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Saturday, 23 November, 2024
होमदेशप्रवासी मज़दूरों की मदद कर रहीं कई संस्थाओं को लॉकडाउन के बाद असल समस्या शुरू होने का डर

प्रवासी मज़दूरों की मदद कर रहीं कई संस्थाओं को लॉकडाउन के बाद असल समस्या शुरू होने का डर

प्रवासी मज़दूरों की सबसे बड़ी शिकायत है कि अचानक से हुए लॉकडाउन की वजह से उनकी मज़दूरी नहीं मिली. उनकी सबसे बड़ी मांग है कि कोई उन्हें गांव पहुंचा दे.

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नई दिल्ली: प्रवासी मज़दूरों का दिल्ली समेत देशभर में जब पलायन शुरू हुआ तो इससे जुड़ी तस्वीरों ने सबको विचलित करके रख दिया. ऐसे में आमो-ख़ास लोग कोविड-19 जैसी महामारी के डर को दरकिनार करके इन लोगों की मदद करने सड़क पर आ गए. अब जब ये पलायन धीमा पड़ गया है, रोज़ कमा कर खाने वाले मज़दूरों की मदद में कई संस्थाएं अहम भूमिका निभा रही हैं.

ऐसा ही एक संस्था का नाम आजीविका ब्यूरो है. इसके निदेशक समूह की 41 साल की अमृता शर्मा ने कहा, ‘असली समस्या लॉकडाउन की समाप्ति के बाद शुरू होगी. इनमें रोज़ कमा के खाने वालों की बोरेज़गारी के अलावा गांव लौटे लोगों के पास अनाज की कमी बड़ी समस्याएं होंगी.’

उन्होंने दिप्रिंट से फ़ोन पर बातचीत में कहा कि शहरों से गांव पहुंचने वाले मज़दूरों को बीमारी साथ लेकर आने वाला समझा जा रहा है. चाहे तात्कालिक और भविष्य की बेरोज़गारी हो, खाने की कमी हो या इन मज़दूरों के साथ हो रहा व्यवहार हो, इनमें से किसी से निपटने को लेकर सरकार के पास कोई ठोस नीति नहीं है.

‘मज़दूरों को नहीं मिले उनके पैसे, सब बस इतना कहते हैं कि गांव पहुंचा दो’

आजीविका ब्यूरो वाले प्रवासी मज़दूरों के साथ पिछले 15 सालों से काम कर रहे हैं. राजस्थान के उदयपुर स्थित ये संस्था गुजरात और महाराष्ट्र में मौजूद मज़दूरों के लिए भी काम करती है. इसे राजस्थान सरकार से मान्यता मिली हुई है.

अमृता ने कहा कि खाने की चीज़ें देने और अन्य मदद के साथ उनकी संस्था एक ‘लेबर लाइन’ चला रही है. इस लाइन पर उन्हें रोज़ 500-600 कॉल्स आते हैं. लॉकडाउन में अभी भी इन राज्यों में फंसे मज़दूर सबसे ज़्यादा ट्रांसपोर्टेशन की मांग करते हैं और कहते हैं किसी तरह उन्हें उनके गांव पहुंचा दिया जाए.

वहीं, ज़्यादातर मज़दूरों की शिकायत ये है कि अचानक से हुए लॉकडाउन की वजह से उन्हें उनके काम के पैसे नहीं मिले. अमृता ने कहा, ‘लॉकडाउन के पहले दिन से अब तक 8000 कॉल्स आई. इंडस्ट्री का गढ़ माने जाने वाले सूरत और बॉम्बे जैसे शहरों से सबसे ज़्यादा शिकायतें आई हैं.’

आजीविका सूखा राशन और पका हुआ खाना देकर आफत में फंसे मज़दूरों की मदद कर रही है. हालांकि, बातचीत में ये भी पता चला कि मज़दूरों को कई तरह की ज़्यादती का सामना करना पड़ रहा है. ऐसी ही एक घटना का उदाहरण देते हुए अमृता ने कहा कि राजस्थान के मज़दूर जब महाराष्ट्र से पैदल अपने राज्य को आ रहे थे तब उनके साथ काफ़ी ज़्यादती हुई.

अमृता ने कहा, ‘पैदल आ रहे मज़दूरों को रास्ते में पुलिस ने पीटकर कंटेनर में भरकर वापस महाराष्ट्र भेज दिया.’ उन्होंने ये भी कहा कि भारत सरकार की नीति में प्रवासी मज़दूरों तक पहुंचने का कोई रास्ता नहीं है और कोविड- 19 से जुड़े इस लॉकडाउन में ये बात साफ़ तौर पर निकलकर सामने आई है. किसी को नहीं पता की इनकी तुरंत की जरूरतें क्या हैं.

आजीविका ने बताया कि क्या करे सरकार

जानकारी देते हुए उन्होंने कहा कि उनकी संस्था अभी तक 10,000 के करीब कमागरों तक पहुंची है और उनकी समस्याओं को समझते हुए सरकार के लिए सुझाव वाला एक चार्टर बनाया है. इसमें मांग की गई है कि भटक रहे मज़दूरों के मामले केंद्र अंतरराज्यीय सामंजस्य बिठाकर इन्हें घर भेजने का काम करे.

अन्य अहम सलाहों में कहा गया है कि जो मज़दूर मज़दूरी न मिलने की शिकायत कर रहे हैं. ऐसे में इस मामले के लिए लीगल सेल की स्थापना हो, यूनिवर्सल एक्सेस टू राशन यानी जो जहां है वहीं उसके राशन की व्यवस्था की जाए. नरेगा के तहत स्थानीय स्तर पर इन लोगों के हाथ में पैसे दिए जाएं जैसी अन्य सलाहें भी दी गई हैं.

पके खाने के अलावा अपने सूखे राशन की किट में मास्क भी दे रहा स्माइल फॉउंडेशन

दिल्ली स्थित स्माइल फॉउंडेशन और गुड़गांव स्थित एम-थ्री-एम फॉउंडेशन जैसी संस्थाएं भी लॉकडाउन की वजह से असहाय हो गए इन लोगों को सूखा राशन, पका हुआ खाना और सैनिटाइज़ेशन से जुड़े सामान देने का काम कर रही हैं.

15 साल साल पुरानी संस्था स्माइल फॉउंडेशन के को-फॉउंडर शांतनु मिश्रा ने कहा, ‘हमारे ड्राइ राशन के एक किट में चार से पांच लोगों के एक परिवार के एक महीना का काम चल जाता है. इसमें दाल, चावल, आटा, साबुन, टूथपेस्ट जैसी 12 चीज़ें होती हैं. हर किट में कम से कम चार मास्क भी होते हैं.’

ये भी पता चला कि सैनिटाइज़र के मार्केट से ग़ायब होने की स्थिति में लोगों को साबुन दिया जा रहा है और भोजन जितना ही अहम हो चुकी साफ़-सफ़ाई के बारे में जागरुक करते हुए उन्हें बताया जा रहा है कि 20 सेकेंड तक हाथ धोना, मुंह ढंक कर रखना और एक-दूसरे से दूरी बनाए रखना क्यों ज़रूरी है.

संस्था टेली कॉलिंग और टेली काउंसिलिंग के जरिए भी कोरोना महामारी को लेकर जागरूकता फैलना का काम कर रही है. इनमें ये समझाने की कोशिश होती है कि बीमारी के लक्ष्ण क्या हैं और इलाज का रास्ता क्या है. उन्होंने कहा, ‘हमारा लक्ष्य 1.5 लाख़ परिवारों तक पहुंचना है. पहले लॉकडाउन में 10 राज्यों के 40 हज़ार परिवारों तक पहुंचने का प्रयास जारी है.’

‘सबके साथ आने से ही जीती जा सकती है कोरोना के ख़िलाफ़ जंग’

गुड़गांव स्थित एम-थ्री-एम फाउंडेशन वाले भी ज़रूरतमंद लोगों को रोज़ की ज़रूरतों का सामान दे रहे हैं. संस्था का कहना है कि वो ऐसे लोगों के घरों को फ्यूमिगेट कराने का भी काम कर रहे हैं. एक साल पुरानी इस संस्था की एक ट्रस्टी पायल कनौदिया ने कहा, ‘कोविड- 19 के मामले में लोगों को जागरूक करना बहुत ज़रूरी है.’

उन्होंने कहा कि उनकी संस्था लोगों को सिर्फ साफ़-सफ़ाई के प्रति जागरूक ही नहीं कर रही बल्कि उन्हें सफ़ाई के लिए ज़रूरी साबुन जैसी चीज़ें भी मुहैया करा रही है. संस्था से ज़रूरतमंद लोगों को सूखा राशन पहुंचाने का भी काम किया है. इन्होंने जीबी रोड के करीब 150 परिवारों को सूखा राशन दिया है.

कसौदिया ने बताया कि अब तक 5000 ज़्यादा परिवारों को सूखा राशन दिया गया है. उन्होंने कहा, ‘लॉकडाउन के पहले फेज़ में 1 लाख़ लोगों तक पहुंचने का प्लान है. अगर लॉकडाउन बढ़ता है तो दूसरा फेज़ शुरू करेंगे. इसमें कुल 6 करोड़ रुपए तक का ख़र्च आने की संभावना है और अब तक 1.5 करोड़ तक ख़र्च कर चुके हो हैं.’

इन सभी संस्थाओं का ये भी मानना है कि इस विपदा से निपटने में सरकार की अहम भूमिका है लेकिन जब तक समाज का हर तबका साथ नहीं आता तब तक इतनी बड़ी महामारी से पार पाना मुश्किल है.

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