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Monday, 4 November, 2024
होमदेशMP के सतना में हैं बहुत सारे कोविड हॉटस्पॉट्स, ख़ाली पड़े हैं अस्पताल, डॉक्टरों पर किसी को नहीं है भरोसा

MP के सतना में हैं बहुत सारे कोविड हॉटस्पॉट्स, ख़ाली पड़े हैं अस्पताल, डॉक्टरों पर किसी को नहीं है भरोसा

सतना ज़िले के बहुत सारे गांव रेड ज़ोन या हॉटस्पॉट हैं, लेकिन ऑक्सीजन बेड्स तथा अन्य संसाधन होने के बावजूद, इलाक़े के अस्पताल ख़ाली पड़े हैं.

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सतना: मध्य प्रदेश के सतना ज़िले में आने वाले कई गांवों को, कोविड-19 के बढ़ते मामलों की वजह से- पिछले हफ्ते रेड या ऑरेंज ज़ोन घोषित कर दिया गया.

रेड ज़ोन्स हॉटस्पॉट्स होते हैं, जिनमें बहुत अधिक केस लोड होता है, और पुष्ट मामलों की दर दोगुनी होती है, जबकि ऑरेंज ज़ोन वो होते हैं, जिनमें मामले तो होते हैं, लेकिन पॉज़िटिव मामलों में उछाल नहीं होता.

सतना में, समस्या चिकित्सा सुविधाओं की नहीं है. ऐसे बहुत से ज़ोन में सरकारी अस्पताल हैं, जिनमें कोविड-19 मरीज़ों के इलाज के लिए, ऑक्सीजन बेड्स, दवाएं, और अन्य चिकित्सा संसाधन मौजूद हैं.

लेकिन उनके यहां जो चीज़ नहीं है, वो हैं मरीज़.

मझगावां सरकारी अस्पताल के चिकित्सा अधिकारी डॉ गुंजन त्रिपाठी ने कहा, ‘यहां सिर्फ वो मरीज़ आते हैं जो जानकार होते हैं. ज़िले में मामलों की संख्या को देखते हुए, हमारे पास आने वाले मरीज़ों की संख्या, उतनी ज़्यादा नहीं है’.

अस्पतालों में ख़ाली पड़े बिस्तरों को देखते हुए, प्रशासन डॉक्टरों की टीमों को ज़िले के गांवों में भेज रहे हैं, ताकि मरीज़ों की जांच की जा सके, लोगों में जागरूकता फैलाई जाए, और कोविड-19 किट्स वितरित की जा सकें.

लेकिन उससे काम नहीं चल रहा है.

त्रिपाठी ने कहा, ‘कोई सुनना नहीं चाहता. लोग घबरा जाते हैं; उन्हें लगता है कि उन्हें टीके लगाने आए हैं. कुछ गांवों में तो उन्होंने, हमें पीटने तक की धमकी दे दी’.

चिकित्सा व्यवस्था में अविश्वास, कोविड जांच का डर, और झोलाछाप डॉक्टरों की मौजूदगी का असर ये हुआ है, कि मझगावां के आसपास के गांवों, तथा पड़ोसी ब्लॉक्स के सरकारी अस्पतालों में, कोई मरीज़ नहीं हैं.


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‘डॉक्टरों पर भरोसा नहीं’

गांव वाले इस बात को मानते हैं, कि उन्हें सरकारी अस्पतालों के योग्य डॉक्टरों पर भरोसा नहीं है, और वो इन डॉक्टरों पर ‘घोर लापरवाही’ दिखाने का आरोप लगाते हैं.

सतना के पटनी गांव के एक मज़दूर संतोष यादव ने कहा, ‘अस्पतालों में ग़रीब लोगों की कोई नहीं सुनता. आपको घंटों इंतज़ार करना पड़ता है, तब जाकर डॉक्टर आपको आकर देखता है. ज़्यादा से ज़्यादा वो आपको एक ड्रिप चढ़ा देंगे, वरना आप बस इंतज़ार करते रहिए’.

Santosh Yadav, a labourer at Patni village in Satna | Photo: Nirmal Poddar/ThePrint
सतना के पटनी गांव में मजदूर संतोष यादव/फोटो: निर्मल पोद्दार/दिप्रिंट

अस्पतालों से गांव वालों की विरक्ति का, एक दूसरा बड़ा कारण है, टेस्ट को लेकर बहुत ज़्यादा डर.

देवलाहा गांव के एक दुकानदार विष्णु राव ने कहा, ‘अस्पताल वाले आपकी जांच कराते हैं. उसके बाद अगर वो आपकी समस्याओं पर तवज्जो दें, तो भी इलाज शुरू करने से पहले, वो 3-4 दिन इंतज़ार करते हैं’.

जहां गांव वासी अस्पतालों से दूर रहते हैं, वहीं वो स्वीकार करते हैं कि वो पूरी तरह, झोलाछाप डॉक्टरों पर विश्वास करते हैं. वो ये भी कहते हैं कि कोविड के दौरान, ये निर्भरता और ज़्यादा बढ़ गई है, भले ही उनके इलाज के विपरीत असर भी हुए हैं.

देवलाहा गांव के अन्य निवासी, कांता प्रसाद यादव ने दिप्रिंट से कहा, कि 28 अप्रैल को जब उसके पिता को कोविड लक्षण शुरू हुए, तो वो इलाज कराने के लिए, उन्हें अपने घर के पास एक झोलाछाप डॉक्टर के यहां ले गए.

अगले कुछ दिनों में पिता का बुख़ार कम हो गया, लेकिन फिर उसे लगा कि उसके पिता को, कुछ और परेशानियां शुरू हो गईं, जैसा कि याददाश्त का खोना.

कांता ने कहा, ‘मुझे नहीं पता कि ऐसा, झोलाछाप डॉक्टर की दी हुई दवाओं की वजह से था, या किसी और कारण से. लेकिन उसके बाद मैं उन्हें एक एमबीबीएस डॉक्टर के पास ले गया’.

उसके पिता की तबीयत आख़िरकार सुधर गई, लेकिन कांता का कहना है कि उसे, उन्हें पहले झोलाछाप डॉक्टर के पास ले जाने का पछतावा नहीं है.

कांता ने कहा, ‘मैं और क्या कर सकता था? सरकारी अस्पतालों में डॉक्टर मुश्किल से ही मिलते हैं, झोलाछाप डॉक्टर कम से कम हर समय मिल तो जाता है, और कुछ इलाज तो हो जाता है. भले ही उसके कुछ विपरीत असर हों’.

उसने ये भी कहा कि जहां उस एमबीबीएस डॉक्टर ने, जिसके पास वो गया, उससे 2,000 रुपए ले लिए, वहीं झोलाछाप डॉक्टर ने हर बार देखने के सिर्फ 50 रुपए लिए. उसने कहा, ‘दोनों के ख़र्चे में बहुत अंतर है’.

पटनी गांव के मज़दूर संतोष यादव ने कहा, कि गांव वाले झोलाछाप डॉक्टरों के पास जाना पसंद करते हैं, क्योंकि वो उनसे इज़्ज़त से पेश आते हैं.

संतोष ने कहा, ‘एक झोला छाप कम से कम हमारी बात तो सुनेगा, कुछ इलाज तो करेगा, जिससे हमें आराम पहुंचेगा, और हमारे साथ इज़्ज़त से पेश आएगा’.

देवलाहा के दुकानदार राव का तो ये भी मानना है, कि झोलाछाप डॉक्टरों की वजह से इलाक़े में मौतें भी कम हुई हैं. उसने कहा, ‘अगर झोलाछाप डॉक्टर न होते, तो यहां आप 100-200 शव पड़े हुए देख रहे होते’.

मझगावां के ब्लॉक चिकित्सा अधिकारी, डॉ टीके त्रिपाठी इन आरोपों का खंडन करते हैं, कि सरकारी अस्पतालों में ग्रामीणों को सही तवज्जो नहीं मिलती. उनका कहना है कि डॉक्टरों का बर्ताव, सबके साथ एक सा होता है.

त्रिपाठी ने ये भी कहा कि उन्होंने कई बार, झोलाछाप डॉक्टरों को अपने क्लीनिक चलाने के खिलाफ चेतावनी दी है.

त्रिपाठी ने कहा, ‘ये झोलाछाप डॉक्टर वैध नहीं हैं, हमने उनसे कई बार कहा है कि वो जो कर रहे हैं ग़लत है, और उनके पास लोगों का इलाज करने का, कोई आधार नहीं है. समस्या ये है कि वो बुख़ार वग़ैरह के लिए सही दवाएं दे सकते हैं. लेकिन उन्हें सही डोज़ का पता नहीं होता, और किसी मरीज़ के इतिहास की वजह से, अगर उसका केस ज़्यादा जटिल हो, तो ऐसी स्थिति में भी, उन्हें सुरक्षित तरीक़े का ज्ञान नहीं होता’.


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‘डॉक्टर्स’ जिन्हें नहीं होना चाहिए

मझगावां में अवदेश कुमार सिंह के ‘क्लीनिक’ के ऊपर लगे बोर्ड पर, उनके नाम के आगे ‘डॉक्टर’ लिखा हुआ है. बिना किसी एमबीबीएस डिग्री के, गर्ग पिछले 22 साल से, इसी जगह प्रेक्टिस कर रहे हैं.

गर्ग का कहना है कि वो कोविड का इलाज नहीं करते, लेकिन वो उन सब मरीज़ों का इलाज करते हैं, जो बुख़ार, बदन दर्द, या खांसी, या इन सबकी शिकायत लेकर आते हैं. ये सब कोविड के सामान्य लक्षण हैं, लेकिन गर्ग का कहना है कि वो बिना टेस्ट करवाए, ‘आम बीमारी’ और कोविड के बीच अंतर कर सकते हैं.

गर्ग ने कहा, ‘मैं उनसे डिटेल्स पूछता हूं, उनकी हिस्ट्री पता करता हूं; अगर उनका कोविड का केस लगता है, तो मैं उन्हें अस्पताल भेज देता हूं. मैं सिर्फ मामूली बुख़ार, नज़ला, और अन्य बुनियादी परेशानियों का इलाज करता हूं.

वो कहते हैं कि उनके इलाज में ज़्यादातर, दर्द-निवारक दवाएं, एंटीबायोटिक्स, एंटी-एलर्जी दवाएं, और ग्लूकोज़ या सलाइन सॉल्यूशन की, एक ड्रिप शामिल होती हैं.

गर्ग की तरह, इसी तरह के और भी कई लोग हैं, जो बिना किसी योग्यता के, ऐसे क्लीनिक चला रहे हैं.

इनमें से अधिकांश लोग मरीज़ को तुरंत ही, डेक्सट्रोस नॉर्मल सलाइन या डीएनएस की बोतल लगा देते हैं- जैसा कि इन क्लीनिक्स के पास पड़ीं, ख़ाली डीएनएस बोतलों के ढेर गवाही दे रहे थे.

Pile of empty DNS bottles next to the ‘clinics’ | Photo: Nirmal Poddar/ThePrint
क्लीनिक’ के बगल में खाली डीएनएस बोतलों का ढेर/फोटो: निर्मल पोद्दार/दिप्रिंट

बाबू लाल वर्मा जैसे कुछ अन्य लोग, अपने मरीज़ों का न सिर्फ एलोपैथी, बल्कि आयुर्वेद से भी इलाज करते हैं.

वर्मा ने कहा, ‘अगर उन्हें खांसी और ज़ुकाम जैसी परेशानी है, तो मैं उन्हें आयुर्वेद की दवाएं देता हूं, अन्यथा मैं उनका एलोपैथिक इलाज करता हूं’. घर में ही बने उनके छोटे से क्लीनिक में, पतंजलि की बहुत सी बोतलें सजी हुईं थीं.

Babu Lal Verma with Patanjali bottles in the background | Photo: Nirmal Poddar/ThePrint
बाबू लाल वर्मा पीछे सजी पतंजलि की बोतलों के साथ/फोटो: निर्मल पोद्दार/दिप्रिंट

सतना में हाईवे के पास अपना ‘क्लीनिक’ चलाने वाले, श्रीनारायण यादव ने कहा कि वो, सिर्फ ग़रीबों की सहायता कर रहे हैं.

उन्होंने कहा, ‘हमारे भी बच्चे हैं, हमारे भी परिवार हैं. लेकिन ऐसे समय में, हम अपनी जान जोखिम में डाल रहे हैं, और लोगों का इलाज करके, उनकी जान बचा रहे हैं. ये एक महत्वपूर्ण काम है, ये एक जन सेवा है’.

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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