नई दिल्ली: 2022 में मानसून के असामान्य व्यवहार ने खाद्य सुरक्षा जैसी बुनियादी चीज़ को लेकर चुनौती बढ़ा दी है. विशेषज्ञों का मानना है कि जलवायु के तेजी से बदलने के कारण कृषि क्षेत्र पर बुरा असर पड़ा है जिस कारण आने वाले वक्त में खाद्य सुरक्षा बड़ी चुनौती बनकर उभर सकती है.
भारत अपनी कुल बारिश का 76 प्रतिशत हिस्सा दक्षिण-पश्चिम मानसून के जरिए पूरा करता है लेकिन बीते दो-तीन सालों में देखा गया है कि मानसून तो सामान्य रहा है लेकिन इस बीच बारिश के दिनों में कमी आई है और ड्राई डे की संख्या बढ़ गई है.
2022 को लेकर भारत मौसम विभाग (आईएमडी) ने मानसून के सामान्य रहने का अनुमान लगाया है लेकिन इस बीच देखा जा रहा है कि बारिश के स्थानिक वितरण में काफी अंतर है जो कि असल चिंता का विषय है.
आईएमडी के नेशनल वेदर फॉरकास्ट डिवीजन में वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ. आरके जेनामणि के अनुसार मानसूनी बारिश में इस तरह के अंतर के पीछे पूर्वी हवाएं हैं, जो कि जून के महीने में पूरी तरह से गायब रही हैं.
एक वेबिनार में ‘भारत में बदलते मानसून के पैटर्न के आर्थिक प्रभाव ‘ के बारे में बताते हुए उन्होंने कहा, ‘इस दौरान दक्षिण-पश्चिम हवाओं ने बारिश को ओडिशा, पश्चिम बंगाल और झारखंड से पूर्वोत्तर भारत की ओर धकेल दिया. अगले 4-5 दिनों तक पूर्वी हवाओं के आसार भी नहीं है जो कि उत्तर भारत के लिए चिंता का विषय है.’
पिछले साल की मानसून की स्थिति को देखें तो 3 जून 2021 को केरल से इसकी शुरुआत हुई थी और 13 जून तक इसकी रफ्तार ठीक बनी रही. लेकिन 13 जून के बाद बारिश रुक गई और 12 जुलाई तक लगभग ड्राई स्पेल चला. फिर जुलाई के मध्य में बारिश शुरू हुई जो कि अगस्त के पहले हफ्ते में जाकर रुक गई और फिर अगस्त में पूरे भारत में काफी बारिश रिकॉर्ड की गई.
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मानसूनी बारिश का असामान्य वितरण और खाद्य सुरक्षा की चुनौती
भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए दक्षिण-पश्चिम मानसून काफी अहम है. इस दौरान खरीफ की फसलों की बुआई होती है. भारत की 40 प्रतिशत बुआई वाले हिस्से के लिए बारिश की जरूरत पड़ती है.
लेकिन उत्तर-पश्चिम भारत में मानसून के देरी से आने की उम्मीद पर विशेषज्ञों ने चिंता जाहिर की है और कहा कि जलवायु परिवर्तन ने बुआई के समय को भी प्रभावित करना शुरू कर दिया है. कहीं-कहीं तो किसान पारंपरिक फसलों को छोड़कर अच्छी कीमत मिलने वाली फसलों को उगाने पर भरोसा करने लगे हैं.
एक तरफ जहां असम बाढ़ से जूझ रहा है वहीं देश के दूसरे हिस्सों में मानसून ठीक तरह से अभी तक नहीं पहुंचा है. बता दें कि असम में बीते कुछ दिनों में काफी बारिश हुई है. 24 जून तक असम में बाढ़ के कारण 117 लोगों की मौत हो चुकी है और लगभग 33 लाख से ज्यादा लोग प्रभावित हुए हैं.
आईएमडी के अनुसार 200 मिमी से ज्यादा बारिश होने को एक्सट्रीम रेनफॉल माना जाता है वहीं 60 मिमी से ज्यादा को हेवी रेनफॉल की श्रेणी में डाला गया है.
जेनामणि ने बताया, ‘मानसूनी बारिश का वितरण काफी असामान्य है. जैसा कि हम देख सकते हैं कि मध्य और दक्षिणी राज्यों में बारिश के पानी की काफी कमी है वहीं पूर्वोत्तर हिस्से में कुछ ज्यादा ही बारिश हो रही है.’
साथ ही जलवायु परिवर्तन के कारण बारिश की कमी और आद्रता के बढ़ने की वजह से फसलों में बीमारी और कीटों के खतरे जैसी स्थिति भी पैदा हो रही है.
एक रिसर्च पेपर जिसमें महाराष्ट्र की स्थिति का विश्लेषण किया गया है, उसके अनुसार, मानसून का असामान्य वितरण और बढ़ता तापमान कृषि पैदावार को बुरी तरह से प्रभावित कर सकता है.
खाद्य और व्यापार नीति विशेषज्ञ देविंद्र शर्मा ने कहा, ‘बारिश न होने के कारण खरीफ की बुआई प्रभावित हो रही है जबकि पूर्वोत्तर भारत में काफी ज्यादा बारिश हो रही है. और इस बीच देश के अन्य हिस्सों में बुआई का वक्त है.’
शर्मा ने बताया कि मानसूनी बारिश की कमी खाद्य कीमतों को बढ़ा देगी जो कि पहले से ही काफी ज्यादा है. उन्होंने कहा कि रूस और यूक्रेन के बीच युद्ध से साफ स्पष्ट है कि हर देश के लिए जरूरी है कि वो खाद्य सामग्री को लेकर आत्मनिर्भर बने.
शर्मा ने बताया, ‘महाराष्ट्र में सबसे ज्यादा चिंताजनक स्थिति है जहां पर 41 प्रतिशत कम बारिश हुई है. इस तरह के वितरण के कारण खाद्य उत्पादन पर असर पड़ता है. बुआई के प्रभावित होने के साथ-साथ बढ़ती आद्रता फसलों में कई बीमारियों का कारण बनती हैं.’
मानसून की असामान्यता के कारण बीते साल भी खरीफ फसलों जैसे की धान, ज्वार, बाजरा, मूंग, मक्का, जूट की बुआई देरी से हुई थी. कृषि मंत्रालय के 2021 के बुआई के आंकड़ों के अनुसार खरीफ की फसलों पर इसका कोई खास असर नहीं पड़ा. सिर्फ कपास और मोटे अनाज की पैदावार 2020 की तुलना में 6 प्रतिशत और 2.5 प्रतिशत कम रही.
लेकिन एक रिपोर्ट के अनुसार 16 जुलाई 2021 तक खरीफ की फसलों की बुआई में उसके बीते साल की तुलना में 12 प्रतिशत की कमी आई थी.
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प्रतिक्रिया केंद्रित दृष्टिकोण की जरूरत
विशेषज्ञों का कहना है कि एडेप्टेशन और जलवायु के अनुकूल नीति बनाने की सबसे ज्यादा जरूरत है.
जब पूरी दुनिया का तापमान तेजी से बढ़ रहा है, मानसून असामान्य तरीके से व्यवहार कर रहा है तो इससे सामाजिक-आर्थिक प्रभाव पड़ने लाजिमी है. ये प्रभाव न केवल फसलों पर पड़ेगा बल्कि कृषि क्षेत्रों में लगे लोगों का पलायन भी होगा जो सामाजिक सुरक्षा के लिए चुनौती है.
आईपीसीसी डब्ल्यूजी2 रिपोर्ट के लीड ऑथर और इंडियन स्कूल ऑफ बिजनेस के भारती इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक पॉलिसी में रिसर्च डॉयरेक्टर डॉ. अंजल प्रकाश का कहना है कि समस्या काफी बड़ी है और सरकार के इस दिशा में प्रयास काफी कमजोर और कई हिस्सों में बंटे हुए हैं.
उन्होंने कहा, ‘सरकारी नीतियां काफी हैं लेकिन लोगों तक सूचना नहीं पहुंच पाती. हमें जलवायु परिवर्तन को लेकर अलग मंत्रालय की जरूरत है.’
वहीं काउंसिल फॉर एनर्जी एनवायरनमेंट एंड वॉटर से जुड़े अभिनाष मोहंती ने कहा, ‘अगर हम अनुकूलन क्षमताओं को विकसित नहीं कर पाते हैं तो कृषि पर इसका बुरा असर पड़ेगा. साथ ही अन्य क्षेत्र भी प्रभावित होंगे.’
मोहंती ने बताया, ‘मानसून रेनफॉल में 1% का अंतर हमारी कृषि आधारित जीडीपी में 0.34% का असर डाल सकता है.’
उन्होंने कहा, ‘हमें राहत केंद्रित से प्रतिक्रिया केंद्रित दृष्टिकोण की जरूरत है. यह तभी होगा जब हम जलवायु के बारे में बारीक से बारीक जानकारी किसानों को देंगे. समस्या को कम करने के लिए नीति स्तर पर, हमारी आपदा या जलवायु कार्य योजनाओं में प्रकृति आधारित समाधान शामिल होने चाहिए.’
देविंद्र शर्मा ने भी कहा, ‘जलवायु स्मार्ट तकनीक की जरूरत है लेकिन वो कृषि के साथ तालमेल कर होनी चाहिए जो कि एक तिहाई ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन का कारण है.’
‘हमें यह आकलन करने की जरूरत है कि जलवायु लचीलापन के लिए सबसे उपयुक्त क्या हो सकता है. जब मौसम में तेजी से इतने बदलाव हो रहे हैं तब आपदा राहत और फसलों का बीमा काफी जरूरी चीज़ है.’
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