ने नक्शे को साक्ष्य के रूप में मानने से खारिज कर दिया.

अदालत ने कहा, एक अन्य घटना में, अभियुक्तों की पहचान परीक्षण परेड की व्यवस्था करने में देरी हुई थी. और जब यह किया गया तब यह “बहुत देर” से किया गया. इसलिए, मामले मेंं इस और अन्य “प्रासंगिक तथ्यों” पर विचार करते हुए, जज ने आरोपी की पहचान तय करने के लिए परीक्षण पहचान परेड को सबूत के रूप में नहीं माना.

जज ने अपने आदेश में कहा: “सांप्रदायिक दंगों के मामले में आम तौर पर बड़ी संख्या में लोग शामिल होते हैं और सबूत अक्सर पूरी तरह से पक्षपातपूर्ण होते हैं. इसके अलावा, दोषियों के साथ-साथ निर्दोष व्यक्तियों को भी फंसाए जाने का बड़ा खतरा है, ऐसे मामलों में पार्टियों की प्रवृत्ति के कारण वे अपने कई दुश्मनों को झूठा फंसाने की कोशिश करते हैं, जितना वे कर सकते हैं. इसलिए, निर्दोष व्यक्तियों को झूठा फंसाए जाने की संभावना को जज द्वारा हमेशा ध्यान में रखा जाना चाहिए.”

(संपादनः शिव पाण्डेय)
(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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