रायपुर: छत्तीसगढ़ के नक्सली कैडर में अब स्थानीय बनाम बाहरी की चर्चा शुरू हो गई है. आत्मसमर्पण कर चुके पूर्व नक्सलियों का कहना है कि बड़े नक्सली नेता अक्सर आंध्र प्रदेश या तेलंगाना के रहने वाले होते हैं. कुछ साल नक्सली रहने के बाद वो आत्मसमर्पण करके आराम की जिंदगी बिताते हैं, लेकिन अगर कोई स्थानीय नक्सली सरेंडर करता है तो उसे ‘गद्दार’ बताकर जान से मारने की बात की जाती है.
उनका ये भी आरोप है कि चूंकि बड़े नेता अक्सर आंध्र प्रदेश या फिर तेलंगाना के होते हैं और वो स्थानीय माओवादियों के साथ भेदभाव भी करते हैं.
2014 में आत्मसमर्पण कर चुके आठ लाख के इनामी और पूर्व माओवादी संजय पोटाम (32) ने दिप्रिंट को बताया, ‘स्थानीय (छत्तीसगढ़) लोगों को कोई बड़ी जिम्मेदारी और पद नहीं दिया जाता है. उनसे कहा जाता है कि वे ज्यादा पढ़े लिखे नहीं हैं और उनको पॉलिटिक्स नहीं आती. वे बड़ी जिम्मेदारी सभांल नही सकते हैं.
बस्तर में माओवाद ने वर्ष 1980 में पांव पसारा था, संजय बताते है, ‘ माओवाद के बस्तर में प्रवेश के बाद आज तक कोई भी स्थानीय माओवादी सीपीआई (माओवादी) की राज्य स्तरीय जोनल कमेटी या सेंट्रल कमेटी का सदस्य नहीं बनाया गया है. स्थानीय व्यक्ति अधिकतम डिवीज़नल एरिया कमेटी का सदस्य बन पाता है वह भी इसलिये की सुरक्षाबलों के साथ सीधी लड़ाई लड़नी पड़ती है. सिर्फ दो स्थानीय नक्सली हिडमा और रामबेर जोनल कमेटी तक पहुंच पाए हैं.’
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बस्तर बनाम आंध्र और तेलंगाना
पूर्व नक्सलियों का यह भी कहना है कि कैडर में डिविज़नल कमेटी से ऊपर नेतृत्व सिर्फ आंध्रप्रदेश और तेलंगाना के नेता करते हैं. बस्तर का कोई भी नक्सली इन समितियों में नही होता. लेकिन पुलिस और सुरक्षाबलों से लड़ने के लिए स्थानीय युवकों को सामने कर दिया जाता है. पूर्व माओवादियों के इस आरोप को पुलिस के अधिकारी भी सही ठहरा रहे हैं.
उनका कहना हैं कि आंध्रप्रदेश और तेलंगाना से आने वाले बड़े नक्सली नेता एक समय के बाद अपने राज्य की सरकार के सामने सरेंडर कर उनके ऊपर घोषित करोड़ों रुपए के इनाम लेकर अच्छी जिंदगी बसर करते हैं.
संजय पोटाम आगे बताते हैं, ‘यदि जमीनी लड़ाके या एरिया कमेटी सदस्य, जो ज्यादातर छत्तीसगढ़ से होते हैं, सरेंडर करते है तो बड़े नक्सली नेता उनके खिलाफ दुष्प्रचार कर उन्हें गद्दार बताकर जान से मारने की धमकी देते हैं लेकिन ज़ोनल कमेटी या सीसी सदस्य कैडर छोड़ते हैं तो किसी को पता भी नही लगने देते.’ ‘ वे छत्तीसगढ़ में सरेंडर भी नही करते क्योंकि अपने राज्य में आत्मसमर्पण के बाद बांकी जीवन आराम से बिताते हैं.’
गौरतलब है की सीपीआई (माओवादी) की सर्वोच्च निर्णायक संस्था पोलित ब्यूरो है. उसके नीचे सेंट्रल कमेटी (सीसी) होती हैं. ये दोनों समितियां के केंद्रीय स्तर की हैं. पोलित ब्यूरो और सीसी के नीचे राज्यों में जोनल और राज्य स्तरीय समितियां होती हैं. जोनल कमेटी के अंतर्गत राज्यों में रीजनल, डिविज़नल, एरिया और अन्य समितियों के साथ साथ फ्रंटल संस्थाएं हैं.
दंतेवाड़ा के कटेकल्याण क्षेत्र के 28 वर्षीय राजू मेटकाम नौ वर्षों तक नक्सली रहे फिर उन्होंने इसे छोड़ दिया. अक्टूबर 2019 में उन्होंने आत्मसमर्पण किया था. दिप्रिंट से खास बातचीत में राजू कहते हैं, ‘CPI (माओवादी) कैडर में बस्तर के लोगों को बड़े पदों पर नहीं रखा जाता है. एरिया कमेटी से ऊपर किसी समिति में बस्तर का रहने वाला कोई भी नक्सली नही पहुंचा है.’
मेटकाम कुछ गुस्से में नजर आते हैं, वह दिप्रिंट से कहते हैं, ‘स्थानीय युवाओं को सिर्फ इस्तेमाल किया जाता है. किसी भी मुठभेड़ में कोई जोनल कमेटी या फिर उससे ऊपर की समिति का सदस्य नहीं मारा जाता. मरने वाले बस्तर के आम लड़ाके होते हैं.’
मेटकाम आगे कहते हैं, ‘छत्तीसगढ़ के अधिकतर नक्सली दबाव में काम करते हैं. इससे उनको कोई लाभ नहीं हो रहा है. पैसा डिविज़नल कमेटी के सदस्य इकट्ठा करके ऊपर वालों को देते हैं जिसे ऊपर के नेता आपस में बांट लेते है. नीचे वालों को कुछ नही मिलता. आंध्रप्रदेश से आनेवालों को सबकुछ आराम से मिल जाता है लेकिन स्थानीय नक्सलियों को तेल, साबुन, खाना, साफ पानी भी नही मिलता है.’
न मदद की न विकास ही किया
बस्तर के पूर्व नक्सलियों का आरोप है कि माओवादी नेता दावा करते थे कि वे गांव के लोगों की मदद करेंगे और क्षेत्र का विकास करेंगे लेकिन ऐसा कुछ हुआ नही. वे कहते थे कि पुलिस और सरकार गांववालों को मारेंगे और परेशान करेंगे लेकिन सब उल्टा हो रहा है. मेटकाम बताते हैं, ‘नक्सली गांव वालों से अपने लिए सबकुछ लेते हैं और उन्हीं को मारते हैं. हालांकि अब धीरे-धीरे स्थानीय लोग यह समझ रहे हैं लेकिन ज्यादातर अभी भी डर की वजह से उनके के साथ हैं.’
वहीं सुकमा जिले के रहने वाले नक्सली दरभा डिवीज़न के पूर्व इनामी माओवादी मडा मरकाम भी इत्तेफाक रखते हुए कहते हैं, ‘छत्तीसगढ़ के माओवादियों के साथ बहुत भेदभाव होता है. उनको बार-बार नीचा दिखाया जाता है.’
मरकाम दिप्रिंट से बातचीत में आंध्र और तेलंगाना के माओवादियों द्वारा बस्तर के नक्सलियों के साथ हो रहे भेदभाव पर कहा, ‘बस्तर के नक्सलियों को कहा जाता है कि तुम अनपढ़ आदिवासी हो और किसी काम के लायक नही हो. आंध्रप्रदेश और तेलंगाना से आनेवाले बहुत पढ़े लिखे होते हैं इसीलिए वे ही नेतृत्व संभालते हैं. उन्हें पूरी सुरक्षा भी मिलती है.
वह बताते हैं, ‘ये नेता युवाओं को अपने जैसे बनने के लिए प्रेरित करते हैं लेकिन ऐसा कभी होने नही देते क्योंकि स्थानीय लोग उच्च स्तरीय समितियों के सदस्य नही बन पाते.’
दंतेवाड़ा के एसपी अभिषेक पल्लव दिप्रिंट को बताते हैं, ‘छत्तीसगढ़ के सभी नक्सली नेता आंध्रप्रदेश और तेलंगाना के रहने वाले हैं. पिछले 40 सालों से प्रदेश में नक्सली हिंसा का नेतृत्व कर रहे ये नेता एक समय के बाद चुप चाप रिटायर होकर अपने राज्य जाकर सरेंडर कर देते हैं.’
एसपी बताते हैं, इन माओवादियों के सरेंडर का मकसद सरकार द्वारा उनके ऊपर घोषित करोड़ों रुपए की इनाम राशि को हासिल करना है. सरेंडर करके तेलंगाना सरकार से डेढ़- दो करोड़ रुपए लेकर ये नक्सली खुले मंचों से भाषण भी दे रहें हैं लेकिन उनके खिलाफ नक्सली धमकी नही देते.’
पल्लव कहते हैं, ‘स्थानीय बस्तर निवासी नक्सली यदि सरेंडर करतें हैं तो ये लोग उनको गद्दार और धोखेबाज बताकर जान से मार देते हैं. ये डबल स्टैंडर्ड क्यों. यदि नक्सली नेता छोड़कर जा सकता है तो स्थानीय क्यों नही? स्थानीय लोगों को डरा धमकाकर अपने परिवार, पत्नी और नवजात बच्चों से दूर रखा जाता है. जो सरेंडर कर पुलिस भर्ती होने की बजाय शांति से जीना चाहते हैं उनको भी मारा जाता है.’
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पुलिस की नक्सली कैडर में फूट डालने की राजनीति हो सकती है
नक्सली समस्या के जानकर और आदिवासी नेता स्थानीय बनाम बाहरी बहस को पुलिस और प्रशासन का माओवाद को नियंत्रण में रखने का एक तरीका भी मानते हैं. अखिल भारतीय जनजातीय महासभा के अध्यक्ष और कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया के सचिव मनीष कुंजाम कहते हैं, ‘बात कुछ हद तक ठीक हो सकती है लेकिन पूरी तरह से नही. पहले भी इस तरह की चर्चा चलती रही है लेकिन माओवादी नेता कैडर की इस कमी को 3-4 सालों से पूरा कर रहें हैं. अब स्थानीय लोग डिविज़नल कमेटी के सदस्य भी बनाए जा रहे हैं. पुलिस और प्रशासन द्वारा माओवादियों की गतिविधियों को नियंत्रण में रखने के लिए ऐसी मुहिम पहले भी चली हैं.”