लखनऊ: इस साल 15 अगस्त को, जब भारत ने अपना 77वां स्वतंत्रता दिवस मनाया, उत्तर प्रदेश पुलिस के आतंकवाद विरोधी दस्ते (ATS) ने राज्य में माओवादी आंदोलन को पुनर्जीवित करने की कोशिश में कथित संलिप्तता को लेकर पांच लोगों को गिरफ्तार किया है.
इसके बाद राष्ट्रीय जांच एजेंसी (NIA) – संघीय एजेंसी जिसे भारत में आतंक से संबंधित अपराधों की जांच करने का जिम्मा है – द्वारा छापेमारी की एक सीरीज को प्रतिबंधित भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) पर कार्रवाई के रूप में बताया गया.
जिन स्थानों पर छापेमारी की गई उनमें वाराणसी में दो महिला छात्र नेताओं के आवास और प्रयागराज में पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज (PUCL) के तीन कार्यकर्ताओं का घर शामिल है. हालांकि, बीजेपी सरकार के विरोधी इसे सरकार से असहमति रखने वाले पर हमला का प्रयास कहते हैं.
उत्तरप्रदेश में माओवादी आंदोलन पर करीब से नजर रखने वाले सेवारत और सेवानिवृत्त आईपीएस अधिकारियों के अनुसार, आज उनको काफी कम समर्थन मिल रहा है. लेकिन 90 के दशक में – एक समय जब यह देश के कई हिस्सों माओवादी आंदोलन ताकत हासिल कर रहा था – आंदोलन ने गहरे जाति-पीड़ित राज्य में महत्वपूर्ण पैठ बना ली थी.
उनका कहना है कि यह राज्य का व्यावहारिक दृष्टिकोण और “आइरन हैंड” था जिसने आंदोलन को रोकने में मदद की.
दिप्रिंट देश के सबसे अधिक आबादी वाले राज्य में माओवादी विद्रोह के उत्थान और पतन और इस समय यहां क्या हो रहा है, इस पर एक नज़र डाल रहा है.
शुरुआत- ‘पड़ोसी राज्यों से आगमन’
भारत में माओवादी विद्रोह की जड़ें नक्सलबाड़ी विद्रोह में हैं. यह एक सशस्त्र किसान विद्रोह था, जो 1967 में पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी में शुरू हुआ था. उत्तरप्रदेश के पूर्व पुलिस महानिदेशक सुलखान सिंह के अनुसार, 90 के दशक तक, आंदोलन ने यूपी के दक्षिणी, मध्य और पूर्वी हिस्से में अपनी पकड़ बना ली थी.
यह विशेष रूप से बिहार, वर्तमान झारखंड और वर्तमान छत्तीसगढ़ की सीमा से लगा हुआ क्षेत्र था, जहां विद्रोह काफी मजबूत था और अभी भी मजबूत है.
1980 बैच के उत्तर प्रदेश कैडर के आईपीएस अधिकारी सुलखान सिंह कहते हैं, “सोनभद्र, मिर्ज़ापुर, चंदौली, ग़ाज़ीपुर, बलिया, देवरिया, कुशीनगर, महराजगंज और गोरखपुर सभी रेड कॉरिडोर का हिस्सा थे जो नेपाल तक फैला हुआ था.”
भारत के पूर्वी, मध्य और दक्षिणी भागों में स्थित, रेड कॉरिडोर, जिसे रेड ज़ोन के रूप में भी जाना जाता है, माओवादी विद्रोह से सबसे अधिक प्रभावित क्षेत्र है. हालांकि 90 के दशक में उग्रवाद जोर पकड़ चुका था, लेकिन 60 के दशक की शुरुआत में ही राज्य में माओवादी हिंसा की खबरें आने लगी थीं.
उत्तर प्रदेश के पूर्व डीजीपी और सीमा सुरक्षा बल (BSF) के पूर्व प्रमुख प्रकाश सिंह ने ज्वाइंट स्पेशल ऑपरेशंस यूनिवर्सिटी (JSOU) के लिए लिखी अपनी 2012 की रिपोर्ट में 60 के दशक में लखीमपुर जिले के पलिया में कुछ क्षेत्रों में माओवादी “अशांति” का उल्लेख किया है. JSOU अमेरिकी रक्षा विभाग के तहत एक संस्थान है जो रणनीतिक और परिचालन चुनौतियों के लिए ट्रेनिंग देता है.
सिंह की रिपोर्ट, जिसका शीर्षक ‘अनियमित युद्ध: भारत की आंतरिक सुरक्षा के लिए माओवादी चुनौती’ है, माओवादी नेता विश्वनाथ तिवारी के नेतृत्व वाले इलाके में “कई हिंसक घटनाओं” के बारे में बताती है.
विशाल वन क्षेत्र के साथ, पलिया में आदिवासी थारू समुदाय का निवास स्थान था. पूर्व-डीजीपी, जिन्हें भारत में ऐतिहासिक पुलिस सुधारों को बढ़ावा देने का श्रेय दिया जाता है, अपनी रिपोर्ट में लिखते हैं, “राज्य सरकार ने अन्य क्षेत्रों, खासकर पूर्वी यूपी के किसानों को पलिया आने, जंगलों को साफ करने और खेती करने के लिए प्रोत्साहित किया.”
रिपोर्ट में कहा गया है कि इन लोगों ने, जिनमें से कुछ अमीर और प्रभावशाली थे, जबरन जमीन के बड़े हिस्से पर कब्जा कर लिया और जनजातियों को उनकी जमीन से बेदखल कर दिया.
वह लिखते हैं, “नक्सलियों ने उनकी शिकायत का फायदा उठाया और अंततः पुलिस ने आंदोलन को खत्म कर दिया.”
रिपोर्ट में कहा गया है कि कानपुर, उन्नाव, हरदोई, फर्रुखाबाद, बरेली, मोरादाबाद, बहराईच, वाराणसी और आज़मगढ़ जैसे अन्य जिलों में भी हिंसा की छिटपुट घटनाएं हुईं.
हालांकि, इसके बावजूद, साल 2000 तक यूपी में एक भी माओवाद से जुड़े FIR दर्ज नहीं हुए थे. तब तक, तत्कालीन माओवादी कम्युनिस्ट सेंटर (MCC) राज्य में सक्रिय हो गया था, जिसने दक्षिण यूपी में दक्षिण पूर्वाचल संगठनिक सब-जोनल कमेटी की स्थापना की और बाद में अन्य स्थानीय और क्षेत्रीय समितियों में अपनी शाखाएं स्थापित कीं.
भारत में दो सबसे बड़े सशस्त्र माओवादी समूहों में से एक, MCC का सितंबर 2004 में पीपुल्स वॉर ग्रुप में विलय हो गया और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) का गठन हुआ.
अक्टूबर 2000 में, माओवादियों ने सोनभद्र में एक स्टेशन हाउस अधिकारी और एक कांस्टेबल का कथित तौर पर अपहरण कर लिया और उनकी हत्या कर दी. जल्द ही कई अन्य घटनाएं भी देखने को मिली. 2001 में प्रतिबंधित MCC पर मिर्ज़ापुर के खोराडीह में एक प्रांतीय सशस्त्र कांस्टेबुलरी (PAC) शिविर पर छापा मारने और 14 सेल्फ-लोडिंग राइफल्स और एक स्टेन गन सहित हथियारों का जखीरा ले जाने का आरोप लगाया गया था.
2002 में, पूर्व प्रधानमंत्री चंद्र शेखर ने तत्कालीन केंद्रीय गृह मंत्री एल.के. आडवाणी को एक पत्र लिखा था, जिसमें उन्होंने पूर्वी यूपी के तीन जिलों – सोनभद्र, मिर्ज़ापुर और चंदौली – में बिहार से माओवादियों के आगमन के बारे में बात की थी.
सोनभद्र बिहार, छत्तीसगढ़, झारखंड और मध्यप्रदेश से घिरा है. इस बीच, मिर्ज़ापुर की सीमाएं मध्यप्रदेश से और चंदौली की सीमाएं बिहार से लगती हैं.
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2003 में, विजयगढ़ के पूर्व राजा और भारत के सर्वोच्च नागरिक पुरस्कारों में से एक पद्म भूषण के प्राप्तकर्ता सरन शाह की विद्रोहियों ने गोली मारकर हत्या कर दी थी.
2004 में, नौगढ़ के हिनौत घाट में पुलिस और PAC जवानों को ले जा रहे एक ट्रक को माओवादियों द्वारा लगाए गए बारूदी सुरंग से उड़ा दिया गया था. इसने राज्य सरकार के लिए एक चेतावनी के रूप में काम किया, जिसके बाद बढ़ते उग्रवाद से निपटने के लिए राज्य सरकार सचेत हुई. सरकार ने राज्य के इन सबसे पिछड़े क्षेत्रों में विकास के साथ पुलिस कार्रवाई पर भी जोर दिया.
सभी तीन जिलों – मिर्ज़ापुर, सोनभद्र और चंदौली – को माओवाद प्रभावित घोषित किया गया था.
हथियार कारखाने से निकटता, जातिगत शोषण
पूर्व डीजीपी सुलखान सिंह के अनुसार, विद्रोही जबरन वसूली के उद्देश्य से पुलिस, जमींदारों और ठेकेदारों को निशाना बनाते थे.
1990 के दशक के अंत में मिर्ज़ापुर के उप महानिरीक्षक के रूप में तैनात सिंह कहते हैं, “धीरे-धीरे वे हथियार लूट, ठेकेदारों से जबरन वसूली, अपहरण आदि में शामिल हो गए. चंदौली का नौगढ़ और साहबगंज उनका गढ़ बन गया था. लेकिन पुलिस ने उन पर सख्ती की और कई लोग मारे गए. आखिरकार कानपुर उनका अगला टारगेट बना और उन्होंने उस क्षेत्र के उद्योग और संस्थानों को पंगु बना दिया.”
यूपी पुलिस के एक वरिष्ठ अधिकारी ने दिप्रिंट को बताया कि माओवादियों ने गोला-बारूद प्राप्त करने के लिए न केवल कानपुर की हथियार फैक्ट्री के श्रमिकों के साथ दोस्ती बढ़ाई, बल्कि मेरठ के हथियार डीलरों के साथ भी संबंध स्थापित किए.
उन्होंने कहा, “वे कानपुर में हथियार कारखाने के निचले अधिकारियों को रिश्वत देते थे और उन्होंने वहां सहयोगियों का एक नेटवर्क विकसित किया था. रिश्वत लेने वाले हथियारबंद लोग माओवादी समूहों को हथियार बेचेंगे.”
ऊपर उद्धृत एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी के अनुसार उत्तरप्रदेश में गहरी जड़ें जमा चुकी जातिवाद इस आंदोलन को फैलाने में मददगार साबित हुई. अधिकारी ने कहा कि विडंबना यह है कि भारत के जातिवाद के खिलाफ प्रतीत होने वाले एक आंदोलन के लिए, इसके नेतृत्व की स्थिति ज्यादातर उच्च जाति के नेताओं के पास थी और इसकी कम रैंक पर निचली जातियों भरी जा रही थी.
उन्होंने कहा कि उनकी योजना नेपाल तक अपनी पकड़ मजबूत करने की थी.
अधिकारी ने कहा, “उन्होंने विशेष रूप से पासी समुदाय (एक दलित जाति समूह) को प्रभावित किया था, जो मध्य और पूर्वी यूपी के कई जिलों में बड़ी संख्या में मौजूद है. नौकरशाही में बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार के कारण, उन्होंने उत्पीड़ित समूहों की शिकायतों का इस्तेमाल उन्हें सरकार के खिलाफ प्रभावित करने के लिए किया.”
सुलखान सिंह ने कहा कि हालांकि माओवादी समूहों को शुरुआत में नेपाल के कम्युनिस्टों से मदद मिली, लेकिन 2000 के दशक के अंत में कम्युनिस्टों के सत्ता में आने के तुरंत बाद यह बंद हो गया.
पूर्व डीजीपी ने भवानीपुर में हुई गोलीबारी का जिक्र करते हुए कहा, “भारतीय सुरक्षा बलों और स्थानीय पुलिस की कार्रवाई के बाद उनकी रीढ़ टूट गई, खासकर 9 मार्च 2001 में मिर्ज़ापुर के मरिहान पुलिस स्टेशन के एक गांव में एक मुठभेड़ में उनमें से 15 को मार गिराया गया था.”
कथित तौर पर मुठभेड़ में मारे गए लोगों में पांच माओवादी नेता भी शामिल थे.
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प्रतीकवाद, लेकिन कोई बड़ा राजनीतिक समर्थन नहीं
यूपी में मौजूदगी के बावजूद माओवादी आंदोलन का प्रसार सीमित था. पूर्व डीजीपी सुलखान सिंह के अनुसार ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि उन्हें बड़े स्तर पर कोई समर्थन नहीं मिल रहा था.
उन्होंने कहा, “बुंदेलखंड में माओवादियों को यूपी के कुछ राजनेताओं से प्रतीकात्मक रूप से समर्थन प्राप्त था, लेकिन यह सीमित था और अधिकांश सरकारें, विशेष रूप से मायावती सरकार और बीजेपी सरकारें उन पर कड़ी कार्रवाई करती थीं.”
2010 में, राज्य खुफिया जानकारी के आधार पर कार्रवाई करते हुए, तत्कालीन मुख्यमंत्री मायावती ने यूपी के तीन सबसे अधिक माओवादी प्रभावित जिलों सोनभद्र, मिर्ज़ापुर और चंदौली में 761 गांवों को अंबेडकर ग्राम घोषित किया.
इन गांवों को अंबेडकर ग्राम विकास योजना के तहत लाने के बाद, उन्होंने विद्युतीकरण, स्वास्थ्य देखभाल, पेयजल सुविधाओं और सार्वजनिक वितरण प्रणाली में सुधार का आदेश दिया.
यूपी पुलिस के एक अन्य वरिष्ठ अधिकारी के अनुसार कि सरकार का विचार यह था कि माओवादी विचारधारा के प्रसार को रोकने के लिए इन क्षेत्रों में विकास में तेजी लाई जाए. अधिकारी ने दिप्रिंट को बताया, “चूंकि बीएसपी के वोटबैंक में मुख्य रूप से दलित आबादी शामिल थी जो माओवादी विचारधारा से प्रभावित थी, इसलिए वह उन पर सख्त हो गई.”
रणनीति का एक हिस्सा राज्य पुलिस को युद्ध में प्रशिक्षित करना भी था. परिणामस्वरूप, मायावती ने यूपी पुलिस के जवानों को जंगलों में युद्ध करने के ट्रेनिंग के लिए छत्तीसगढ़ भेजे. इसके अलावा PAC यूनिट को ग्रेहाउंड्स से ट्रेनिंग दिलवाई गई जो तत्कालीन अविभाजित आंध्रप्रदेश में विद्रोह से निपटने के लिए स्पेशल यूनिट थी.
पुलिस ने इन जिलों में युवाओं को ड्राइवर और कंप्यूटर ऑपरेटर की ट्रेनिंग देना भी शुरू कर दिया, जिनमें से कई को अंततः सुरक्षा और खुफिया संगठनों द्वारा अपने में मिला लिया गया.
अतिरिक्त पुलिस महानिदेशक (विशेष कार्य बल) अमिताभ यश ने दिप्रिंट को बताया, “PAC की तैनाती और पुलिस के ट्रेनिंग से यूपी में माओवादी गतिविधि को बढ़ने से रोकने में मदद मिली.”
लेकिन यह सिर्फ मायावती सरकार नहीं थी जिसने विद्रोहियों पर सख्त कार्रवाई की. 2014 में एक कार्यक्रम में बोलते हुए तत्कालीन केंद्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने कहा था कि जब वह 2000 और 2002 के बीच राज्य के मुख्यमंत्री थे तो उन्होंने “माओवादी खतरे से निपटने” के दौरान “मानवअधिकार आयोग द्वारा पुलिस बलों को परेशानी से मुक्ति” का आश्वासन दिया था.
इन सभी प्रयासों से राज्य में आंदोलन को रोकने में मदद मिली. 2021 में, गृह मंत्रालय ने उत्तरप्रदेश राज्य को “माओवादी-मुक्त” घोषित किया.
माओवादियों पर अंकुश या असहमति पर नकेल?
पिछले महीने की कार्रवाई के बाद अपने बयान में, NIA ने कहा कि “सीपीआई (माओवादी) के कैडरों को प्रेरित करने/भर्ती करने के लिए फ्रंटल संगठनों और स्टूडेंय्स विंग्स द्वारा प्रयास किए गए थे”.
एक सप्ताह पहले बिहार में एक महत्वपूर्ण गिरफ्तारी के बाद यह कार्रवाई की गई. 10 अगस्त को बिहार पुलिस ने 2021 डुमरिया नरसंहार में कथित संलिप्तता के लिए वांछित सीपीआई (माओवादी) पोलित ब्यूरो सदस्य प्रमोद मिश्रा को गिरफ्तार किया था. यह एक ऐसा मामला था जिसमें चार माओवादियों की मौत का बदला लेने के लिए एक ही परिवार के चार लोगों की हत्या कर दी गई थी.
अपने बयान में, NIA ने कहा कि पिछली FIR में उसने कई संदिग्धों को नामित किया था, जिनमें मनीष आज़ाद और रितेश विद्यार्थी के साथ-साथ उनके सहयोगी विश्व विजय और उनकी पत्नी सीमा आज़ाद, मनीष की पत्नी अमिता शिरीन, कृपा शंकर, सोनी आज़ाद, आकांक्षा शर्मा और शामिल थे. राजेश आज़ाद (राजेश चौहान) प्रमुख व्यक्ति हैं जो राज्य में सीपीआई (माओवादी) को पुनर्जीवित करने की कोशिश कर रहे थे.
कथित तौर पर राजेश चौहान आज़मगढ़ के खिरियाबाग में मंदुरी हवाई अड्डे के विस्तार के खिलाफ सक्रिय रूप से विरोध कर रहे हैं. ऐसा माना जाता है कि वह संयुक्त किसान मोर्चा (SKM) से भी जुड़ा हुआ है – वह किसान संगठन जो नरेंद्र मोदी सरकार के अब निरस्त किए गए कृषि कानूनों के खिलाफ विरोध प्रदर्शन का नेतृत्व कर रहा था.
इस बीच, आकांक्षा भगत सिंह छात्र मोर्चा (BSM) की पदाधिकारी हैं – एक छात्र संगठन जो छात्रावासों में ओबीसी छात्रों के लिए आरक्षण सहित कई मुद्दों पर विरोध प्रदर्शन का नेतृत्व कर रहा है.
2022 के उत्तर प्रदेश चुनाव में समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन करने वाली पार्टी जनवादी पार्टी (सोशलिस्ट) के दो सदस्यों के यहां भी छापा मारा गया था.
पुलिस की कार्रवाई पर राज्य में तीखी प्रतिक्रिया हुई है. वामपंथी समूहों और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने इसे असहमति का दमन बताया है.
वाराणसी स्थित राजनीतिक संगठन कम्युनिस्ट फ्रंट के संयोजक मनीष शर्मा का दावा है कि 90 के दशक में सरकारी कार्रवाई के बाद से यूपी में विद्रोह शांत हो गया था.
उन्होंने कहा, “उनकी गतिविधि लगभग खत्म हो चुकी है. हालांकि, हम यह नहीं कह सकते कि संगठन के अंदर क्या हो रहा है. यहां तक कि माओवादी समर्थक भी कहते हैं कि उनकी पकड़ ख़त्म हो गई है. अभी, आदिवासियों, छात्रों के मुद्दों, (अब-समाप्त) कृषि कानूनों के लिए काम करने वाले और सरकार के कामकाज का आलोचनात्मक विश्लेषण करने वाले सभी लोगों को नक्सली करार दिया जा रहा है.”
उन्होंने कहा, “कार्यकर्ताओं के खिलाफ एक झूठी कहानी बनाई जा रही है और सरकार यह सुनिश्चित करना चाहती है कि उन्हें दरकिनार कर दिया जाए.”
शर्मा ने कहा कि सरकार का यह प्रयास है कि आम जनता आदिवासियों, अल्पसंख्यकों और छात्रों के हितों की वकालत करने वाले किसी भी व्यक्ति से दूर रहे.
उन्होंने कहा, “मुझे भी यूपी ATS ने 15 मई को उठाया था और छोड़े जाने से पहले कई दिनों तक मुझसे पूछताछ की गई थी. जब भी NIA और ATS जैसी एजेंसियां शामिल होती हैं, तो आम जनता सोचती है कि मामला कुछ गंभीर है. लेकिन वे (सरकार) छापे में निशाना बनाए गए लोगों को किसी हिंसक गतिविधि से जोड़ने का कोई सबूत देने में असमर्थ हैं.”
(संपादन: ऋषभ राज)
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