पुणे: 2001 में 9/11 के आतंकवादी हमलों के बाद नादिया मैकेरिनी ने अमेरिका छोड़ दिया और शांति की तलाश में सात समुंदर पार करके हजारों मील दूर पूना चली आईं. फिर नौ साल बाद यहां भारत में 2010 के एक आतंकी हमले में उसने अपनी जान गंवा दी. भारत में नंदिनी बनी नादिया और उसके जैसे 16 अन्य लोगों की बारह साल पहले पुणे की जर्मन बेकरी में हुए विस्फोट में मौत हो गई थी.
इस घटना के लिए जिम्मेदार लोगों की तलाश दो मुकदमों की कहानी से जुड़ी है जो भारत की बिखरी हुई आपराधिक न्याय प्रणाली की स्थिति को बयां करती है.
2014 में गिरफ्तार होने के आठ साल बाद भी इनमें से एक आरोपी यासीन भटकल के खिलाफ मुकदमा इस साल जून तक शुरू नहीं हुआ. न्यायिक रिकॉर्ड बताते हैं कि अभियोजन पक्ष कारणों का हवाला देते हुए उसे लगभग सौ सुनवाई के लिए अदालत के सामने पेश नहीं कर पाया. आरोपी को दिल्ली की तिहाड़ जेल से पुणे ले जाने में सुरक्षा संबंधी चिंताओं से लेकर, उसके लाने और ले जाने में जनता के पैसे खर्च करने, ट्रेन टिकटों की अनुपलब्धता और तिहाड़ से वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिए उसे जोड़ने के लिए तकनीकी बुनियादी ढांचे की कमी तक, अनेकों कारण इसके लिए जिम्मेदार रहे हैं. आखिरकार कोविड ने इस ट्रायल को एक नया जीवन दिया. देशभर की अदालतों और जेलों ने इस दौरान लगे लॉकडाउन में अपनी तकनीकी बुनियादी ढांचे में खासी प्रगति जो कर ली थी.
इस मामले में एक और ट्रायल 2010 से शुरू हुआ. यह वही साल था जब बेकरी में विस्फोट किया गया था. यह मामला मिर्जा हिमायत बेग के खिलाफ चलाया गया. हालांकि बॉम्बे हाई कोर्ट ने उसके खिलाफ लगाए गए आतंकवादी आरोपों को खारिज कर दिया था लेकिन उसके बावजूद पिछले पांच सालों का एक बड़ा हिस्सा उसने एक अंडा सेल में बिताया. हाई कोर्ट ने उसे विस्फोटक रखने के लिए आजीवन कारावास की सजा सुनाई थी और हाई कोर्ट के फैसले के खिलाफ उसकी अपील सुप्रीम कोर्ट में अभी लंबित हैं. वैसे 2010 के विस्फोट में उसकी भागीदारी और भूमिका से जुड़े कई बड़े प्रासंगिक सवाल अभी भी जवाबों से परे हैं.
रजनीश आंदोलन को अमेरिकी अधिकारियों द्वारा खदेड़े जाने के बाद ओशो अमेरिका छोड़ महाराष्ट्र शहर में अपने मुख्यालय लौट आए थे. उसके कुछ समय बाद 1989 में पुणे के ओशो आश्रम से महज 500 मीटर की दूरी पर यह बेकरी बनाई गई थी. बेकरी के विचार की कल्पना ठीक आश्रम के बाहर की गई, जहां इसके सह-संस्थापक- सिगरेट विक्रेता ज्ञानेश्वर खरोज और जर्मन क्लाउस वुडी गुट्ज़ित आपस में टकराए थे. यह सुनने में काफी अजीब लगता है कि उन दोनों ने नादिया जैसे ट्रैवलर, बैकपैकर, विभिन्न संस्कृतियों की खोज करने वाले विदेशियों के लिए अपनी कल्पना को आकार दिया था.
वेलेंटाइन डे से एक दिन पहले 2010 में एक खुशनुमा शनिवार की शाम, बम के धमाकों से कभी न भूलने वाला गम बन गई. बेकरी में विस्फोट हुआ और इसकी फाइबर शीट की छत टुकड़े-टुकड़े होकर चारों तरफ बिखर गई. धमाका इतना जबरदस्त था कि इसकी दीवारें तक अंदर की तरफ धंस गईं थी.
भले ही बेकरी के मालिक तीन साल बाद इस जानी-मानी जगह को फिर से खड़ा करने में कामयाब रहे लेकिन कुछ के लिए, वह जगह अब वैसी नहीं रही – पुराने क्रोइसैन लोगो के ऊपर अब एक उल्लू लगा नजर आता है. एक मेटल डिटेक्टर ने स्थायी रूप से एंट्री गेट पर अपनी जगह बना ली है. कम्यूनिटी टेबल की जगह अब सफेद रंग की रॉड आयरन कुर्सियों ने ले ली है. दो, तीन और चार लोगों के लिए अब अलग से टेबल के साथ बैठने की व्यवस्था है. ज्ञानेश्वर की बेटी स्नेहल खरोसे के अनुसार, उन्होंने उल्लू के साथ लोगो को अपग्रेड करने का विकल्प चुना क्योंकि उल्लू जर्मनों का भाग्यशाली शुभंकर होता है… यह दिखाने के लिए कि हम पुराने से नए में अपग्रेड कर रहे हैं.’
टोपी वाला आदमी
मामले में पहली बड़ी सफलता पुणे पुलिस को तब मिली जब एक धुंधले से सीसीटीवी फुटेज में ‘कैप में एक आदमी’ को दो बैग लिए बेकरी में ले जाते हुए देखा. पुलिस जांच के दौरान न्यायिक रिकॉर्ड और अखबार के लेखों में इसका जिक्र है. उनको ये इमेज बेकरी और साथ ही पड़ोस के ‘ओ’ होटल के सीसीटीवी फुटेज, दोनों जगह से मिली थी. पुलिस का दावा है कि यह शख्स मोहम्मद अहमद सिद्दीबप्पा मोहम्मद जरार उर्फ अहमद उर्फ इमरान उर्फ शिवानंद उर्फ यासीन भटकल है, जो इंडियन मुजाहिदीन (आईएम) आतंकी समूह का संस्थापक है.
भटकल को अगस्त 2013 में नेपाल की सीमा से लगे बिहार के रक्सौल शहर से गिरफ्तार किया गया था. उस समय वह नवंबर 2007 और जुलाई 2013 के बीच, हैदराबाद, बैंगलोर, पुणे और बोधगया सहित देश भर में बम विस्फोटों में शामिल 15 सबसे वांछित आतंकवादियों की दिल्ली पुलिस की सूची में सबसे ऊपर था.
अगस्त 2014 में जर्मन बेकरी विस्फोट के लिए उसके खिलाफ एक सप्लीमेंट्री चार्जशीट दायर की गई थी. न्यायिक कार्यवाही के इस चरण में आरोप तय करने के लिए अदालत के समक्ष आरोपी की उपस्थिति जरूरी होती है. आरोप तय होने के बाद अदालत आरोपी को उसे पढ़ कर सुनाती है और समझाती है. साथ ही उससे पूछा जाता है कि क्या वह उन्हें स्वीकार करता है या फिर इनकार करता है. यहीं पर यह मामला अगले पांच साल तक अटका रहा.
29 अप्रैल 2019 को ही भटकल के खिलाफ आरोप तय किए जा सके. दिल्ली की तिहाड़ जेल में हिरासत में होने के बावजूद अदालती रिकॉर्ड के लिए एक जंगली हंस की तरह उसका पीछा किया जाता रहा. दिप्रिंट को मिले लिखित अदालती रिकॉर्ड से पता चलता है कि भटकल को वीडियो-कांफ्रेंसिंग (वीसी) के जरिए अदालत में पेश करने के कई असफल प्रयास किए गए थे.
अगस्त 2014 का एक ऐसा ही रिकॉर्ड बताता है कि ‘अदालत की टेलीफोन लाइनों में समस्या के चलते वीसी सुविधा काम नहीं कर रही है और वह (अदालत) तिहाड़ जेल से नहीं जुड़ सकती है.’ 28 अक्टूबर 2014 के रिकॉर्ड के मुताबिक, ‘इस अदालत के कार्यालय द्वारा सूचित किया जाता है कि वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग सुविधा तकनीकी समस्या के कारण काम नहीं कर रही है और इसलिए तिहाड़ जेल को जोड़ा नहीं जा सकता है.’ वास्तव में 2014 से 2019 तक के रिकॉर्ड, एक ही मुद्दे को किसी न किसी रूप में दोहराते रहे. दिसंबर 2014 से जून 2015 के बीच के कम से कम 13 रिकॉर्ड में कहा गया, ‘तिहाड़ जेल को मामले की अगली तारीख की सूचना दी जाए ताकि वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिए आरोपी अदालत में उपस्थिति हो सके.’
2018 में पुणे जिला अदालत ने भटकल को उसके सामने पेश करने के लिए कई प्रोडक्शन वारंट भी जारी किए. इसी साल दिसंबर में जवाब देते हुए जेल और पुलिस अधिकारियों ने अदालत को बताया था कि भटकल को ‘समय की कमी और आरोपी के साथ जाने वाले स्टाफ सदस्यों के लिए कन्फर्म ट्रेन टिकट न होने के कारण’ अदालत के सामने पेश नहीं किया जा सकता है. सितंबर 2018 में जब भटकल के लिए जमानत याचिका दायर की गई तो अदालत को सूचित किया गया कि अभियोजन पक्ष पहले ही 71 मौकों पर उसे अदालत के सामने पेश करने में ‘बुरी तरह विफल’ रहा है. फिर 2019 की शुरुआत में, अदालत को बताया गया कि भटकल को उसके खिलाफ एक अन्य मामले के संबंध में दिल्ली के पटियाला हाउस कोर्ट में पेश करने की जरूरत है और इसलिए, पुणे अदालत के समक्ष पेश नहीं किया जा सकता है.
चार्जशीट दाखिल होने के लगभग पांच साल के इंतिजार के बाद, भटकल को 29 अप्रैल 2019 को पुणे की अदालत में पेश किया गया और उसके खिलाफ आरोप तय किए गए. उस पर विस्फोटक पदार्थ अधिनियम और गैरकानूनी गतिविधि (रोकथाम) अधिनियम के प्रावधानों के साथ, भारतीय दंड संहिता की धारा 302, 307, 326, 325, 324, 427, 120 (बी), 467, 468, 474, 153 (ए), 109 और 34 के तहत आरोप लगाए गए. उसने उन सभी से आरोपों से इंकार किया था.
कोविड की वजह से मामला आगे बढ़ पाया
यासीन भटकल को 29 अप्रैल 2019 को कड़ी सुरक्षा और भीषण गर्मी के बीच दिल्ली पुलिस की एक टीम दिल्ली की तिहाड़ जेल से पुणे लेकर आई थी. पुणे के एक वकील बताते हैं कि भटकल को विशेष न्यायाधीश के.डी. वडाने के सामने लगभग 11:30 बजे पेश करने से पहले सुरक्षा व्यवस्था ने पूरे पुणे जिला अदालत परिसर को ‘एक किले’ में बदल दिया था.
आईएम संचालक के खिलाफ आरोप तय होने के बाद उसी दिन महाराष्ट्र पुलिस के आतंकवाद निरोधी दस्ते ने पुणे की अदालत में एक याचिका दायर कर मांग की कि भटकल को मुकदमे के लिए वीडियो कांफ्रेंसिंग के जरिए पेश करने की अनुमति दी जाए. एटीएस की याचिका में भटकल को ‘बहुत उच्च जोखिम वाला कैदी’ कहा और साथ ही उसे पुणे तक लाने में ‘कार्यबल (स्थानीय पुलिस और विशेष बल) और सार्वजनिक फंड’ के खर्च के बारे में बताया गया. इसके अलावा यह भी कहा गया है कि ‘उसके अपने आतंकवादी समूह या फिर विरोधी संगठन या किसी अन्य कट्टरपंथी की ओर से उस पर हमला किए जाने की पूरी आशंका है.’ अर्जी दाखिल करनी पड़ी क्योंकि एक सामान्य नियम के अनुसार, अभियुक्त की उपस्थिति में ही मुकदमा चलाया जाना चाहिए.
अदालत ने 16 सितंबर 2019 को इस याचिका को स्वीकार कर लिया और जब भटकल को वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिए पुणे की अदालत में आधिकारिक तौर पर पेश करने के लिए मंच तैयार किया गया. उसके बाद कोविड की वजह से एक फिर से मामला अधर में अटक गया. पूरे देश में लॉकडाउन लग गया और फिर अगले दो सालों तक मामला में कोई खास प्रगति नहीं हुई.
सितंबर 2019 से अब तक 59 बार मामले की सुनवाई हो चुकी है. हालांकि सितंबर 2019 के बाद पहला ऐसा आदेश आया जब निचली अदालत ने 10 नवंबर 2021 को अगली सुनवाई के दौरान व्यवस्था करने के लिए तिहाड़ जेल के अधीक्षक को पत्र जारी किया था और फिर 24 नवंबर 2021 का वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग से भटकल की कोर्ट के सामने पेशी हुई थी. इसके बाद दो साल के दौरान यह मामला कम से कम 30 बार सामने आया.
मामले से जुड़े एक वकील ने दिप्रिंट को बताया कि कोविड की वजह से वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिए भटकल को पुणे की अदालत में और फिर नियमित रूप से कोर्ट में पेश किया जाने लगा था. महामारी की शुरुआत के बाद से जिला अदालतों ने वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग से एक करोड़ से अधिक मामलों की सुनवाई की है.
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एक और बाधा
जब कोविड के मामले घटने लगे और भटकल के ट्रायल को लेकर चीजें आगे बढ़ने लगीं तो एक और रूकावट सामने आ गई. जिसकी वजह से इस मामले में कम से कम दो और महीनों की देरी हुई.
8 दिसंबर 2021 को ट्रायल कोर्ट ने नोट किया कि मुकदमा शुरू नहीं किया जा सकता है क्योंकि कार्यवाही का मूल रिकॉर्ड सुप्रीम कोर्ट को भेजा गया है, जो बेग के मामले में अपील पर सुनवाई कर रहा है. दिप्रिंट द्वारा देखे गए ट्रायल कोर्ट के आदेश में कहा गया ‘अभियोजन पक्ष ने तब तक मुकदमे को आगे बढ़ाने में असमर्थता जताई है जब तक कि अदालत को रिकॉर्ड और कार्यवाही की रिपोर्ट नहीं मिल जाती.’ अदालत ने आगे बढ़कर सुप्रीम कोर्ट के रजिस्ट्रार को बॉम्बे हाई कोर्ट के रजिस्ट्रार के माध्यम से मामले के रिकॉर्ड ट्रायल कोर्ट को भेजने का अनुरोध पत्र जारी किया था.
फिर कोर्ट ने दो महीने तक मूल रिकॉर्ड का इंतजार किया. इस साल 25 जनवरी और 3 फरवरी को रिकॉर्ड न मिलने की वजह से इस मामले को दो बार स्थगित करना पड़ा था.
हालांकि, इस साल फरवरी में अदालत को पता चला कि उसके पास मूल रिकॉर्ड तो पहले से ही था. मिक्स-अप के लिए माफी मांगते हुए, अदालती रिकॉर्ड ने बताया कि चूंकि भटकल के खिलाफ मामला एक नए केस नंबर- 2014 के स्पेशल केस एटीएस नंबर 1 के तहत दर्ज किया गया था- जो बेग के- 2010 के सत्र केस नंबर 771 से अलग था. इसलिए अदालत समझ नहीं पाया कि मूल रिकॉर्ड पहले ही उसे वापस कर दिया गया था.
मामले की सुनवाई आखिरकार इस साल जून में शुरू हुई. तब से लेकर अब तक यह मामला आठ बार सामने आ चुका है, जिसमें अलग-अलग गवाहों ने अपनी गवाही दी. पुणे कोर्ट रूम में गवाह स्टैंड के बगल में फाइलों के ढेर के पास टेबल पर कुछ इस तरीके से कंप्यूटर को रखा गया है कि गवाह और वकील वहां से भटकल को स्क्रीन पर देख सकें.
‘मैं यहां पर हजारों बंदिशों में हूं.’
एटीएस का दावा है कि भटकल ने ही बेकरी में बम लगाया था. एक अन्य व्यक्ति-मिर्जा हिमायत बेग ने कथित तौर पर महाराष्ट्र के लातूर जिले के उर्गीर में अपने ‘ग्लोबल इंटरनेट कैफे’ में बम को असेंबल करने में आईएम ऑपरेटिव की मदद की थी. एटीएस के मुताबिक, बेग भी बम लेकर भटकल के साथ पुणे गया था.
बेग को पहली बार 8 सितंबर 2010 को पुणे की अदालत में पेश किया गया था. बेग समेत सात लोगों के खिलाफ चार्जशीट दायर की गई थी. इनमें भटकल भी शामिल था. इन सभी को फरार दिखाया गया था. अभियोजन पक्ष ने आरोप लगाया था कि बेग प्रतिबंधित आतंकवादी संगठन लश्कर-ए-तैयबा (एलईटी) का सदस्य है.
बेग पर मुकदमा चलना दिसंबर 2010 में शुरू हुआ और दो साल, चार महीने और आठ दिनों तक चलता रहा. अप्रैल 2013 में दिए गए 278 पन्नों के फैसले में अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश एन.पी. धोटे ने अपराध के लिए बेग को पांच मौत की सजा और कई आजीवन कारावास की सजा सुनाई थी.
लेकिन मार्च 2016 में, बॉम्बे हाई कोर्ट ने बेग को सभी आतंकी आरोपों से बरी कर दिया और उसे सिर्फ एक ‘ब्लैकिश पदार्थ’ रखने के लिए दोषी ठहराया, जिसे बाद में आरडीएक्स बताया गया था. इसके अलावा उसे विकलांग प्रमाण पत्र, जाति प्रमाण पत्र, राशन कार्ड और डोमिसाइल जैसे जाली दस्तावेज रखने के लिए भी दोषी माना गया था. अदालत ने पाया कि अभियोजन पक्ष की घटनाएं आपस में जुड़ी हुई नहीं थीं. इनमें ‘लापता लिंक’ थे. अदालत ने कहा कि ‘ देश के हिस्सें में आतंक पैदा करने के लिए बम तैयार करने और अन्य आरोपियों को इसका इस्तेमाल करने में मदद करने की गतिविधियों से आरोपी को जोड़े जाने का कोई सबूत नहीं है.’
हाई कोर्ट के फैसले को चुनौती देने वाली बेग की अपील के साथ-साथ सरकार की याचिकाएं भी फिलहाल सुप्रीम कोर्ट में लंबित पड़ी हैं. और आतंक के आरोपों से बरी होने के बावजूद बेग कथित तौर पर पिछले छह सालों से एक अंडा सेल में बंद है.
मौत की सजा पाने वाले बेग को नागपुर सेंट्रल जेल के फांसी यार्ड में रखा गया था. मई 2016 में उसके भाई ने शिकायत की कि हाई कोर्ट द्वारा आतंक के आरोपों से बरी करने के बाद भी वह अन्य कैदियों से अलग-थलग पड़े कैदियों के लिए आरक्षित बैरक में बना हुआ है. उसे जुलाई 2016 में ही नासिक सेंट्रल जेल ले जाया गया था. लेकिन बेग के नवंबर 2020 में जेल अधिकारियों को लिखे गए एक पत्र के अनुसार, उसने अगले पांच साल एक अंडा सेल में बिताए हैं. सितंबर 2019 में अपने बचपन के दोस्त को लिखे गए एक अन्य पत्र में उसने लिखा, ‘मैं यहां पर हजारों बंदिशों में हूं.
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एक जोड़ी शॉर्ट्स और ड्रॉस्ट्रिंग
एटीएस ने दावा किया है कि भटकल की पहचान टोपी पहने हुए, कमर पर थैला लटकाए और बेकरी में बम लगाने के लिए अंदर आने वाले व्यक्ति के रूप में हुई. यहां मैकेरिनी और उसके आसपास बहुत से लोग शनिवार की सुखद शाम को खाने का मजा ले रहे थे. लेकिन 13 फरवरी 2010 को पुणे में भटकल के साथ कौन था? जवाब इस बात पर निर्भर करता है कि आप किससे पूछ रहे हैं.
एटीएस ने दावा किया है कि भटकल बेग के साथ था. जांच एजेंसी ने एक ऑटो रिक्शा चालक की गवाही पर भरोसा किया. चालक ने 27 मई 2010 को एटीएस ऑफिस पहुंचकर बताया था कि उसने भटकल और बेग को पुणे के रेलवे स्टेशन से शहर के सेंट्रल मॉल में छोड़ा था. अखबार में छपी टोपी में इस व्यक्ति की एक तस्वीर ने जाहिर तौर पर उसकी याददाश्त को जगा दिया, जिसके बाद उसने खुद से एटीएस कार्यालय में आकर यह सूचना दी लेकिन बॉम्बे हाईकोर्ट ने ऑटो रिक्शा चालक की गवाही को यह कहते हुए खारिज कर दिया कि ‘उसके सबूत विश्वास से परे हैं.’
लेकिन अगर आप दिल्ली पुलिस की स्पेशल सेल से पूछें, तो उनसे अलग ही जवाब मिलेगा. हो सकता है कि वे कहें, वो मोहम्मद कतील सिद्दीकी था न कि बेग. नवंबर 2011 में दिल्ली पुलिस ने सिद्दीकी को 2010 के चिन्नास्वामी स्टेडियम बैंगलोर विस्फोटों और 2010 में दिल्ली में जामा मस्जिद हमले में उसकी कथित भूमिका के लिए गिरफ्तार किया था. दिल्ली पुलिस और बाद में बैंगलोर पुलिस की पूछताछ के दौरान, सिद्दीकी ने यासीन भटकल के साथ जर्मन बेकरी विस्फोटों में अपनी भूमिका स्वीकार कर ली थी. लेकिन बेग का जिक्र बिल्कुल नहीं किया था.
बॉम्बे हाई कोर्ट में बेग की तरफ से केस लड़ रहे महमूद प्राचा ने भी विस्फोटों में बेग की भूमिका की पुन: जांच की मांग की थी. प्राचा अभी भी अपने रुख पर कायम हैं. उनका मानना है कि बेग के खिलाफ सबूत के तौर पर पेश किए गए सीसीटीवी फुटेज के साथ ‘छेड़छाड़’ की गई थी.
2013 में रिपोर्टों ने यह भी दावा किया था कि भटकल ने जांच एजेंसियों से पहले ही जर्मन बेकरी विस्फोटों की जिम्मेदारी ले ली थी लेकिन उसने बतौर साथी साजिशकर्ता मोहम्मद कतील सिद्दीकी का नाम लिया था.
सभी अच्छी जासूसी कहानियों की तरह इस कहानी में भी एक बड़ा मोड़ था जिसने बेग की बेगुनाही में विश्वास करने वालों के लिए कई लीड बंद कर दीं. जून 2012 में सिद्दीकी को एक उच्च सुरक्षा वाले और एक अंडा सेल में कथित तौर पर कुछ साथी कैदियों ने दो निक्कर के एक नाड़े से मौत के घाट उतार दिया था. पुणे की एक अदालत द्वारा 8 जून तक न्यायिक हिरासत में भेजे जाने के बाद, उन्हें यरवदा जेल में शिफ्ट करने के दस दिन बाद यह घटना हुई थी. जिस दिन उसकी न्यायिक हिरासत खत्म होनी थी, उसी दिन उसकी हत्या कर दी गई.
उसके परिवार ने रोना रोया और हत्या की सीबीआई जांच की मांग की. उसकी आठ महीने की गर्भवती पत्नी फातिमा ने आरोप लगाया कि एटीएस और इंटेलिजेंस ब्यूरो ने अपनी गलतियों को छिपाने के लिए उसके पति को जेल में मार डाला. यहां तक कि उन्होंने बॉम्बे हाईकोर्ट में एक याचिका भी दायर की, जिसमें केंद्रीय एजेंसी या अदालत द्वारा नियुक्त विशेष जांच दल द्वारा निष्पक्ष जांच की मांग की गई थी. वैसे यह याचिका भी जून 2013 से हाईकोर्ट में लंबित है.
‘ अब यह बदल गया है’
लंबी कम्युनिटी टेबल, ताजा बेक्ड ब्रेड, एक मैनुअल एस्प्रेसो मशीन और विदेशी भाषाओं का शोर- विस्फोट से पहले जर्मन बेकरी की ये एक तस्वीर थी. ज्ञानेश्वर की 19 वर्षीय बेटी स्नेहल खरोसे को फिर से जगह बनाने और चलाने में तीन साल लग गए. 13 फरवरी 2013 को विस्फोट की तीसरी बरसी पर उसने इस बेकरी को फिर से स्टार्ट किया था.
उसे लग रहा था कि लोग वापस आने में डरेंगे लेकिन वह गलत साबित होने पर खुश थी.
‘वह याद करते हुए बताती हैं, ‘ सच कहूं तो लोग काफी सपोर्टिव थे. कंस्ट्रक्शन फेज में लाग आकर पूछते थे कि बेकरी फिर से कब शुरू होगी.’
उन्होंने माना कि बेकरी का माहौल अब बिल्कुल अलग है. लेकिन इसके लिए वह ‘बदलते समय’ को जिम्मेदार मानती हैं.
उसने दिप्रिंट को बताया, हमारे पास पहले पूरे गोवा की शैक वाइब्स थीं…. मुझे लगता है कि हमने पिछले एक के साथ न्याय नहीं किया था, यह अब पूरी तरह से अलग है, हमने पूरे माहौल को बदल दिया है लेकिन यह विस्फोट से पहले भी था.’ सोमवार की सुबह बेकरी में उमड़ी भीड़ की ओर इशारा करते हुए वह आगे कहती है ‘यह अभी भी लोगों का पसंदीदा है.’. कोरेगांव पार्क की गलियों में आज भी उन्हें ‘नानू की बेटी’ के रूप में पहचाना जाता है. लेकिन अब इन गलियों में अपनी गुलाबी साइकिल पर साइकिलिंग करती नादिया कभी नजर नहीं आएगी..
ओशो आश्रम की नादिया की दोस्त ईशाना मेयर कहती हैं, ‘वह बहुत छोटी थी, उसके पैर मुश्किल से बाइक के पैडल को छूते थे.’
उसके दोस्तों के पास अब नादिया को समर्पित एक फेसबुक पेज है, जिसका अनुवाद कुछ इस तरह है: ‘हम आपको सार्वभौमिक सत्य और सांसारिक शांति की खोज में याद करते हैं.’ जनवरी 2008 के एक पत्र से पता चला कि नादिया अपने भविष्य के लिए आशा से भरी थी. उसने विस्फोट से दो साल पहले एक दोस्त को लिखा था और बताया था कि कैसे वह अब ‘स्थिरता’ खोजने के लिए इसे ‘इस साल का अपना सबसे बड़ा मकसद’ बना रही है. वह ‘एक सुंदर पुराने स्कूल की कहानी को रचने, इसे आधुनिक विवरणों के साथ फिर से देखने’ के लिए दृढ़ थी और इसमें ‘मुख्य किरदार’ के रूप में वह खुद थी.
सैंतीस साल की नादिया ने विस्फोट से लगभग एक सप्ताह बाद पुणे से इटली की अपनी अंतिम यात्रा की थी. मेयर को नादिया की इटली की अंतिम यात्रा के लिए कपड़े खरीदने का भी काम सौंपा गया था. ईशाना का कहना है कि उसने नादिया को ‘एक प्यारी गुलाबी पोशाक’ खरीदी. उसने उसे ‘ग्रे कश्मीरी स्वेटर’ भी खरीदा.
उन्होंने कहा, ‘क्योंकि नादिया को हमेशा ठंड ज्यादा लगती थी.’
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