नई दिल्ली: केंद्रीय कोयला सचिव (2014-2016) और शिक्षा सचिव (2016-2018) के तौर पर कार्य कर चुके रिटायर्ड आईएएस अधिकारी अनिल स्वरूप का कहना है कि मौजूदा प्रधानमंत्री कार्यालय (पीएमओ) में मंत्रालयों पर पूरा नियंत्रण रखने की प्रवृत्ति है, और सब कुछ बहुत केंद्रीकृत है.
मनमोहन सिंह सरकार के साथ-साथ मौजूदा नरेंद्र मोदी सरकार के तहत भी काम कर चुके अनिल स्वरूप 2018 में बतौर शिक्षा सचिव रिटायर हुए थे. 1981-बैच के अधिकारी ने अपने कई दशकों के कार्यकाल में हासिल गहन अनुभवों को तीन किताबों की एक सीरिज में पिरोया है.
इनमें से एक नवीनतम किताब—नो मोर ए सिविल सर्वेंट—इसी महीने प्रकाशित हुई है. इससे पहले वह एथिकल डायलमा ऑफ सिविल सर्वेंट और नॉट जस्ट ए सिविल सर्वेंट भी लिख चुके हैं.
मोदी के पीएमओ को सत्ता की ‘धुरी’ बताते हुए स्वरूप कहते हैं, ‘मैंने पिछली (यूपीए) और वर्तमान (एनडीए) दोनों सरकारों के साथ काम किया है. तुलनात्मक तौर पर मेरा मानना है कि इस पीएमओ में सब कुछ बहुत केंद्रीकृत है. मुझे नहीं लगता कि औपचारिक तौर पर ऐसा कुछ अनिवार्य है, लेकिन यह इसी तरह काम करता है. मुझे लगता था, हमें हर बात के लिए पीएमओ से सलाह क्यों लेनी चाहिए? संभवत: इसमें हर चीज पर नियंत्रण रखने की प्रवृत्ति है.’
उन्होंने दावा किया कि स्वतंत्र रूप से निर्णय लेने की जगह घट रही है. साथ ही जोड़ा कि ‘वास्तव में पीएमओ ने बहुत सारी जगह पर कब्जा कर लिया है—या तो मंत्रालयों ने अपनी जगह छोड़ दी है या पीएमओ ने उस पर कब्जा कर लिया है.’
उन्होंने कहा, ‘मुझे लगता है कि पीएमओ उन जगहों पर भी हावी हो गया है जहां उसे नहीं होना चाहिए था.’
उन्होंने कहा, ‘पहले, कैबिनेट मंत्री बहुत सारे निर्णय लेते थे—सही हों, गलत हों या जैसे भी हों. मैं उनके फैसलों का आंकलन नहीं कर रहा. लेकिन कैबिनेट मंत्री अपने निर्णय लेने के लिए पूरी तरह स्वतंत्र थे. वे अब भी आजाद हैं. लेकिन अब सब कुछ पीएमओ को रेफर करने की प्रवृत्ति बन गई है.’
अनिल स्वरूप के मुताबिक, अब मंत्री अक्सर खुद को छोटी-छोटी चीजों पर पीएमओ की मंजूरी के लिए बाध्य पाते हैं, यहां तक कि प्रेस कांफ्रेंस के आयोजन जैसी बातों के लिए भी.
उन्होंने बताया, ‘ऐसे ही एक उदाहरण का मैंने अपनी किताब में जिक्र किया है. मैं तब शिक्षा सचिव था और सीबीएसई का पेपर लीक हो गया था. और प्रेस कॉन्फ्रेंस करने की मंजूरी के लिए हमें पीएमओ जाना पड़ा.’
उन्होंने बताया, ‘मैं सोच रहा था, हमें प्रेस कॉन्फ्रेंस के लिए पीएमओ जाने की क्या जरूरत है? लेकिन मेरे मंत्री ने कहा कि हमें इस पर पीएमओ से चर्चा करने की जरूरत है. ऐसे कई उदाहरण सामने हैं.’
उन्होंने कहा कि सरकार चलाने में पीएमओ की अहम भूमिका होती है. ‘लेकिन प्रेस कॉन्फ्रेंस करने के लिए मंत्रियों को पीएमओ से मंजूरी लेने की आवश्यकता क्यों है?’
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360-डिग्री मूल्यांकन ‘मनमाने तरीके से डंप करने की प्रक्रिया’
2015 में मोदी सरकार ने सिविल सेवा अधिकारियों के लिए एक विवादास्पद मूल्यांकन प्रक्रिया शुरू की थी.
360-डिग्री मूल्यांकन की ये प्रक्रिया भारत सरकार में वरिष्ठ स्तर के पदों को संभालने के लिए अधिकारियों का पैनल बनाने की व्यवस्था के तहत शुरू की गई थी, जिसमें वरिष्ठ अधिकारियों, साथियों और कनिष्ठों आदि समेत कई स्रोतों से प्रतिक्रिया लेना शामिल है.
पैनल में शामिल करने की प्रक्रिया में समग्र सेवा रिकॉर्ड, सतर्कता स्थिति और संबंधित अधिकारियों की उपयुक्तता को ध्यान में रखा जाता है.
अनिल स्वरूप ने मूल्यांकन प्रक्रिया को ‘अपारदर्शी’ बताया. उनके मुताबिक, ‘विचार बहुत अच्छा था. इसे निजी क्षेत्र को देखकर अपनाया गया था, लेकिन यह सरकार में उस तरह कारगर नहीं है जिस तरह यह निजी क्षेत्र में काम करता है. वहां, यह मूल्यांकन प्रक्रिया पारदर्शी होती है लेकिन सरकार में यह पूरी तरह निष्पक्ष नहीं होती.’
उन्होंने कहा कि निजी क्षेत्र में ‘एक पूरा पैनल साथ बैठता है, अधिकारी से लंबी चर्चा करता है और फिर अधिकारी से बात करता है.’
‘अगर उन्हें किसी विशेष पद के लिए अयोग्य माना जाता है, तो पैनल उनके साथ एक और दौर की बातचीत करता है कि बताता है कि उन्हें क्यों नहीं चुना गया. लेकिन यहां ऐसा कुछ नहीं होता है.’
उन्होंने कहा कि सरकार में लोगों को ‘360 डिग्री मूल्यांकन के बाद अचानक हटा दिया जाता है.’
अनिल स्वरूप के मुताबिक, ‘(वे) नहीं जानते कि क्या बात उनके खिलाफ गई, जबकि उन्होंने अपने पूरे करियर में शानदार प्रदर्शन किया है. 20-25 सालों तक पूरी निपुणता के साथ काम करने वाले अधिकारी अचानक खुद को बेकार पाते हैं और उन्हें यह भी नहीं बताया जाता कि आखिर क्यों. भारत सरकार में जिस तरीके इसे (मूल्यांकन प्रक्रिया को) लागू किया जाता है, उस पर जितना कम बोला जाए, उतना ही अच्छा है.’
‘यहां पर 360-डिग्री मूल्यांकन के काम करने के तरीके को दुर्भाग्यपूर्ण’ बताते हुए उन्होंने कहा, ‘आप किसी को असुविधाजनक पाते हैं और बस उसे डंप कर देते हैं.’
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सिविल सेवकों के राजनीति में शामिल होने पर क्या बोले
अन्य बातों के अलावा, स्वरूप ने सिविल सेवकों के राजनीति में शामिल होने को लेकर जारी बहस को भी तवज्जो दी.
उनके मुताबिक, संवैधानिक पदों पर रहने वाले सिविल सेवकों या न्यायाधीशों को सेवानिवृत्ति के तुरंत बाद राजनीति में शामिल होने से बचना चाहिए.
उनके मुताबिक, ‘किसी सिविल सेवक के राजनीति में शामिल होने में कुछ भी गलत नहीं है, उन्हें क्यों नहीं शामिल होना चाहिए? मेरी आपत्ति केवल संवैधानिक पदों के संबंध में है.’ उन्होंने स्पष्ट किया, ‘मुख्य चुनाव आयुक्त या सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश जैसे संवैधानिक पद पर रहने वाले अधिकारी निर्णय लेने की प्रक्रिया का हिस्सा होते हैं.’
उन्होंने आगे कहा, ‘इसलिए, यद्यपि यह कानूनी तौर पर गलत नहीं है, लेकिन किसी न्यायाधीश या चुनाव आयुक्त के लिए सेवानिवृत्ति के तुरंत बाद कोई राजनीतिक कार्यभार संभालना नैतिक रूप से गलत है.’
उन्होंने इस संदर्भ में भारत के पूर्व चीफ जस्टिस रंजन गोगोई के सेवानिवृत्त होने के बाद राज्यसभा सदस्य बनने का उदाहरण दिया. उन्होंने कहा, ‘गोगोई कानूनी तौर पर गलत नहीं थे, लेकिन नैतिकता के पैमाने पर गलत थे. ऐसे परिदृश्य की कल्पना कीजिए जिसमें एक मौजूदा सुप्रीम कोर्ट जज भारत के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश (दीपक मिश्रा) के खिलाफ प्रेस कॉन्फ्रेंस करते हैं, और अवमानना के लिए दोषी भी नहीं ठहराए जाते है. फिर वह सीजेआई बन जाते हैं. बाद में उनके खिलाफ यौन उत्पीड़न का मामला बनता है और फिर समझौता हो जाता है. यौन उत्पीड़न के मामले में समझौता कैसे हो सकता है?’
उन्होंने कहा, ‘यदि महिला ने गलत शिकायत की है, तो उसके खिलाफ कार्रवाई होनी चाहिए थी. और अगर उसने जो कहा वो सही था, तो फिर सीजेआई के खिलाफ कार्रवाई होनी चाहिए थी. समझौता कैसे हो सकता है.’
उन्होंने कहा, ‘इस सबके बावजूद वह (गोगोई) संसद सदस्य बने. इसलिए, मैं निश्चित तौर किसी अधिकारी के राजनीति में आने के खिलाफ नहीं हूं, लेकिन मैं निश्चित तौर पर सेवारत रहते हुए राजनीति करने वाले अधिकारियों के खिलाफ हूं. मैं लोगों के संवैधानिक पद पर रहने और फिर राजनीति में शामिल होने के खिलाफ हूं.’
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