नई दिल्ली: कुछ कृषि नीतियों की समीक्षा के लिए मोदी सरकार द्वारा गठित एक 29-सदस्यीय कमेटी, तेज़ी के साथ किसान यूनियनों और पंजाब सरकार के लिए एक अप्रिय विषय बनती जा रही है.
किसानों संगठनों द्वारा एक साल तक चलाए गए आंदोलन के बाद, नरेंद्र मोदी सरकार ने पिछले साल नवंबर में उन तीन कृषि क़ानूनों को रद्द कर दिया था, जिन्हें उसने 2020 में बनाया था. किसान यूनियनों के साथ बातचीत के दौरान सरकार इस मांग पर विचार करने के लिए सहमत हो गई थी, कि न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) को एक क़ानूनी हक़दारी बना दिया जाए.
आठ महीने बाद, इस साल 12 जुलाई को एक बड़े पैनल का गठन कर दिया गया, जिसे बहुत सी कृषि नीतियों पर विचार-विमर्श करना था- एमएसपी व्यवस्था को पारदर्शी और कारगर बनाने से लेकर, फसलों के पैटर्न के विविधीकरण तक. कमेटी को ये भी ज़िम्मा दिया गया है, कि वो ‘भारत की प्राकृतिक खेती व्यवस्था’ को प्रोत्साहित करने के तरीक़े सुझाएगी, और मौजूदा सूक्ष्म सिंचाई स्कीमों की भी समीक्षा करेगी.
कमेटी की अध्यक्षता पूर्व कृषि सचिव संजय अग्रवाल कर रहे हैं. कृषि क़ानून उस समय लाए गए थे जब वो अपने पद पर थे.
संयुक्त किसान मोर्चे (एसकेएम) ने, जिसने दिल्ली की दहलीज पर कृषि क़ानूनों के खिलाफ आंदोलन की अगुवाई की थी, पैनल में शामिल होने से इनकार कर दिया है, जो उसके अनुसार ‘सरकार के वफादारों और सुधार क़ानूनों के समर्थकों’ से भरा हुआ है.
सार्वजनिक खाद्य भंडारों में सबसे अधिक अनाज सप्लाई करने वाले राज्यों में से एक, पंजाब ने कमेटी के गठन पर कड़ी आपत्ति जताई है. बुधवार सवेरे मुख्यमंत्री भगवंत मान ने, पंजाब सरकार के किसी प्रतिनिधि को पैनल में शामिल न किए जाने पर, सरकार की कड़ी आलोचना की.
चार सूबे- आंध्र प्रदेश, ओडिशा, कर्नाटक और सिक्किम 29-सदस्यीय पैनल का हिस्सा है.
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भावी टकराव
एमएसपी के मोर्चे पर पैनल से ऐसी प्रणाली का सुझाव देने के लिए कहा गया है, जिससे देश भर के किसानों के लिए समर्थन मूल्य अधिक कारगर और पारदर्शी हो जाएं.
उसके अलावा, कमेटी से इस बारे में भी सिफारिशें देने के लिए कहा गया है कि ‘देश की बदलती ज़रूरतों के अनुरूप, मौजूदा कृषि विपणन प्रणाली को किस तरह मज़बूत किया जाए, ताकि घरेलू तथा निर्यात अवसरों का फायदा उठाकर सुनिश्चित किया जा सके कि किसानों को ऊंचे दाम मिल सकें.’
दिप्रिंट से बात करने वाले कुछ विशेषज्ञों के अनुसार, पंजाब जैसे प्रांतों में मौजूदा ख़रीद प्रणाली में बदलाव, और अन्य राज्यों में एमएसपी-आधारित खरीदारियों के विस्तार के नतीजे में- जो बाद में कमेटी की संभावित सिफारिशों के बाद सामने आ सकते हैं- आम आदमी पार्टी (आप)-शासित पंजाब और केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार के बीच सियासी टकराव पैदा हो सकता है.
फिलहाल, केंद्र सरकार पंजाब और हरियाणा के किसानों द्वारा उगाया जाने वाला अधिकतर चावल और गेहूं समर्थन मूल्यों पर ख़रीद लेती है. 2020 में जब सरकार सुधार क़ानून लेकर आई, तो इन सूबों के किसानों को डर सताने लगा कि निर्धारित क़ीमतों पर होने वाली सरकारी ख़रीद में कमी आ जाएगी, और उन्होंने क़ानूनों को वापस लिए जाने की मांग की.
किसान संगठन भारत कृषक समाज के अध्यक्ष, और पंजाब किसान आयोग के पूर्व अध्यक्ष अजय जाखड़ ने दिप्रिंट से कहा, ‘कमेटी की संरचना को देखकर ऐसा लगता है कि सरकार पंजाब जैसे सूबों में खुली ख़रीद नीति को ख़त्म करने का रास्ता तलाश रही है, और समर्थन मूल्यों के लाभ को दूसरे राज्यों में विस्तारित करना चाहती है.’
जाखड़ ने आगे कहा कि पंजाब के अलावा हरियाणा और मध्यप्रदेश का भी कमेटी में कोई प्रतिनिधित्व नहीं है, जो सार्वजनिक खाद्य भंडारों में अच्छा ख़ासा योगदान देते हैं.
विस्तृत दायरा
कमेटी के पास, जिसे अपनी सिफारिशें देने के लिए कोई समय-सीमा नहीं दी गई है, एक व्यापक जनादेश है.
एक सरकारी अधिसूचना के अनुसार, अपेक्षा की जा रही है कि ये मेगा पैनल ‘देश की बदलती ज़रूरतों के मद्देनज़र फसल पैटर्न को बदलने के लिए, ज़ीरो-बजट आधारित (प्राकृतिक) खेती को बढ़ावा देगा, और एमएसपी को अधिक कारगर और पारदर्शी बनाएगा’.
राजनीतिक विश्लेषक और संयुक्त किसान मोर्चा सदस्य योगेंद्र ने कहा, ‘इनमें से बहुत से मुद्दों पर कमेटियां पहले ही विचार कर चुकी हैं, और अपनी रिपोर्ट्स सरकार को सौंप चुकी हैं’.
इन पिछली कमेटियों में ‘किसानों की आय दोगुनी’ करने के लिए गठित पैनल जिसने 2018 में 14-वॉल्यूम रिपोर्ट पेश की थी, और पूर्व हिमाचल सीएम शांता कुमार की अगुवाई में एक उच्च-स्तरीय पैनल भी शामिल है, जिसने 2015 में सार्वजनिक खाद्य ख़रीद सुधारों पर एक रिपोर्ट पेश की थी.
इसके अलावा रमेश चंद की अध्यक्षता में, जो फिलहाल नीति आयोग के सदस्य हैं, एक कमेटी ने 2015 में एमएसपी की गणना के तरीक़े की समीक्षा पर एक रिपोर्ट दाख़िल की थी.
यादव ने कहा, ‘जहां एक ओर ये ताज़ा कमेटी वापस लिए गए कृषि क़ानूनों के लिए, भविष्य में पिछले दरवाज़े से दाख़िल होने का रास्ता साफ कर सकती है, वहीं दूसरी ओर ये एक नाकाम प्रयास भी साबित हो सकती है. ये बॉक्स पर एक टिक की तरह है…प्रधानमंत्री ने घोषणा कर दी थी, तो ये बना दी गई है.’
कमेटी के जिन दो सदस्यों से दिप्रिंट ने बात की, उनका कहना था कि पैनल में शामिल किए जाने से पहले उनसे परामर्श नहीं किया गया था. अधिसूचना जारी होने के आठ दिन बाद भी, दोनों को अभी आधिकारिक सूचना का इंतज़ार है कि वो अब पैनल के सदस्य बन गए हैं.
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