नई दिल्ली: बीबीसी हिंदी पर वहां पर काम कर चुकी एक पूर्व पत्रकार ने भेदभाव और प्रताड़ना के गंभीर आरोप लगाए हैं. मीना कोतवाल नाम की एक दलित महिला पत्रकार का आरोप है कि इन दबावों की वजह से उन्हें अपनी नौकरी गंवानी पड़ी. आरोपों पर बीबीसी का कहना है कि वह जिस देश में भी काम करता है, वहां के कानून का पालन करता है. बीबीसी ने ‘निजी मामलों’ टिप्पणी से भी इंकार किया है.
मीना ने दिप्रिंट को बताया, ‘बीबीसी हिंदी ने मेरे साथ आठ लोगों को चुना. लेकिन सिर्फ मुझे ही एक साल के कॉन्ट्रैक्ट पर रखा गया. बाकी भाषाओं में भी लोग एक साल के कॉन्ट्रैक्ट पर आए. लेकिन उन्हें स्थायी कर दिया गया.’ उनके आरोपों के जवाब में बीबीसी ने कहा, ‘हमारे साथ कई लोग एक सीमित समय के कॉन्ट्रैक्ट पर काम कर रहे थे. इसको आगे बढ़ाने के लिए कई बातें अहम होती हैं.’
बीबीसी में उच्च पदस्थ एक सूत्र का कहना है कि कॉन्ट्रैक्ट समाप्त होने के बाद मीना के लिए कोई ऐसा पद बचा ही नहीं था. हालांकि, बीबीसी हिंदी में काम कर रहे एक पत्रकार ने नाम न बताने की शर्त पर कहा कि बीते छह महीने में बीबीसी हिंदी में दो अतिरिक्त पदों पर नियुक्तियां आईं थीं. अगर संस्था चाहती तो मीना को स्थायी कर सकती थी.
सिलसिलेवार आरोप
मीना का आरोप कि बीबीसी में पहुंचने के साथ वहां उनकी जाति पहुंच गई. दो महीने में ही उन्हें सुनने को मिल गया था कि अब उनके जैसे लोग यहां के लोगों के साथ काम करेंगे. बीबीसी में उच्च पदस्थ एक सूत्र का पक्ष है कि मीना ने ही अपनी जाति का विषय नौकरी में इंटरव्यू में उठाया था.
मीना ने भेदभाव का मामला बीबीसी हिंदी के संपादक और भारतीय भाषाओं की संपादक के सामने उठाया था. उन्हें शिकायतों को दूर करने का आश्वासन भी दिया गया. बीबीसी हिंदी के एक संपादक पर आरोप है कि उन्होंने मीना की छवि बिगाड़ने का काम किया.
मीना ने कहा, ‘ऑफिस में मेरी छवि ऐसी बना दी गई कि मुझे कुछ नहीं आता है. लगातार आलोचना की वजह से मुझे अवसाद की गोलियां खानी पड़ी. मैंने दो बार आत्महत्या की भी कोशिश की.’ हालांकि, बीबीसी में उच्च पदस्थ एक सूत्र का कहना है कि मीना को डेस्क के बाद रिपोर्टिंग का भी मौका मिला.
बीबीसी हिंदी की संरचना में दलित-ओबीसी
बीबीसी हिंदी के एक पत्रकार ने नाम न बताने की शर्त पर कहा कि संस्था में मीना एकमात्र दलित कर्मचारी थीं. न्यूज़ रूम में विविधता के लिए बीबीसी की ‘डायवर्सिटी पॉलिसी’ है. बीबीसी के लिए भारत में विविधता का काम देख चुकीं संस्था की पूर्व कर्मचारी निवेदिता पाठक ने कहा, ‘बीबीसी न सिर्फ़ विविधता का ख़्याल रखता है. बल्कि स्त्री-पुरुष की बराबर संख्या पर भी ज़ोर देता है. ये कॉन्टेंट पर भी लागू होता है.’
बीबीसी का कहना है कि संस्था में हर तरह की पहचान के लोग काम करते हैं. ये कोशिश की जाती है कि सबको बराबर मौक़ा दिया जाए, चाहे वो समाज के किसी भी तबके से आता हो. आरोप है कि ऐसी कोशिश के बावजूद जातिवाद का मर्ज यहां बना हुआ है. बीबीसी हिंदी के पत्रकार ने कहा कि ऑफिस में कर्मचारी एक-दूसरे के लिए जातिसूचक संबोधन का इस्तेमाल करते हैं. ‘पंडितजी’ और ‘भूमिहार’ बुलाया जाना आम बोलचाल में शामिल है.
दिप्रिंट को मिली जानकारी के मुताबिक 15 जुलाई को बीबीसी हिंदी की एक विशेष मीटिंग बुलाई गई. मीटिंग में सोशल मीडिया के ऐसे ही एक पोस्ट का ज़िक्र हुआ. पोस्ट में सभी पत्रकारों के नाम के साथ उनकी जातियां भी लिखी गई थीं. मामले पर मीटिंग में शामिल एक अन्य पत्रकार ने कहा, ‘हम 14 सालों से यहां काम कर रहे हैं और एक-दूसरे को ऐसे ही बुलाते आए हैं. इतने सालों का वर्क कल्चर हम नहीं बदल सकते.’
आरोपों को बल देती ‘बेनाम चिट्ठी’
भेदभाव के आरोपों को बल देने वाले सबूत के तौर पर मीना ने ‘मीडिया विजिल’ नाम के पोर्टल के एक लेख का ज़िक्र किया. चार अगस्त को छपे इस लेख को बीबीसी हिंदी में काम कर रहे किसी व्यक्ति ने बिना नाम बताए लिखा था. इसमें कहा गया कि ‘मीना जी पर आरोप लगा है कि उनका (आनलाइन) पेपर राजा जी ने लिखा था जो आज उनके पति हैं और वो तो सवर्ण हैं ही.’
मीना कहती हैं, ‘यानी मेरी अब तक की जामिया मिलिया, भारतीय जन संचार संस्थान और एमफिल की पढ़ाई बेकार है? क्या वहां मेरे पति ही मेरा पेपर देते थे? चूंकि वो एक ब्राह्मण हैं और मैं एक दलित तो क्या मुझमें इतनी क्षमता नहीं?’ मीना के ख़िलाफ़ लिखे गए लेख को मीडिया विजिल ने हटा लिया और बिना शर्त माफी मांग ली. दिप्रिंट को ये जानकारी भी मिली है कि मीना के मामले की जांच के लिए एक समिति बनाई गई है.