नई दिल्ली: वृक्षारोपण को एक लंबे समय से बिगड़ते वातावरण के विषनाशक के तौर पर देखा जाता रहा है, जिसके साथ कार्बन डायोक्साइड को सोखने का भी एक अतिरिक्त लाभ होता है. लेकिन नई शोध से संकेत मिलता है कि अगर वृक्षारोपण स्कीमें इसी रूप में चलती रहीं, तो वो न केवल वृक्षों का फैलाव बढ़ाने में नाकाम साबित होंगी, बल्कि भारी आर्थिक नुक़सान भी पहुंचाएंगी.
हिमाचल प्रदेश में वृक्षारोपण की सफलता का मूल्यांकन करने वाले, एक हालिया अध्ययन में पता चला है कि ‘कुल ख़र्चों के कम से कम आधे के, व्यर्थ चले जाने की संभावना है’, जो कम से कम 20 करोड़ रुपए का नुक़सान होगा. अहम बात ये है कि प्रमुख लेखक पुष्पेंद्र राणा, राज्य के वन विभाग में एक सेवारत अधिकारी हैं.
‘भारतीय हिमालय में वृक्षारोपण कार्यक्रमों में अपव्यय का पूर्वानुमान’ नाम की ये स्टडी, फरवरी में वर्ल्ड डेवलपमेंट में प्रकाशित हुई, जो एक पीयर रिव्यू पत्रिका है. इसके लेखकों में भारत और विदेशों के शोधकर्त्ता शामिल हैं.
इसके निष्कर्ष उस बढ़ते हुए शोध में योगदान देते हैं, जिसमें भारत की वृक्षापण नीतियों की समीक्षा की जाती है. हालांकि ये स्टडी हिमाचल प्रदेश तक सीमित है, लेकिन शोधकर्त्ताओं का मानना है कि स्टडी के निष्कर्ष, देशभर में इसी तरह के मूल्यांकनों की प्रेरणा बन सकते हैं.
स्टडी के प्रमुख लेखक और हिमाचल प्रदेश वन विभाग में सेवारत अधिकारी, पुष्पेंद्र राणा ने दिप्रिंट से कहा, ‘ये पहली स्टडी है जिसमें वृक्षारोपण को वित्तीय प्रभाव के साथ जोड़ा गया है. वृक्षारोपण को जलवायु परिवर्तन में बदलाव का एक किफायती तरीक़ा माना जाता है, लेकिन हमारा शोध इस नैरेटिव को चुनौती देता है’.
‘हमने भारत के दूसरे हिस्सों में भी इस स्टडी को करने के लिए अनुदान का आवेदन किया है,’ ये कहना था फॉरेस्ट फ्लेशमैन का, जो मिनिसोटा यूनिवर्सिटी में एनवायरमेंट एंड नेचुरल रीसोर्स पॉलिसी के एसोसिएट प्रोफेसर हैं, और स्टडी के एक सह-लेखक हैं.
वृक्षारोपण पर केवल 14% ख़र्च ‘कारगर’
स्टडी के अनुसार हिमाचल प्रदेश में कारगर वृक्षारोपण की राह में तीन प्रमुख चुनौतियां हैं. एक चुनौती ये है कि लक्ष्य-आधारित कार्यक्रम, दीर्घकाल में पर्यावरण को बहाल करने की बजाय, अल्प-कालिक फायदों पर ज़ोर देते हैं.
दूसरी ये है कि वृक्षारोपण स्कीमें और कार्यक्रम, आवश्यक रूप से अपने अनपेक्षित परिणामों, या पतन के बुनियादी कारणों पर ध्यान नहीं देते.
इसके अलावा, ‘रोपण लक्ष्य की संख्या को पूरा करने पर ज़्यादा ज़ोर रहता है’, जिसके नतीजे में ऐसी जगह वृक्षारोपण कर दिया जाता है, जो जैव-भौतिक रूप से उनके अनुकूल नहीं होती, या जहां सामाजिक-आर्थिक कारणों से ऐसा करना वांछनीय नहीं होता’.
शोध में 2016 और 2019 के बीच, हिमाचल प्रदेश वन विभाग द्वारा वृक्षारोपण पर किए गए ख़र्च का विश्लेषण किया गया, जो कुल 56.7 लाख डॉलर (43 करोड़ रुपए) था. स्टडी के अनुसार 2002 के बाद से राज्य वन विभाग ने, वनीकरण गतिविधियों पर 24.82 करोड़ डॉलर (1,892 करोड़ रुपए) ख़र्च किए हैं.
अपने निष्कर्षों पर पहुंचने के लिए शोधकर्त्ताओं ने- 2003 के बाद से जमा किए गए 15 वर्षों के भूमि उपयोग डेटा के आधार पर- हिसाब लगाया कि इनमें से कितने पेड़ उन स्थानों पर गिरे, जहां वृक्ष आवरण की हानि हुई, और फिर उसकी तुलना उन्हीं वृक्षारोपणों पर ख़र्च किए गए बजट से की.
शोध में पता चला कि संभावित फिज़ूलख़र्ची का सबसे बड़ा कारण ये है, कि वृक्षारोपण के लिए 47.7 प्रतिशत बजट, जो 20 करोड़ रुपए से अधिक था, ‘ग़ैर वन अनुत्पादक क्षेत्रों’ पर ख़र्च किया गया, जहां वृक्ष आवरण हानि की संभावना बहुत अधिक होती है.
अन्य कारण हैं ऐसे क्षेत्रों में पेड़ लगाना, जहां सूखे की वजह से उनका विकास सीमित हो जाता है (बजट का 33 प्रतिशत ख़र्च), जहां विवादित भूमि कार्यकाल के नतीजे में स्थानीय समुदायों से टकराव हो सकता है (28.9 प्रतिशत), और ऐसे वनों में वृक्षारोपण जहां वृक्ष आवरण पहले से ही 40 प्रतिशत से अधिक है (38.9 प्रतिशत).
पेपर में कहा गया है कि केवल 14.1 प्रतिशत ख़र्च के कारगर होने की संभावना है, चूंकि वो वृक्षारोपण कम सघनता वाले वन क्षेत्रों में हो रहा है (10 से 40 प्रतिशत सघनता), जहां वनीकरण की काफी अधिक संभावनाएं होती हैं’.
फ्लेशमैन ने समझाया कि इससे संकेत मिलता है, कि शायद राज्य के पास पर्याप्त जगह ही नहीं है, कि वो वृक्षारोपण की महत्वाकांक्षाओं को पूरा कर सके.
इंडियन स्टेट ऑफ फॉरेस्ट रिपोर्ट (आईएसएफआर) के अनुसार, 2019 के बाद से हिमाचल प्रदेश के वन और वृक्ष आवरण में, 912 वर्ग किलोमीटर का इज़ाफा हुआ है, और ये पहले ही राज्य के 68 प्रतिशत भौगोलिक क्षेत्र को कवर करता है.
स्टडी में कहा गया है कि अगर यथास्थिति बरक़रार रही, तो राज्य सरकार द्वारा 2020 और 2030 के बीच, पेड़ लगाने पर 16.73 करोड़ डॉलर (1,275 करोड़ रुपए) ख़र्च किए जाने का अनुमान है’, जिसका ज़्यादातर हिस्सा व्यर्थ जा सकता है.
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वृक्षारोपण से कब लाभ हो सकता है
स्टडी में कहा गया है कि वृक्षारोपण तभी कारगर साबित हो सकता है, जब वो ‘स्थानीय जैव-भौतिकी और सामाजिक संदर्भ’ से मेल खाता हो. उसमें आगे कहा गया है कि केवल ऐसे क्षेत्रों में वृक्षारोपण से बचने से, जहां पहले ही वन सघनता काफी अधिक है, राज्य सरकार संभावित रूप से 6.36 करोड़ डॉलर (484 करोड़ रुपए) की बचत कर सकती है.
हालांकि भारत के तमाम राज्यों और क्षेत्रों की भौगोलिक स्थिति, पर्यावरण तथा जलवायु अलग अलग होती है, लेकिन विशेषज्ञों का कहना है कि हिमाचल प्रदेश की इस रिसर्च से, दूसरे राज्य भी सीख हासिल कर सकते हैं.
प्रकृति संरक्षण फाउंडेशन के वैज्ञानिक आनंद ओसूरी ने, जो पश्चिमी घाट क्षेत्र में वन बहाली पर शोध कर रहे हैं, दिप्रिंट से कहा, ‘वृक्षारोपण से कहीं अधिक सफलता हासिल हो सकती है, अगर उसमें उपयुक्त स्थानीय प्रजातियों का चयन किया जाए, और उनके जीवित रहने की दर को अधिक से अधिक बढ़ाया जाए, बजाय इसके कि केवल आरोपित किए गए वृक्षों की संख्या पर ध्यान दिया जाए’.
उन्होंने आगे कहा, ‘स्कीमों में उन फैक्टर्स की पहचान करके, उनसे निपटने के प्रयास करने होंगे, जो दरअसल वनों का विनाश कर रहे हैं. अगर उन कारकों पर ध्यान नहीं दिया गया, तो वृक्षारोपण के फेल होने की संभावना रहती है’.
विशेषज्ञ इस पर भी एकमत हैं, कि वन बहाली की सफलता के लिए, समुदाय की भागीदारी एक अहम भूमिका अदा करती है.
हिमाचल प्रदेश के संदर्भ में राणा ने कहा, ‘सामुदायिक वनों पर केवल 1 प्रतिशत बजट ख़र्च किया जाता है, जबकि इनमें किए गए वृक्षारोपण की सफलता की संभावना अधिक होती है. स्कीमों में कुछ एक व्यवसायिक क़िस्मों की बजाय, प्रजातियों की ज़्यादा व्यापक क़िस्मों का इस्तेमाल किया जाना चाहिए’.
राणा ने आगे कहा कि वन अधिकारियों को ई-प्लांटेशन साइट असिस्टेंट जैसे मोबाइल एप्लिकेशंस इस्तेमाल करने चाहिएं, जो वृक्षारोपण के लिए जगह की उपयुक्तता को जांचने में मदद करते हैं.
हिमाचल प्रदेश के प्रधान मुख्य वन संरक्षक अजय श्रीवास्तव ने कहा, कि राज्य सरकार अब देवदार के वृक्षों की जगह कुछ जगहों पर ‘चौड़ी पत्ती वाले जंगल’ स्थापित कर रही है- जैसे ओक और दूसरी प्रजातियां- जिनसे आजीविका लाभ ज़्यादा होता है.
बढ़ते शोध का भारत के जलवायु लक्ष्यों के लिए क्या अर्थ है
1988 की राष्ट्रीय वन नीति के अंतर्गत, भारत का लक्ष्य अपने भौगोलिक क्षेत्र के 33 प्रतिशत हिस्से को, वनों और वृक्षों से कवर करना है. पैरिस समझौते के अंतर्गत भारत ने 2030 तक एक कार्बन सिंक बनाने का भी संकल्प लिया है, जिसमें 2.5-3.0 बिलियन टन कार्बन डायोक्साइड सोखने की क्षमता होगी, जिसके लिए वन और वृक्ष आवरण को बढ़ाया जाएगा.
हिमाचल प्रदेश की इस ताज़ा स्टडी में संकेत दिया गया है, कि इन लक्ष्यों को हासिल करना उससे अधिक मुश्किल है, जितना पहले सोचा गया था. ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी के शोधकर्त्ताओं की एक हालिया स्टडी में भी पाया गया है, कि पैरिस समझौते के लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए, भारत ने उपलब्ध ज़मीन का ‘ज़्यादा अनुमान’ लगा लिया है.
राणा और फ्लेशमैन एक और पेपर के भी सह-लेखक हैं, जो हिमाचल प्रदेश पर ही आधारित है, जिसमें पाया गया है कि कांगड़ा ज़िले में वनीकरण गतिविधियों से, वृक्ष आवरण या ग्रामीण आजीविका के स्तर में, कोई ख़ास सुधार नहीं हुआ.
फ्लेशमैन ने कहा, ‘हमें ये सवाल पूछने की ज़रूरत है, कि हम लोगों की संसाधनिक ज़रूरतों और उनके व्यवहार में कैसे बदलाव लाएं, जिससे कि उनके लिए पेड़ उगाना फायदेमंद हो जाए, बजाय इसके कि केवल लक्ष्य आधारित वृक्षारोपण पर ही ज़ोर दिया जाए’.
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