नई दिल्ली: मौलाना कल्बे सादिक़- इस्लामिक विद्वान, शिक्षाविद, परोपकारक, और ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड (एआईएमपीएलबी) के वरिष्ठ उपाध्यक्ष- का मंगलवार को उत्तर प्रदेश की राजधानी के इरा लखनऊ मेडिकल कॉलेज व अस्पताल में निधन हो गया.
83 वर्षीय शिया धर्मगुरू के लिए, बहुत से देशों में ज़बर्दस्त सदभाव था, और उनके चाहने वाले कई देशों में फैले हुए थे, जिनके बीच वो धर्निर्पेक्षता के मूल्यों और सभी धर्मों के बीच सौहार्द का प्रचार करते थे.
सादिक़, जिन्हें 2017 में कैंसर से पीड़ित बताया गया था, पिछले कुछ समय से बीमार चल रहे थे, और यूरिनरी ट्रैक्ट इनफेक्शन, सेप्टिक शॉक, एक्यूट किडनी शटडाउन और परालसिस से पीड़ित थे.
उन्हें लखनऊ में मुहर्रम की सभाओं को मुख़ातिब करने के लिए जाना जाता था, जहां लोग दूर दूर से उन्हें सुनने के लिए आते थे.
लोकिन जो चीज़ सादिक़ को दूसरे बहुत से मज़हबी विद्वानों से अलग करती थी, वो थी सभी समुदायों तक पहुंच रखने, और अपने विचारों को मुखर रूप से व्यक्त करने की उनकी क्षमता. चाहे वो व्हीलचेयर में सीमित रहने के बावजूद, नागरिकता (संशोधन) अधिनियम के खिलाफ, लखनऊ के घंटाघर पर विरोध प्रदर्शन में शिरकत हो, या अयोध्या के राम मंदिर विवाद पर, अपनी संस्था से अलग रुख़ अपनाना हो, सादिक़ कभी विवादास्पद मुद्दों से बचते नहीं थे.
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‘भारत के दूसरे सर सैयद’
लखनऊ में जन्मे सादिक़ का ताल्लुक़ इस्लामिक विद्वानों के एक घराने से था- उनके पिता कल्बे हुसैन, भाई कल्बे आबिद और भतीजे कल्बे जव्वाद, सभी अपने इस्लामी विद्वत्ता और भाषण कला के लिए जाने जाते हैं.
कल्बे सादिक़ की शुरूआती तालीम लखनऊ के मदरसा सुल्तानुल मदारिस में हुई, जिसके बाद वो अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी (एएमयू) चले गए, जहां उन्होंने आर्ट्स में स्नातक की डिग्री ली, और फिर अरबी साहित्य में एमए किया.
सादिक़ शिक्षा को ज़िंदगी का एक ज़रूरी हिस्सा समझते थे, और वो ऐसे बहुत से परोपकारी प्रोजेक्ट्स से जुड़ गए, जो ग़रीब बच्चों को शिक्षा देने में मदद करते थे. उन्होंने तौहीदुल मुस्लिमीन ट्रस्ट क़ायम किया, जो बहुत से छात्रों, ख़ासकर यतीमों को वज़ीफा देता था. उन्होंने ख़ुद को लखनऊ के यूनिटी कॉलेज के कामकाज, और उससे जुड़े कई मुफ्त शिक्षा कार्यक्रमों में भी लगा लिया.
ऑल इंडिया शिया पर्सनल लॉ बोर्ड के जनरल सेक्रेटरी, मौलाना यासूब अब्बास ने, उनकी तुलना 19वीं सदी के मशहूर शिक्षाविद और सुधारक से करते हुए, कल्बे सादिक़ को भारत का ‘दूसरा सर सैयद अहमद ख़ान’ क़रार दिया.
अब्बास ने कहा कि सादिक़ का मानना था, कि किसी भी क़ौम की तरक़्क़ी के लिए तीन बुनियादी चीज़ों का होना ज़रूरी है: शिक्षा में सुधार, अच्छी सेहत, और हमेशा समय की पाबंदी.
अब्बास ने कहा, ‘वो अकसर कहा करते थे कि जो वक़्त का पाबंद नहीं होता, वक़्त उसे पीछे छोड़ जाता है’.
लखनऊ वासियों की स्वास्थ्य व्यवस्था में सुधार के लिए, सादिक़ ने बतौर अध्यक्ष एलएमसीएच की अगुवाई की, जहां उन्होंने अपनी आख़िरी सांस भी ली.
प्रमुख मुद्दों पर रुख़
कल्बे सादिक़ मौहर्रम के दौरान अपने ज़ोरदार भाषणों के लिए मशहूर थे, लेकिन दूसरे तमाम मज़हबों में भी उनके चाहने वालों की कमी नहीं थी. बहुत से धार्मिक समुदायों के विद्वान, सामाजिक न्याय और एकता पर लेक्चर देने के लिए अकसर उन्हें बुलाते थे.
उन्होंने शिया-सुन्नी एकता और विश्व-बंधुत्व जैसे विषयों पर, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, युनाइटेड किंग्डम समेत दूसरे कई देशों में भी, दर्शकों को मुख़ातिब किया.
काफी हद तक वो सार्वजनिक चकाचौंध से दूर ही रहते थे, ख़ासकर अपनी ज़िंदगी के आख़िरी हिस्से में, लेकिन जब भी वो ज़रूरी समझते थे, तो अहम मुद्दों पर अपना रुख़ ज़रूर साफ करते थे.
सार्वजनिक रूप से आख़िरी बार वो शायद जनवरी 2020 में नज़र आए, जब सीएए-विरोधी प्रदर्शन अपने चरम पर थे. व्हीलचेयर में बैठे रहने के बावजूद, सादिक़ लखनऊ के ऐतिहासिक घंटाघर पर पहुंचे, और उन महिलाओं के साथ एकजुटता का इज़हार किया, जो वहां कई दिन से प्रदर्शनों की अगुवाई कर रहीं थीं.
नरेंद्र मोदी सरकार को चुनौती देते हुए, उन्होंने कथित तौर पर कहा था, ‘अगर आप इस क़ानून को वापस नहीं लेते, तो विरोध कर रहीं ये महिलाएं और बच्चे, एक दिन आपको कुर्सी से उतार देंगे’.
2017 में, अयोध्या में राम जन्मभूमि-बाहरी मस्जिद के विवादित स्थल पर, सुप्रीम कोर्ट के फैसले से कुछ साल पहले, कल्बे सादिक़ ने मुसलमानों से अपील की थी, कि अदालत जो भी फैसला करती है, उसे शांति के साथ मंज़ूर कर लें.
अपनी संस्था एआईएमपीएलबी के स्थापित रुख़ से अलग हटते हुए, उन्होंने कथित तौर पर कहा था, ‘मैं क़ौम से गुज़ारिश करता हूं कि विवादित भूमि को हिंदुओं को दे दें, जिनकी भावनाएं बहुत गहराई के साथ उस जगह से जुड़ी हैं. ज़मीन का एक टुकड़ा देकर ये क़ौम लाखों दिल जीत सकती है’.
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