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Friday, 22 November, 2024
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गुजरात- मंदिरों में प्रवेश पर पाबंदी के खिलाफ माता नी पछेड़ी कला ने किया है संघर्ष, इसे बचाना चुनौती

माना जाता है कि यह कला 3,000 वर्ष से अधिक पुरानी है और इसमें देवी के विभिन्न स्वरूपों को उकेरा जाता है. इसके लिए प्रशिक्षण 11 साल की उम्र में शुरू हो जाता है और दशकों तक चलता रहता है.

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अहमदाबाद: अहमदाबाद के वसना इलाके में एक संकरी से गली से गुजरते वक्त तमाम घरों के बाहर जलते मिट्टी के चूल्हों से उड़ता धुआं और रंग और कपड़ों से भरे मिट्टी के बर्तन ही नजर आते हैं. ऐसे ही एक घर में जर्जर जीने से ऊपर चढ़ने पर बिना प्लास्टर के ईंट की दीवारों वाला एक कमरा मिलता है. 12×25 फीट के इस कमरे की छत टिन की है और इसमें एक बड़ी-सी मेज पड़ी हुई है. यह कमरा ही चितरा परिवार की वर्कशॉप है.

चितरा उन कुछ मुट्ठी भर परिवारों में शामिल हैं जो ‘माता नी पछेड़ी’ कला को जीवित रखने में जुटे हैं, जिसका शाब्दिक अर्थ होता है ‘देवी मां के पीछे.’ माना जाता है कि यह कला 3,000 वर्ष से अधिक पुरानी है और इसमें देवी के विभिन्न स्वरूपों और उससे जुड़ी किवदंतियों को उकेरा जाता है. इन कहानियों को पूरी जीवंतता से भर देने की बेहद जटिल प्रक्रिया सीधे तौर पर कलाकारों की गहरी आस्था से जुड़ी है.

इस कला में महारत हासिल करने के कारण 2006 में राष्ट्रीय पुरस्कार पाने वाली किरण चितरा कहती हैं, ‘ये श्रद्धा का ही एक रूप है और ऐसी कोई पेंटिंग पूरी करने में कई बार महीनों का समय लग जाता है.’

Om and Kiran Chitara with their Mata ni pachedi painting | Janki Dave
ओम और किरन चितरा अपनी माता नी पछेड़ी पेंटिंग के साथ | जानकी दवे

यह एक ऐसी परंपरा है जो सैकड़ों सालों से पीढ़ी दर पीढ़ी चली आ रही है. चितरा परिवार के युवा सदस्य आज इस कोशिश में लगे हैं कि कला के प्राचीन स्वरूप को बरकरार रखने के साथ इसे कैसे प्रांसगिक भी बनाए रखा जाए.

परिवार के बच्चे 11 साल की उम्र में ही माता नी पछेड़ी बनाना सीखने लगते हैं. चितरा परिवार में कुल मिलाकर 50 लोग हैं. इसमें सबसे छोटे 20 वर्षीय ओम चितरा बताते हैं, ‘हर देवी से जुड़ी एक अलग कहानी होती है, और सदियों से उन कहानियों की तरह ही यह कला भी हमारे बड़ों से पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ती रही है.’


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इतिहास, कला और परंपरा

माता नी पछेड़ी में परंपरागत तौर पर केवल दो रंगों काले और लाल का इस्तेमाल किया जाता रहा है, हालांकि, सदियों पुरानी इस कला में अन्य अधिकांश कलाओं की तरह ही समय के साथ बदलाव आया. चितरा परिवार और अधिक रंगों का इस्तेमाल करता है लेकिन ये सभी सामान्यत: प्राकृतिक होते हैं.

यह कला सीखने की प्रक्रिया में सालों का समय लगता है. अभी इसमें महारत हासिल करने की प्रक्रिया में जुटे ओम चितरा का कहना है, ‘इसके लिए बहुत अभ्यास की जरूरत होती है. ये सिर्फ ड्राइंग या रंगों की समझ से जुड़ी कला नहीं है. सीखने की पूरी प्रक्रियाएं जटिल और काफी समय लेने वाली हैं.’

प्रत्येक कपड़े पर देवी की प्रमुख आकृति के इर्द-गिर्द विभिन्न रंगों के जरिये पूरी कहानी को बुना जाता है. मछली वाले तराजू से लेकर देवी के कवच तक हर चीज को बारीकी से उकेरा जाता है ताकि भावी पीढ़ियों के लिए इसे सहेजा जा सके. पेंटिंग का आकार 4×4 मीटर से लेकर बड़ा-छोटा भी हो सकता है. चित्रों में पूरे गांव की एक कहानी समेटी जाती है, और आमतौर पर इसमें एक नदी, पेड़, देवी मंदिर और उनके पूजा अनुष्ठान के तौर-तरीके शामिल होते हैं. इसमें राजाओं की कहानियां भी शामिल हो सकती हैं.

A Mata ni pachedi painting with fine detailing | Art Village Karjat
सुंदर डिटेलिंग के साथ एक माता नी पछेड़ी पेंटिंग | Art Village Karjat

एक बार पेंटिंग पूरी हो जाने के बाद ‘देवी का पवित्र कपड़ा’ साबरमती नदी के बहते पानी में धोया जाता है. फिर इसे उबाला जाता है ताकि ‘यह सुनिश्चित हो सके कि यह सालों-साल बेहतर स्थिति में रहेगा.’

माना जाता है कि इसकी शुरुआत खानाबदोश वाघरी जाति के लोगों ने की थी. अपनी ‘निचली जाति’ के कारण मंदिरों में प्रवेश न दिए जाने पर उन्होंने देवी को चित्रित करना शुरू कर दिया था. यह उनके लिए अपनी आस्था जताने और देवी-देवताओं से जुड़ने का एक तरीका था.

‘पवित्र वस्त्र’ आसानी से छिपाया भी जा सकता है. ओम चितरा कहते हैं, ‘हमारे समुदाय के लिए मंदिरों में प्रवेश प्रतिबंधित होने पर हमारे लिए यही मंदिर बन गए. और अब, हम इन चित्रों के माध्यम से अपनी कला और परंपरा को जीवित रखने में जुटे हैं. साथ ही चित्रित कपड़े के प्रत्येक टुकड़े पर उकेरे गई कला की बारीकी और उसमें छिपी कहानियों के बारे में भी बताया.

आज, गुजरात के तमाम मंदिरों में माता नी पछेड़ी पेंटिंग देखी जा सकती है, जिन्हें पीढ़ियों से संजोकर रखा गया है.

एक नजर में देखने पर यह कला दक्षिण भारतीय कलमकारी के काम की तरह ही लगती है. लेकिन बारीकी से देखने पर इन दोनों कलाओं के बीच किसी समानता का भ्रम टूट जाता है.

टेक्सटाइल और शिल्प कला पारखी और साड़ी स्टाइलिस्ट अश्विनी नारायण कहते हैं, ‘माता नी पछेड़ी से देवी के प्रति आस्था जुड़ी है. कलमकारी की तुलना में यह कला भक्ति का एक स्वरूप है. कलमकारी में सुंदरता है, कलात्मक है और पौराणिक गाथाओं का वर्णन मिलता है. लेकिन माता नी पछेड़ी सालों पुरानी परंपरा और शिल्प में समाया एक अनुभव है.’

आगे का रास्ता

चितरा परिवार ने सदियों पुरानी परंपरा को जीवित तो रखा है, लेकिन उनके लिए इस कला की प्रासंगिकता बनाए रखना, लोगों को इसके इतिहास से रू-ब-रू कराना और अपनी आजीविका के लिए इस पर निर्भर रहना किसी चुनौती से कम नहीं है.

The Chitara family outside their home | Janki Dave
अपने घर के बाहर चितरा परिवार के लोग | जानकी दवे

केंद्र और राज्य सरकारों से मदद मिली है लेकिन चितरा परिवार के मुताबिक, यह पर्याप्त नहीं है. किरण चितरा कहती हैं, ‘हमें पुरस्कारों के साथ कुछ धन मिलता रहा है, लेकिन यह पर्याप्त नहीं है. पूरे परिवार के पास काम करने के लिए सिर्फ एक टेबल है, जो हमें ज्यादा ऑर्डर न लेने के लिए बाध्य करती है.’

महामारी का प्रकोप घटने के बाद विभिन्न संस्थानों और लोगों ने चितरा परिवार को वर्कशॉप के लिए बुलाना शुरू कर दिया है. किरण कहती हैं, ‘इससे हमें आर्थिक रूप से काफी मदद मिल रही है.’

महाराष्ट्र के करजत में आर्ट विलेज की संस्थापक गंगा काकड़िया का मानना है कि कलाकारों और उनके परिवारों के लिए सबसे बड़ी चुनौती यह सुनिश्चित करना है कि उनकी लगातार एक निश्चित आय होती रहे.

गंगा ने कहा, ‘हम चितरा परिवार के साथ मिलकर यह सुनिश्चित कर रहे हैं कि न केवल उनकी कला को सराहना मिले बल्कि इसे प्रदर्शित करने के लिए और उचित मंच भी मिल सकें.’ इस वर्ष आर्ट विलेज ने चितरा परिवार के साथ मिलकर बच्चों के लिए दो वर्कशॉप आयोजित कीं. इसमें एक जुलाई में हुई और दूसरी इस माह के शुरू में.

इस बीच, चितरा परिवार की नई पीढ़ी कला में विविधता लाने के हरसंभव प्रयास भी कर रही है. फिलहाल सी.एन. विद्यालय में फाइन आर्ट्स की अंतिम वर्ष की छात्रा निरल चितरा को माता नी पछेड़ी कला काफी प्रेरित करती है और वह इसमें अपनी शैली जोड़ना चाहती हैं. लेकिन प्रासंगिक बने रहना भी कोई मामूली चुनौती नहीं है.

अहमदाबाद यूनिवर्सिटी में हेरिटेज मैनेजमेंट कोर्स के सिलसिले में पिछले एक साल से चितरा परिवार के साथ काम कर रही ज्योति शुक्ला कहती हैं, ‘यह सुनिश्चित करने के लिए कि भारत समेत दुनियाभर के लोग इसमें लगने वाली अथक मेहनत के बारे में जानें, शिक्षण संस्थानों की मदद से एक व्यापक दृष्टिकोण अपनाने की जरूरत है. कलाकारों को शिक्षकों के तौर पर पहचान दिलाने की जरूरत है, ताकि वे पारंपरिक शिल्प से जुड़ा अपना ज्ञान साझा कर सकते हैं और उन्हें कक्षाओं तक पहुंचा सकें.’

अब जबकि दीपावली का त्यौहार नजदीक है, चितरा परिवार ऑर्डर पूरा करने में व्यस्त हैं. चंद्रकांत अपनी पेंटिंग दिखाते हैं, जिसे पूरा होने में 4 महीने से अधिक का समय लगा. उन्हें अपने काम और अपनी परिवारिक विरासत पर गर्व है. वह कहते हैं, ‘मेरे पिता ने मुझे ऐसी कला अपनाने को कहा जिसे हर कोई नहीं जानता है.’

(इस रिपोर्ट को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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