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Wednesday, 20 November, 2024
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मनी लॉन्ड्रिंग जघन्य अपराध है, आतंक को उकसाता है- SC ने क्यों रद्द की 241 याचिकाएं

जिन याचिकाकर्ताओं ने सुप्रीम कोर्ट के समक्ष PMLA प्रावधानों को चुनौती दी थी, उनमें पूर्व केंद्रीय मंत्री पी चिदंबरम, और पूर्व जम्मू-कश्मीर मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती शामिल थे.

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नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार को कहा कि मनी लॉन्ड्रिंग एक जघन्य अपराध है, जो न केवल देश के सामाजिक और आर्थिक ताने-बाने को प्रभावित करता है, ‘बल्कि इसमें आतंकवाद और एनडीपीएस एक्ट (ड्रग-विरोधी क़ानून) आदि से जुड़े दूसरे जघन्य अपराधों को बढ़ावा देने की भी प्रवृत्ति होती है’.

कोर्ट ने ये टिप्पणियां उन 241 याचिकाओं को ख़ारिज करते समय कीं, जिनमें धन शोधन निवारण अधिनियम (पीएमएलए),2002, के कुछ प्रावधानों की संवैधानिक वैधता को चुनौती दी गई थी.

न्यायमूर्ति एएम खानविलकर की अध्यक्षता वाली एक तीन-सदस्यीय बेंच ने क़ानून के कड़े प्रावधानों को बरक़रार रखा- ज़मानत के मामले में अभियोजन एजेंसी प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) को दिए गए व्यापक अधिकार, तलाशी और ज़ब्ती के मामले में ईडी के सामने दिए गए इक़बालिया बयान की स्वीकार्यता, अभियुक्त पर अपनी बेगुनाही साबित करने का उल्टा सबूत, अभियोजन के समक्ष एन्फोर्समेंट केस इंफॉर्मेशन रिपोर्ट (ईसीआईआर) सप्लाई न होना, क़ानून के तहत संपत्ति की कुर्की, और ‘अपराध की आय’ शब्द की विस्तृत परिभाषा.

जिन याचिकाकर्ताओं ने शीर्ष अदालत के समक्ष इन प्रावधानों को चुनौती दी थी, उनमें पूर्व केंद्रीय मंत्री पी चिदंबरम, और पूर्व जम्मू-कश्मीर मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती शामिल थे. ये दोनों कथित मनी लॉन्ड्रिंग मामले में ईडी की कार्रवाई का सामना कर रहे हैं.

फैसले में कई जगहों पर संसद में दिए गए पी चिदंबरम के भाषणों का हवाला दिया गया है, जो उन्होंने कांग्रेस की अगुवाई वाले यूपीए में वित्तमंत्री के अपने दिनों में दिए थे, और जिनमें उन्होंने पीएमएलए मामलों की जांच के लिए क़ानून में संशोधन करने, और ईडी को और अधिक शक्तियां देने के सरकार के क़दम का समर्थन किया था.

ये फैसला जस्टिस खानविलकर के रिटायर होने से दो दिन पहले आया है, और इसे ईडी के लिए एक प्रोत्साहन के रूप में देखा जा रहा है, जिस एजेंसी पर देश में हो रहे वित्तीय अपराधों को रोकने का ज़िम्मा सौंपा गया है.

पीएमएलए को 20 साल पहले संसद के दोनों सदनों ने पारित किया था, और 17 जनवरी 2003 को इसे राष्ट्रपति की मंज़ूरी मिल गई थी. 1 जुलाई 2005 से इसे लागू कर दिया गया था.

ये अधिनियम धन शोधन से लड़ने की भारत की वैश्विक प्रतिबद्धता को पूरा करने के लिए बनाया गया था.

पीएमएलए के अंतर्गत ईडी एक साथ कार्यवाही शुरू कर सकता है, जिसमें ईडी एक्ट में सूचीबद्ध किसी भी अनुसूचित अपराध से प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से जुड़े अपराध की आय को ज़ब्त कर सकता है, और कथित अपराधी पर आपराधिक मुक़दमा चला सकता है.

जिन अपराधों के सिलसिले में पीएमएलए के अंतर्गत ईडी की भूमिका पैदा हो सकती है, उनमें ड्रग-विरोधी क़ानून या स्वापक औषधि और मनःप्रभावी पदार्थ अधिनियम (एनडीपीएस),1985,आयकर क़ानून, और अन्य के अलावा सीबीआई में दर्ज भ्रष्टाचार के मामले शामिल हैं.


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लागू किए जाने के बाद से इस क़ानून में कई बार संशोधन किए जा चुके हैं.

याचिकाकर्ताओं ने मुख्य रूप से इन संशोधनों को चुनौती है, जिन्होंने बीते सालों में ईडी को ज़्यादा शक्तियां दे दी हैं, जिसके लिए उनकी दलील थी कि वो ‘मनमानी के दोष’ से पीड़ित है.

लेकिन, याचिकाकर्ताओं की दलील को ख़ारिज करते हुए, सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि मनी लॉन्ड्रिंग को ‘दुनिया भर में अपराध का एक बिगड़ा हुआ स्वरूप माना जाता रहा है’.

बेंच ने, जिसमें न्यायमूर्ति दिनेश माहेश्वरी और सीटी रविकुमार भी शामिल थे, कहा, ‘इसलिए ये एक अलग वर्ग का अपराध है, जिसके लिए प्रभावी और कड़े उपायों की ज़रूरत है, जिससे धन शोधन के ख़तरे को कम किया जा सके’.

बेंच ने ऐलान किया कि इस विशेष क़ानून में गिनाए गए प्रावधान, उन लक्ष्यों के साथ असंगत नहीं हैं जिन्हें हासिल करना इसकी मंशा है.

कोर्ट ने आगे कहा कि ‘धन शोधन के दुष्परिणामों की गंभीरता’ के मद्देनज़र ऐसा करना असंवैधानिक नहीं है कि अपराधियों को, जो ‘अपराध की आय’ से जुड़ी किसी भी गतिविधि में शामिल हों, ‘सामान्य नागरिकों से अलग वर्ग’ में रखा जाए.

लेकिन बेंच ने स्पष्ट किया कि अभियुक्त की रिहाई या अनुसूचित अपराध से मुक्ति होने पर, पीएमएलए के तहत चल रही कार्यवाही बाक़ी नहीं रहेगी.

शीर्ष अदालत ने इस संवैधानिक सवाल में जाने से इनकार कर दिया कि क्या क़ानून में किए गए संशोधन वित्त विधेयक के ज़रिए लाए जा सकते थे.

अदालत ने इस विषय को सात जजों की एक बेंच को भेज दिया, जो पहले से ही आधार एक्ट तथा ट्रिब्यूनल्स के कामकाज को नियंत्रित करने वाले क़ानून के सिलसिले में, इस सवाल पर विचार कर रही है.

अपराध की आय का छिपाना, उसका कब्ज़ा या अधिग्रहण, या इस्तेमाल धन शोधन समझा जाएगा

पीएमएलए के अनुच्छेद 3 में धनशोधन की परिभाषा दी गई है.

उसमें कहा गया है कि जो कोई भी प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से लिप्त होता है, या जानते हुए सहायता करता है, या जानते हुए पार्टी बनता है, या वास्तव में अपराध की आय से जुड़ी किसी ऐसी प्रक्रिया या गतिविधि में शरीक होता है जिसमें उसका छिपाना, कब्ज़ा या अधिग्रहण, या इस्तेमाल शामिल हो, और उसके बेदाग़ संपत्ति होने का दावा करता है, उसे धनशोधन का दोषी माना जाएगा.

शीर्ष कोर्ट के समक्ष याचिकाकर्ताओं ने दावा किया कि धन शोधन क़ानून के तहत कार्रवाई तभी शुरू की जानी चाहिए, जब अपराध की आय को या तो बेदाग़ संपत्ति बताया जाए, या ऐसा दावा किया जाए.

लेकिन इस दलील को ख़ारिज कर दिया गया, और 545 पन्नों के अपने फैसले में कोर्ट ने कहा कि इसकी स्वीकार्यता ‘अनुच्छेद 3 के प्रसार को कम कर देगी’.

कोर्ट ने फिर आगे कहा कि जो व्यक्ति भी प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से, अपराध की आय से जुड़ी किसी भी ‘प्रक्रिया या गतिविधि’ में संलिप्त पाया जाएगा, उसे पीएमएलए कार्रवाई का सामना करना होगा.

ये प्रक्रिया या गतिविधि किसी भी रूप में हो सकती है- चाहे वो अपराध की आय का छिपाना, उसका कब्ज़ा या अधिग्रहण, या इस्तेमाल हो, या उसे बेदाग़ संपत्ति के तौर पर दिखाना या ऐसा होने का दावा करना हो.

इसलिए, कोर्ट ने कहा कि अपराध की आय से जुड़ी ऐसी किसी भी प्रक्रिया या गतिविधि में संलिप्तता को, धन शोधन का अपराध माना जाएगा.

लेकिन, कोर्ट ने ज़ोर देकर कहा कि अपराध की ऐसी आय पीएमएलए में रेखांकित अनुसूचित अपराधों के अंतर्गत आपराधिक गतिविधि के नतीजे में अर्जित की हुई होनी चाहिए. उसने आगे स्पष्ट किया कि अपराध की आय में विदेशी अधिकार क्षेत्र की संपत्तियां भी शामिल हो सकती हैं.

कथित अपराध की आय की ज़ब्ती विधेय अपराध की FIR दर्ज होने से पहले भी हो सकती है

पीएमएलए की धारा 5 का संबंध अपराध की आय की कुर्की, न्यायिक निर्णय और ज़ब्ती से है.

इसमें निदेशक- या ऐसा अधिकारी जो उप-निदेशक से कम रैंक का न हो, और जिसे निदेशक ने अधिकृत किया हो- को अधिकार दिए गए हैं कि वो ऐसी संपत्ति को ज़ब्त कर सकता है, जिसे धन शोधन में लिप्त समझा जाता हो.

ये प्रावधान 2015 में संशोधित किया गया था, और इसे याचिकाकर्ताओं ने इस आधार पर चुनौती दी थी कि इसमें अनुसूचित अपराध के सिलसिले में एफआईआर दर्ज होने से पहली ही, अथॉरिटी को अपराध की आय की अस्थायी ज़ब्ती का आदेश देने की अनुमति मिल जाती है.


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इस चुनौती की अनदेखी करते हुए, एससी ने कहा कि ये संशोधन ‘बाधाओं’ पर क़ाबू पाने और ईडी अधिकारियों को अस्थायी ज़ब्ती आदेश जारी करने के लिए ‘सशक्त’ करने के उद्देश्य से लाया गया था, ताकि समय बर्बाद न हो और अभियुक्त अपराध की आय में हेराफेरी न कर सके.

एससी ने कहा कि संशोधित प्रावधान उस ‘प्रणाली को मज़बूत करेगा’ जिससे ऐसी प्रक्रिया या गतिविधि को ‘रोका या विनियमित किया जा सके’, जिसके नतीजे में धन शोधन होता है.

अपने वर्तमान रूप में अनुच्छेद 5 ‘एक संतुलन व्यवस्था का प्रावधान करता है, जिसे व्यक्ति के हितों को सुरक्षित किया जा सके, और साथ ही ये भी सुनिश्चित किया जा सके कि अपराध की आय क़ानून के अंतर्गत कार्रवाई किए जाने के लिए उपलब्ध बनी रहे’.

तलाशी और ज़ब्ती का अधिकार बरक़रार

पीएमएलए में ईडी निदेशक- या कम से कम उप-निदेशक रैंक के अधिकारी- को तलाशी शुरू करने का अधिकार दिया गया है, अगर अधिकारी को अपने क़ब्ज़े में मौजूद सामग्री या जानकारी के आधार पर ये विश्वास हो कि धन शोधन को अंजाम दिया गया है.

याचिकाकर्ताओं ने मूल रूप से 2019 के एक संशोधन पर सवाल उठाए थे.

संशोधन में इस प्रावधान को हटा दिया गया था, जिसमें ईडी पर तब तक के लिए तलाशी और ज़ब्ती कार्रवाई करने पर रोक लगा दी गई थी, जब तक कि अनुसूचित अपराध की जांच कर रहे किसी अधिकारी ने मजिस्ट्रेट को अपनी रिपोर्ट न भेजी हो, या भारत सरकार के कम से कम अतिरिक्त सचिव स्तर के अधिकारी के सामने ऐसी रिपोर्ट पेश न की गई हो.

दलील दी गई कि संशोधन में प्रक्रियात्मक सुरक्षा उपायों को ख़त्म कर दिया गया है, और ईडी को नागरिकों के खिलाफ ‘कठोर शक्तियों’ के इस्तेमाल की अनुमति दे दी गई है. इस तर्क को ख़ारिज करते हुए, एससी ने कहा कि क़ानून में पर्याप्त अंतर्निहित सुरक्षा उपाय उपलब्ध हैं, चूंकि उसमें तलाशी और ज़ब्ती की प्रक्रिया शुरू करने से पहले, किसी उच्चस्तरीय अधिकारी का कारणों को दर्ज करना अनिवार्य है.

फैसले में कहा गया, ‘वो न केवल उच्चस्तरीय अधिकारी होंगे, बल्कि उन्हें पूरी तरह आश्वस्त रहना होगा कि उनके पास मौजूद जानकारी के आधार पर, मनी लॉन्ड्रिंग के अपराध को अंजाम देने, या मनी लॉन्ड्रिंग में शामिल अपराध की आय को रखने का मामला बनता है’.

बेंच ने कहा कि ‘ये निश्चित रूप से मनमानी शक्ति नहीं है’. उसने क़ानून की उस प्रक्रिया का भी अनुमोदन कर दिया, जिसमें ईडी को अपराधी की तलाशी की अनुमति दी गई है.

ED डायरेक्टर या डिप्टी डायरेक्टर या असिस्टेंट डायरेक्टर के कब्ज़े में मौजूद सामग्री के आधार पर गिरफ्तारी की जा सकती है, ECIR की प्रतिलिपि उपलब्ध कराना ज़रूरी नहीं है, ED के समक्ष इक़बाल स्वीकार्य है.

कोर्ट ने एक्ट की धारा 19 को दी गई चुनौती को भी रद्द कर दिया, जिसमें उस तरीक़े को तय किया गया है, जिसमें मनी लॉन्ड्रिंग के आरोपित व्यक्ति को गिरफ्तार किया जा सकता है.

याचिकाकर्ताओं ने दावा किया था कि किसी औपचारिक शिकायत के दर्ज हुए बिना, गिरफ्तारी को अंजाम नहीं दिया जा सकता.

लेकिन, कोर्ट का कहना था कि क़ानून के अंदर पर्याप्त सुरक्षा उपाय हैं, जिनसे किसी व्यक्ति की गिरफ्तारी के बारे में राय क़ायम करने वाले अधिकृत अधिकारियों की निष्पक्षता और जवाबदेही को सुनिश्चित किया गया है. इसके अलावा उसने ये भी कहा कि गिरफ्तार किए गए व्यक्ति को 24 घंटों के भीतर विशेष अदालत के सामने पेश किया जाता है.

बेंच ने कहा कि ये सुरक्षा उपाय सुनिश्चित करते हैं कि अधिकृत अधिकारी मनमाने ढंग से काम न करें, बल्कि ये उन्हें किसी व्यक्ति की गिरफ्तारी के बारे में अपने फैसले के लिए जवाबदेह बनाते हैं.

उसने आगे कहा कि दंडात्मक कार्रवाई शुरू करने से पहले औपचारिक रूप से ईसीआईआर दर्ज करने की ज़रूरत नहीं है, और उसकी एफआईआर से बराबरी नहीं की जा सकती, जो आपराधिक प्रक्रिया संहिता के अंतर्गत अभियुक्त को उपलब्ध कराना अनिवार्य होती है.

ईडी के समक्ष इक़बालिया बयान की स्वीकार्यता के मुद्दे पर, एससी ने फैसला दिया कि चूंकि ईडी अधिकारी एक ‘पुलिस अधिकारी’ नहीं है, इसलिए उसके सामने दिया गया अभियुक्त का बयान संविधान की धारा 20(3) के अंतर्गत नहीं आता, जो आत्म-अपराध के खिलाफ एक अधिकार है.

उसने कहा कि तलब किए जाने पर अभियुक्त इस धारा के अंतर्गत सुरक्षा का दावा नहीं कर सकता. लेकिन अगर उसका बयान गिरफ्तारी के बाद दर्ज किया जाता है, तो अभियुक्त अनुरोध कर सकता है कि स्वीकारोक्ति की प्रकृति का होने की वजह से, इसका इस्तेमाल उसके खिलाफ नहीं किया जा सकता. इस सुरक्षा पर स्पेशल कोर्ट केस दर केस आधार पर विचार कर सकता है.

ज़मानत की दोहरी शर्तें बरक़रार, बेगुनाही साबित करने का ज़िम्मा अभियुक्त पर

धन शोधन को एक जघन्य अपराध बताते हुए, कोर्ट ने क़ानून की संशोधित धारा 45 के तहत, ज़मानत के लिए दोहरी शर्तों को वैध क़रार दे दिया.

पीएमएलए मामलों में जिन दो शर्तों को आवश्यक माना जाता है वो हैं- अभियोजक को बेल याचिका का विरोध करने का मौक़ा दिया जाता है, और उचित आधार जिनसे यक़ीन हो सके कि अभियुक्त उस अपराध का दोषी नहीं है, और ज़मानत पर बाहर रहते हुए वो किसी अपराध को अंजाम नहीं देगा.

ये शर्तें सीआरपीसी की शर्तों से अलग हैं, जिनका पालन भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) के लिए ज़मानत देने में किया जाता है.

हालांकि इन दो शर्तों को 2017 में जस्टिस आरएफ नरीमन की अध्यक्षता वाली एक बेंच ने असंवैधानिक घोषित कर दिया था, लेकिन 2018 में सरकार उनमें ज़रा सा बदलाव करके फिर से ले आई.

संशोधन को क़ायम रखते हुए, एससी ने याचिकाकर्ताओं की इस दलील को ख़रिज कर दिया कि 2017 के फैसले ने धारा 45 को ख़त्म कर दिया था. इसके अलावा, 2017 के फैसले ने धारा 45 को इसलिए असंवैधानिक घोषित किया था, क्योंकि उसने पीएमएलए के अंतर्गत शर्तों को केवल एक ख़ास वर्ग के लिए सीमित कर दिया था.

एससी का कहना था कि संशोधन ने उस ख़ामी को दूर कर दिया था, और उसने आगे कहा कि पीएमएलए की धारा 45 के जितनी ही कड़ी शर्तों को, शीर्ष अदालत ने टाडा- पूर्व के आतंकवादी-विरोधी क़ानून- से जुड़े एक मामले में भी बरक़रार रखा था.

बेंच ने मनी लॉन्ड्रिंग मामलों की नेचर के संदर्भ में, 2017 के फैसले में की गई टिप्पणियों से असहमति जताई. कोर्ट इस विचार से सहमत नहीं थी कि मनी लॉन्ड्रिंग अपराध आतंकवाद के मामलों जैसे जघन्य नहीं थे, जिनसे टाडा के अंतर्गत निपटा जाता था.

कोर्ट ने कहा कि अग्रिम ज़मानत दिए जाते समय भी इन दो शर्तों का पूरा होना ज़रूरी है.

कोर्ट को याचिकाकर्ताओं की इस दलील में भी कोई दम नहीं लगा कि न्याय निर्णायक प्राधिकारियों के सामने ये साबित करने का दायित्व कि अपराध की आय बेदाग़ संपत्ति है, अभियुक्त पर नहीं होना चाहिए.

कोर्ट ने कहा कि अपराध की आय से जुड़े किसी भी मामले में, सबूत के बोझ से जुड़ा पीएमएलए का विशेष प्रावधान, न्याय निर्णायक प्राधिकारी के समक्ष कार्यवाही पर भी लागू होगा, और वो केवल विशेष अदालत की कार्यवाही तक सीमित नहीं रहेगा.

(इस ख़बर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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