नई दिल्ली: “किसी देश के जीवन में कुछ बहुत खास पल आते हैं. यह ऐसा ही एक पल है,” पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने दिसंबर 2011 में लोकसभा में लोकपाल और लोकायुक्त विधेयक पर अपने भाषण की शुरुआत अपने सामान्य गंभीर अंदाज़ में की थी. दो साल बाद, पूरे भारत में हुए विरोध-प्रदर्शनों के बाद आखिरकार लोकपाल अधिनियम हकीकत बना.
लेकिन देश जहां एक मज़बूत लोकपाल से राष्ट्रीय स्तर के सार्वजनिक पदाधिकारियों के खिलाफ बड़े घोटालों का पर्दाफाश होने की उम्मीद कर रहा था, वहां अब तक लोकपाल उस उम्मीद पर खरा नहीं उतर पाया है.
दिप्रिंट ने जनवरी 2023 से लोकपाल वेबसाइट पर उपलब्ध 620 अंतिम आदेशों का विश्लेषण किया — ये वो आदेश हैं जिनमें शिकायतें खारिज की गईं, विभागीय जांच के निर्देश दिए गए, अभियोजन की स्वीकृति दी गई या प्रारंभिक जांच के बाद कोई अन्य कदम उठाए गए.
इस विश्लेषण में सामने आया कि इनमें से जिन कुछ मामलों में सीबीआई जांच या अभियोजन की स्वीकृति दी गई, वे छोटी मछलियों यानी छोटे कर्मचारियों से संबंधित थे — जैसे बैंक अधिकारी या कर्मचारी जो वेतन गबन कर रहे थे या यात्रा बिलों में फर्जीवाड़ा कर रहे थे.
सिर्फ दो प्रमुख नाम ही हैं जिन पर जांच हुई — तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) की नेता महुआ मोइत्रा और झारखंड मुक्ति मोर्चा (जेएमएम) प्रमुख शिबू सोरेन, जिनके खिलाफ भाजपा सांसद निशिकांत दुबे ने शिकायतें दी थीं.
वहीं दूसरी ओर, पिछले साल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ एक शिकायत को लोकपाल ने खारिज कर दिया था. अप्रैल 2024 से मार्च 2025 तक पीएम के खिलाफ कुल पांच शिकायतें आई थीं, लेकिन बाकी चार की स्थिति स्पष्ट नहीं है क्योंकि लोकपाल लंबित शिकायतों की जानकारी गोपनीयता बनाए रखने के लिए साझा नहीं करता और केवल कुछ ही आदेश वेबसाइट पर डाले जाते हैं.
पिछले 12 वर्षों में जब से यह कानून पास हुआ और पांच वर्षों से जब से यह कार्यरत हुआ, लोकपाल ने अब तक केवल 34 मामलों में जांच के आदेश दिए हैं और सिर्फ 7 मामलों में अभियोजन की अनुमति दी है. लोकपाल की नियुक्तियों को लेकर भी पारदर्शिता पर सवाल उठते रहे हैं.
अब तक लोकपाल का प्रदर्शन उस सोच और जोश के मुकाबले बहुत कमतर रहा है, जिसके साथ लोगों ने इस सर्वोच्च भ्रष्टाचार विरोधी संस्था की मांग की थी.
कांग्रेस सांसद मनीष तिवारी ने दिप्रिंट से कहा, “यह 2010-11 के हालात का परिणाम था कि इस संस्था की स्थापना हुई.” उन्होंने यह भी कहा कि भारतीय संविधान में कार्यपालिका, न्यायपालिका और विधायिका के बीच स्पष्ट विभाजन है और लोकपाल जैसी संस्था का विचार संविधान में नहीं है.
तिवारी ने कहा, “अब 12 साल बीत चुके हैं और शायद अब समय आ गया है कि इस पूरे विचार की समीक्षा की जाए और इसकी संवैधानिक उपयुक्तता का मूल्यांकन किया जाए.”
सूचना के अधिकार (आरटीआई) कार्यकर्ता अंजलि भारद्वाज ने भी लोकपाल की कार्यप्रणाली पर सवाल उठाए. “आज एक बड़ा सवाल है कि आखिर लोकपाल का अस्तित्व क्यों है? और लोकपाल क्या कर रहा है?”
भारद्वाज ने कहा, “लोकपाल में जो शिकायतें जाती हैं, उनका कैसे निपटारा होता है और आखिरकार क्या फैसला लिया गया — इसमें बहुत ही कम पारदर्शिता है.”
दिप्रिंट को दिए जवाब में लोकपाल कार्यालय ने कहा कि दिप्रिंट के विश्लेषण के आधार पर बनाई गई राय “पूरी तरह सही नहीं हो सकती,” और दावा किया कि लोकपाल को समय-समय पर सांसदों और वरिष्ठ अधिकारियों जैसे उच्च पदों पर आसीन लोगों के खिलाफ शिकायतें मिली हैं और उन पर कार्रवाई भी की गई है.
लोकपाल कार्यालय ने ईमेल में कहा, “हालांकि शुरूआती वर्षों में आम जनता में जागरूकता की कमी थी, लेकिन पिछले एक साल में देखा गया है कि सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों के सीईओ/सीएमडी, केंद्र सरकार के वरिष्ठ अधिकारी, और वर्तमान/पूर्व सांसदों सहित उच्च पदस्थ लोगों के खिलाफ शिकायतें प्राप्त हो रही हैं.”
पारदर्शिता के आरोपों पर कार्यालय ने कहा कि लोकपाल “सबसे पारदर्शी तरीके” से काम करता है और प्राप्त शिकायतों पर की गई कार्रवाई को लोकपाल की वेबसाइट पर डाला जाता है.
कार्यालय ने कहा, “लोकपाल की जिम्मेदारी होती है कि जांच पूरी होने तक शिकायतकर्ता या जिनके खिलाफ शिकायत है, उनकी पहचान गोपनीय रखी जाए.”
शिकायतों को निपटाने की प्रक्रिया को स्पष्ट करते हुए कार्यालय ने कहा, “एक बार शिकायत स्वीकार कर ली जाती है, तब भी शिकायतकर्ता की ओर से आई सभी प्रस्तुतियों को बेंच के सामने रखा जाता है और उस पर आदेश दिए जाते हैं. जिनके खिलाफ शिकायत होती है उन्हें सुनवाई का मौका दिया जाता है और शिकायतकर्ता को भी अपनी बात रखने का अवसर दिया जाता है, ताकि निष्पक्षता और पारदर्शिता बनी रहे.”
चूहे
जब संसद ने 2013 में लोकपाल और लोकायुक्त अधिनियम पारित किया था, तब इस विधेयक के दो मुख्य सूत्रधार—अन्ना हज़ारे और अरविंद केजरीवाल—एक-दूसरे से अलग हो गए और मीडिया इंटरव्यू के ज़रिये एक-दूसरे पर तंज कसने लगे. केजरीवाल ने दावा किया कि यह विधेयक तो एक चूहे को भी जेल नहीं भेज पाएगा. वहीं, हज़ारे ने कहा था, “आप चूहे की बात कर रहे हैं, मुझे लगता है कि इस विधेयक में तो शेर को भी फंसाने की ताकत है.”
बारह साल बाद, अब तक जो “चूहे” इस कानून के तहत फंसे हैं, उनमें अधिकतर बैंक अधिकारी ही नज़र आते हैं.
संदर्भ के लिए, 2013 का यह कानून लोकपाल को यह शक्ति देता है कि वह भ्रष्टाचार के आरोपों में घिरे लोक सेवकों के खिलाफ प्रारंभिक जांच के बाद पूर्ण जांच या विभागीय कार्रवाई का आदेश दे सकता है.
इस कानून की धारा 20 के तहत लोकपाल को अभियोजन की मंजूरी देने का अधिकार है—यह अधिकार पहले सरकार या सक्षम प्राधिकारी के पास होता था. इसका मतलब यह है कि जांच रिपोर्ट की समीक्षा करने के बाद लोकपाल जांच एजेंसी को चार्जशीट दाखिल करने की मंजूरी दे सकता है. इसके बाद मुकदमे की प्रक्रिया शुरू होती है.
वेबसाइट पर उपलब्ध 620 आदेशों में दिप्रिंट ने पाया कि ऐसे पांच मामले हैं जिनमें लोकपाल ने अभियोजन की स्वीकृति दी, जिनमें से तीन मामले बैंक अधिकारियों से जुड़े हुए हैं.
एक मामले में उत्तर प्रदेश के एक भारतीय स्टेट बैंक (SBI) शाखा प्रबंधक पर आरोप था कि उसने एक लोन प्रोसेस करने के लिए 4 लाख रुपये की रिश्वत मांगी और ली. लोकपाल ने न केवल शाखा प्रबंधक के खिलाफ, बल्कि शिकायतकर्ता के खिलाफ भी अभियोजन की मंजूरी दी, क्योंकि उस पर यह आरोप था कि उसने रिश्वत दी.
यह आदेश इस साल 21 फरवरी को जारी हुआ.
दूसरे मामले में, जो दिसंबर 2023 में आया, लोकपाल ने भोपाल और बालाघाट में यूको बैंक के चार अधिकारियों के खिलाफ अभियोजन की स्वीकृति दी, जिन पर अयोग्य संस्थाओं को लोन देने का आरोप था.
तीसरे आदेश में, जो अक्टूबर 2024 में जारी हुआ, लोकपाल ने कोयंबटूर में बैंक ऑफ इंडिया शाखा के तीन अधिकारियों और एक कंपनी के प्रोप्राइटर के खिलाफ अभियोजन की मंजूरी दी. आरोप था कि इन्होंने 7 करोड़ रुपये की नकद क्रेडिट लिमिट को मंज़ूर कर कंपनी को अनुचित लाभ पहुंचाने के लिए आपराधिक साजिश रची.
चौथे मामले में, अगस्त 2024 में नोएडा स्थित इंडिया गवर्नमेंट मिंट की एक वरिष्ठ कार्यालय सहायक के खिलाफ अभियोजन की स्वीकृति दी गई, जिस पर कर्मचारियों के वेतन वितरण में “गबन” कर खुद को 53,061 रुपये का “अनुचित लाभ” पहुंचाने का आरोप था.
पांचवां अभियोजन मंजूरी का मामला राष्ट्रीय सांस्कृतिक संपत्ति संरक्षण अनुसंधान प्रयोगशाला और भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (ASI) के वर्तमान और पूर्व अधिकारियों के खिलाफ था. इन पर एक निर्माण कंपनी को टेंडर देने और प्रोजेक्ट के क्रियान्वयन के दौरान निर्धारित प्रक्रियाओं और दिशा-निर्देशों का उल्लंघन करने का आरोप था.
दिप्रिंट से बात करते हुए, लोकपाल की पूर्व न्यायिक सदस्य जस्टिस अभिलाषा कुमारी ने माना कि “बैंकों से जुड़ी शिकायतें काफी संख्या में आती थीं.” हालांकि उन्होंने यह भी कहा कि इस तरह की शिकायतें सार्वजनिक उपक्रमों (PSUs) जैसे सेल (SAIL) से जुड़ी हुई भी आती थीं.
लोकपाल के बारे में अंजलि भारद्वाज ने बताया कि इसे एक स्वतंत्र और सशक्त भ्रष्टाचार विरोधी संस्था के रूप में कल्पना की गई थी, जो बड़े पैमाने पर होने वाले भ्रष्टाचार के मामलों की जांच और अभियोजन करेगी.
उनका कहना था कि अन्य एजेंसियां निचले स्तर के अधिकारियों से जुड़े छोटे भ्रष्टाचार के मामलों को देख सकती थीं. “लेकिन असली समस्या तब होती थी जब बहुत उच्च पदों पर बैठे लोक सेवक, जैसे मंत्री, प्रधानमंत्री, और वरिष्ठ अधिकारी, शामिल होते थे. इन मामलों में सीबीआई जैसी संस्थाओं पर आरोप लगता था कि वे ‘पिंजरे में बंद’ रहती हैं. इसलिए उच्च स्तर के पदाधिकारियों से जुड़े बड़े भ्रष्टाचार मामलों की जांच के लिए लोकपाल की मांग की गई थी,” उन्होंने कहा.
शेर
लोकपाल द्वारा सार्वजनिक किए गए 620 आदेशों में से, महुआ मोइत्रा और शिबू सोरेन ही दो प्रमुख नाम नज़र आते हैं जिनके खिलाफ लोकपाल ने पूरी जांच का आदेश दिया.
महुआ मोइत्रा लोकपाल के सामने शिकायतकर्ता और प्रतिवादी दोनों के रूप में पेश हुई हैं. 2023 में, बीजेपी सांसद निशिकांत दुबे ने लोकपाल में मोइत्रा के खिलाफ शिकायत दर्ज कराई थी. इस शिकायत में कहा गया था कि सुप्रीम कोर्ट के वकील जय अनंत देहदराय ने दुबे को एक पत्र लिखा था, जिसमें मोइत्रा पर गंभीर आरोप लगाए गए थे.
आरोप था कि मोइत्रा ने अपने लोकसभा लॉगिन क्रेडेंशियल्स, जिसमें उनका यूज़र आईडी और पासवर्ड शामिल है, दुबई स्थित व्यवसायी दर्शन हीरानंदानी को सौंप दिए थे. हीरानंदानी ने इन क्रेडेंशियल्स का उपयोग करते हुए संसद में मोइत्रा के नाम से सवाल पूछे, जब वह विदेश में थीं. शिकायत में यह आरोप भी लगाया गया था कि हीरानंदानी ने अपने निजी लाभ और व्यावसायिक प्रतिद्वंद्विता को बढ़ावा देने के लिए अपने मनचाहे सवाल पूछे.
19 मार्च 2024 के आदेश में, लोकपाल की तीन सदस्यीय पीठ ने कहा कि “सच्चाई का पता लगाने के लिए गहन जांच की आवश्यकता है” और यह “महुआ मोइत्रा द्वारा धारण किए गए पद और स्थिति को देखते हुए महत्वपूर्ण है.” इसके बाद लोकपाल ने आरोपों की जांच के लिए सीबीआई को निर्देश दिया, जिसके बाद सीबीआई ने उनके खिलाफ एफआईआर दर्ज की.
My LokPal complaint against Ms. Puri-Buch been filed electronically & in physical form. LokPal must within 30 days refer it to CBI/ED for a preliminary investigation and then a full FIR enquiry. Every single entity involved needs to be summoned & every link investigated.… pic.twitter.com/5aZ4f2se9n
— Mahua Moitra (@MahuaMoitra) September 13, 2024
सितंबर 2024 में, मोइत्रा ने लोकपाल में भारतीय प्रतिभूति और विनिमय बोर्ड (SEBI) की पूर्व अध्यक्ष मधाबी पुरी बुच के खिलाफ एक शिकायत दर्ज कराई, जो अमेरिका स्थित हिंडनबर्ग रिसर्च रिपोर्ट में प्रकाशित आरोपों पर आधारित थी. लोकपाल ने मई में इस शिकायत को खारिज कर दिया.
जहां तक शिबू सोरेन की बात है, उनके खिलाफ भी शिकायत निशिकांत दुबे ने दर्ज कराई थी. शिकायत में आरोप लगाया गया कि उन्होंने भ्रष्ट और अनैतिक तरीकों से अत्यधिक संपत्ति, ज़मीन और अन्य परिसंपत्तियां अपने, अपने परिवार के सदस्यों, दोस्तों, सहयोगियों और विभिन्न कंपनियों के नाम पर अर्जित कीं, जो उनकी ज्ञात और घोषित आय के स्रोतों से कहीं अधिक थीं.
4 मार्च 2024 के आदेश में, लोकपाल ने झारखंड मुक्ति मोर्चा (जेएमएम) के नाम पर प्राप्त दो संपत्तियों की जांच के लिए सीबीआई को निर्देश दिया. हालांकि, जेएमएम द्वारा इस आदेश को दिल्ली हाई कोर्ट में चुनौती दिए जाने पर, कोर्ट ने मई 2024 तक पार्टी के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं करने का निर्देश दिया। यह अंतरिम राहत अब भी लागू है.
इसके मुकाबले, अन्य मामलों में जिनमें लोकपाल ने सीबीआई जांच का आदेश दिया, उनमें नवंबर 2022 में स्टील अथॉरिटी ऑफ इंडिया लिमिटेड (सैल) के अधिकारियों के खिलाफ पीएसयू के व्यावसायिक सौदों में अनियमितताओं से जुड़ा एक मामला शामिल है.
एक अन्य आदेश में वेस्ट सेंट्रल रेलवे के अधिकारियों के खिलाफ एफआईआर दर्ज करने का निर्देश दिया गया था. उन पर विभागीय पदोन्नति परीक्षा में उपयोग होने वाली ओएमआर (ऑप्टिकल मार्क रिकग्निशन) शीट से छेड़छाड़ कर घूस के बदले लाभ देने का आरोप था.
जनवरी 2023 में, लोकपाल ने दूरदर्शन केंद्र के एक सहायक निदेशक के खिलाफ जांच का आदेश दिया था. उन पर आधिकारिक दौरों से संबंधित फर्जी ठहरने और परिवहन बिल जमा करने का आरोप था.
‘लोक (कल्याण मार्ग) पाल?’
ऐसा नहीं है कि लोकपाल को कभी बड़े नामों के खिलाफ शिकायतें नहीं मिलतीं.
पिछले साल, अमेरिका स्थित हिंडनबर्ग रिसर्च की एक रिपोर्ट के बाद SEBI की पूर्व चेयरपर्सन मधाबी पुरी बुच के खिलाफ तीन शिकायतें आईं. इस रिपोर्ट में अन्य बातों के अलावा यह आरोप लगाया गया था कि SEBI प्रमुख और उनके पति ने उस फंड में भारी निवेश किया, जो अदानी समूह की कंपनियों में निवेश से जुड़ा था, उस समय जब SEBI इन कंपनियों के स्टॉक मूल्य में हेराफेरी की जांच कर रहा था.
लोकपाल ने शिकायत खारिज करते हुए कहा कि यह “ज्यादातर अनुमानों और कल्पनाओं पर आधारित है और किसी भी सत्यापन योग्य सामग्री से समर्थित नहीं है” और इसमें भ्रष्टाचार के अपराध के लिए आवश्यक तत्व नहीं हैं.
पिछले साल लोकपाल ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और कांग्रेस नेता राहुल गांधी के खिलाफ भी एक शिकायत खारिज की. शिकायतकर्ता ने मई 2024 में एक चुनावी अभियान के दौरान मोदी के भाषण की जांच की मांग की थी, जिसमें उन्होंने सवाल उठाया था कि राहुल गांधी को देश के शीर्ष उद्योगपतियों, जिनमें मुकेश अंबानी और गौतम अडानी शामिल हैं, से कथित रूप से काला धन क्यों मिला.
शिकायत खारिज करते हुए लोकपाल ने कहा कि यह भाषण “अनुमानों और अटकलबाज़ी की सीमा पर है; और यह पूरी तरह से चुनावी प्रचार का हिस्सा है, जिसमें विपक्षी पर काल्पनिक तथ्यों के आधार पर सवाल उठाए गए हैं.”
इस आदेश के बाद, कांग्रेस नेता जयराम रमेश ने एक्स (पूर्व में ट्विटर) पर पोस्ट किया, “इस बीच, लोकपाल ने निश्चित रूप से खुद को लोक (कल्याण मार्ग) पाल साबित कर दिया है?”
Who will hold the self-anointed non-biological PM accountable for the web of deceit he weaves?
We had demanded a ED and CBI investigstion of the tempo claim made by Mr. Modi on 8th May, 2024. That demand still stands. Meanwhile the Lokpal has certainly proved to be a Lok (Kalyan…
— Jairam Ramesh (@Jairam_Ramesh) July 19, 2024
दिप्रिंट को उन शिकायतों पर आदेश मिले जो एक मौजूदा हाई कोर्ट के अतिरिक्त न्यायाधीश, भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़, लोकपाल के एक “वरिष्ठ अधिकारी”, दो केंद्रीय कैबिनेट मंत्रियों और एक राजनीतिक दल के दो नेताओं से संबंधित थे. हालांकि, कई शिकायतें या तो निराधार थीं, या समय सीमा से बाहर थीं, या लोकपाल के अधिकार क्षेत्र में नहीं आती थीं.
सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश और कर्नाटक के पूर्व लोकायुक्त जस्टिस एन. संतोष हेगड़े ने इस संस्था के बारे में जागरूकता की कमी को उजागर किया. उन्होंने दिप्रिंट को बताया कि शुरू में कर्नाटक लोकायुक्त को बहुत छोटे-मोटे मामलों की शिकायतें मिलती थीं क्योंकि लोगों को यह नहीं पता था कि यह संस्था कैसे प्रतिक्रिया देगी. “इसलिए, यह संभव है कि गंभीर मामले लोकपाल के पास विचार के लिए नहीं आ रहे हों. इसमें कुछ समय लगेगा जब तक कि ऐसे मामले सामने आने शुरू नहीं होते.”
‘लापता’ आदेश
लोकपाल की वेबसाइट, अन्य हाई कोर्ट या सुप्रीम कोर्ट की तरह नहीं है, जहां केस नंबर डालकर कोई भी व्यक्ति यह जांच सकता है कि किसी शिकायत की स्थिति क्या है. उदाहरण के लिए, अक्टूबर और दिसंबर पिछले साल में, लोकपाल ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ तीन शिकायतें प्राप्त की थीं, जो वेबसाइट पर उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार दर्ज हैं.
यह स्पष्ट नहीं है कि इन शिकायतों की कंटेंट क्या था और लोकपाल ने इन पर कोई आदेश पारित किया या नहीं.
दिप्रिंट से बात करते हुए, जस्टिस अभिलाषा कुमारी ने बताया कि यह उनके कार्यकाल के दौरान था जब आयोग ने फैसला लिया कि वेबसाइट पर केवल “अंतिम आदेश” ही डाले जाएंगे—यानी वे आदेश जिनमें कोई शिकायत निपटा दी गई हो, विभागीय कार्रवाई शुरू करने का निर्देश दिया गया हो, मुकदमा चलाने की अनुमति दी गई हो या कार्यवाही बंद करने का निर्देश हो. उन्होंने कहा, “फैसला लिया गया कि केवल अंतिम आदेश ही वेबसाइट पर डाले जाएंगे, अंतरिम आदेश नहीं, क्योंकि एक बार सार्वजनिक हो जाने के बाद, संबंधित लोक सेवक को नुकसान हो सकता है अगर उसका नाम स्वार्थी तत्वों द्वारा प्रचारित किया जाए. इसलिए लोकपाल बहुत सतर्क और संयमित ढंग से काम कर रहा है.”
5 जून को जारी ताज़ा लोकपाल सर्कुलर में भी यह प्रक्रिया तय की गई है कि शिकायतों से कैसे निपटा जाए और वेबसाइट पर कौन-से आदेश अपलोड किए जाएं.
इस सर्कुलर के अनुसार, कार्यालय को “पंजीकृत शिकायत को निपटाने वाले अंतिम आदेशों” को जल्द से जल्द वेबसाइट पर अपलोड करना होगा. इसमें अंतिम आदेशों को परिभाषित किया गया है, जैसे कि शुरुआत में ही शिकायत खारिज कर देना, विभागीय कार्रवाई शुरू करने का निर्देश देना, आरोपपत्र दाखिल करने या रिपोर्ट बंद करने की अनुमति देना, या कार्यवाही बंद करने का निर्देश देना. जिन आदेशों को “वेबसाइट पर अपलोड नहीं किया जाना” होता है, उन पर “अपलोड नहीं किया जाना चाहिए” की हेडिंग होती है और कोर्ट मास्टर को यह सुनिश्चित करना होता है कि ऐसे आदेश गोपनीयता बनाए रखने के लिए अपलोड न हों.
जो आदेश प्राथमिक जांच के बाद पूरी जांच का निर्देश देते हैं, वे ऊपर दी गई परिभाषा में नहीं आते, लेकिन ऐसी कुछ जांचों के आदेश 620 सार्वजनिक आदेशों में शामिल हैं, जबकि अन्य नहीं हैं.
उदाहरण के लिए, मोइत्रा और सोरेन के मामलों में सीबीआई जांच के आदेश वेबसाइट पर उपलब्ध हैं, लेकिन कुछ अन्य लोक सेवकों के खिलाफ ऐसे आदेश उपलब्ध नहीं हैं.
दिप्रिंट ने सीबीआई की एफआईआर का अध्ययन किया जिसमें लोकपाल के आदेशों और केस दर्ज करने के निर्देशों का उल्लेख है. हालांकि, ये आदेश सीधे वेबसाइट पर नहीं मिलते. उदाहरण के लिए, दिल्ली सरकार के राजस्व विभाग में तैनात एक सब-रजिस्ट्रार के खिलाफ एफआईआर दर्ज की गई थी, जिसमें आरोप था कि उसने स्टांप ड्यूटी की अनदेखी और पंजीकरण कानूनों के उल्लंघन के बदले रिश्वत ली. एक अन्य एफआईआर में, कॉनकॉर लिमिटेड के एक अधिकारी और नागपुर स्थित एक कंपनी के खिलाफ है, जिस पर आरोप है कि उन्होंने कॉनकॉर परिसर में अवैध खुदाई कर 1.6 करोड़ रुपये से अधिक की सामग्री निकाली.
इसी तरह, इंजीनियरिंग प्रोजेक्ट्स (इंडिया) लिमिटेड के अधिकारियों, दिल्ली कैंट के एक पूर्व डिफेंस एस्टेट ऑफिसर, उद्योग संवर्धन और आंतरिक व्यापार विभाग के एक पूर्व सचिव और बैंक ऑफ इंडिया के अधिकारियों के खिलाफ एफआईआर दर्ज हुई, लेकिन संबंधित लोकपाल आदेश वेबसाइट पर नहीं हैं.
लोकपाल कार्यालय ने दिप्रिंट को बताया कि अप्रैल 2023 से आदेशों को अपलोड करने को लेकर दिशा-निर्देश लागू हैं, ताकि प्रक्रियाओं की गोपनीयता और अखंडता बनाए रखी जा सके, जिसमें शिकायतकर्ता और नामित लोक सेवक की पहचान की रक्षा करना भी शामिल है.
कार्यालय ने कहा कि आम तौर पर अंतिम आदेश, जो शिकायत को निपटाते हैं, वेबसाइट पर अपलोड किए जाते हैं, जबकि अंतरिम आदेश केवल संबंधित एजेंसी को भेजे जाते हैं, जिसका काम आगे की कार्रवाई करना होता है.
साथ ही, कार्यालय ने बताया कि अंतरिम आदेशों को, जिनमें सभी व्यक्तियों और संस्थाओं के नाम मिटा दिए जाते हैं, लोकपाल की पीठ के निर्देशानुसार “दुर्लभ मामलों में, केस दर केस आधार पर” वेबसाइट पर अपलोड किया जाता है.
कार्यालय ने कहा, “इसके अलावा, ऐसे अंतरिम आदेश जो जांच/पड़ताल की प्रक्रियाओं से जुड़ी प्रक्रिया संबंधी बातों को स्पष्ट करते हैं, अब वेबसाइट पर अपलोड किए जा रहे हैं, ताकि संबंधित पक्षों और जिम्मेदार अधिकारियों को जानकारी मिल सके और पारदर्शिता की दिशा में एक और कदम उठाया जा सके. इससे जनता और अधिकारियों के बीच लोकपाल द्वारा अपनाई जाने वाली प्रक्रियाओं की जानकारी फैलाई जा सकती है.”
कार्यालय ने यह भी बताया कि 3 जून को अध्यक्ष द्वारा पारित एक आदेश के तहत, लोकपाल के सामने शिकायतों के निपटारे से जुड़े प्रक्रियात्मक मामलों को स्पष्ट करने वाले आदेशों को “उल्लेखनीय आदेश” के रूप में वेबसाइट पर अपलोड करने की सिफारिश के लिए सदस्यों की एक समिति गठित की गई है.
एक ‘गैर-पारदर्शी’ निगरानी संस्था?
निगरानी संस्था (लोकपाल) में की गई नियुक्तियां भी फिलहाल सवालों के घेरे में हैं.
2018 में, अंजलि भारद्वाज ने एक आरटीआई अर्जी दायर की थी, जिसमें उन्होंने लोकपाल चयन समिति की बैठकों या कार्यवाही की कॉपी समेत कई जानकारियां मांगी थीं. लेकिन उन्हें यह कहकर जानकारी देने से इनकार कर दिया गया कि “ऐसे दस्तावेज़ जिनके लेखक तीन से पांच उच्चस्तरीय गणमान्य व्यक्ति हैं, उनके अधिकार विभाग कार्मिक एवं प्रशिक्षण के पास नहीं हैं, और ये दस्तावेज़ ‘गोपनीय’ माने जाते हैं.”
Independence of Lokpal completely compromised. Selection committee had preponderance of govt representatives since Leader of opposition has not been recognised. This coupled with opaqueness in selection process erodes public trust & defeats the purpose for which Lokpal was set up https://t.co/uRYl2qN4cw
— Anjali Bhardwaj (@AnjaliB_) February 29, 2024
इस जानकारी को न देने के खिलाफ उनका एक मामला अब दिल्ली हाई कोर्ट में लंबित है. भारद्वाज का कहना है कि लोकपाल की स्वतंत्रता बनाए रखने के लिए यह ज़रूरी है कि उसके सदस्यों की नियुक्तियों पर कार्यपालिका या सत्तारूढ़ दल का नियंत्रण न हो.
इसी मकसद से, लोकपाल और लोकायुक्त अधिनियम 2013 की धारा 4 में चयन समिति का ज़िक्र है, जिसमें प्रधानमंत्री अध्यक्ष होते हैं और चार अन्य सदस्य होते हैं—लोकसभा अध्यक्ष, लोकसभा में विपक्ष के नेता, भारत के मुख्य न्यायाधीश या उनके द्वारा नामित कोई सुप्रीम कोर्ट जज, और एक प्रतिष्ठित न्यायविद् जिसे अध्यक्ष व अन्य सदस्य मिलकर राष्ट्रपति को नामित करते हैं.
यह चयन समिति एक खोज समिति भी बनाती है, जिसमें कम से कम सात ऐसे “प्रबुद्ध व्यक्ति” होते हैं जिनके पास भ्रष्टाचार विरोधी नीति, लोक प्रशासन, सतर्कता, नीति निर्माण, वित्त (बीमा और बैंकिंग सहित), क़ानून और प्रबंधन जैसे क्षेत्रों में विशेष ज्ञान और अनुभव होता है.
भारद्वाज का कहना है कि अब तक लोकपाल में की गई नियुक्तियों में विपक्ष के नेता को विश्वास में नहीं लिया गया. इसका मतलब यह भी हुआ कि चयन समिति में प्रतिष्ठित न्यायविद् की नामांकन प्रक्रिया भी “ऐसे निकाय के जरिए हुई जिसमें सरकार का वर्चस्व था.”
भारद्वाज ने दिप्रिंट से कहा, “असल में पूरी स्वतंत्रता को ही कमजोर कर दिया गया है. और हमने देखा है कि बार-बार आरोप लगे हैं कि जो लोग नियुक्त हुए हैं, वे या तो सत्ताधारी दल के करीबी माने जाते हैं या फिर उन्होंने सरकार के अनुकूल काम किया है.”
दिप्रिंट द्वारा देखी गई याचिका में कहा गया है कि लोकपाल अधिनियम का मकसद सार्वजनिक कार्यालयों की जवाबदेही बढ़ाना है, “ऐसे में अगर लोकपाल अध्यक्ष और सदस्यों की नियुक्ति से जुड़ी जानकारी को ही गोपनीय बताया जाए, तो यह लोकपाल अधिनियम और सूचना का अधिकार (RTI) अधिनियम दोनों की भावना और उद्देश्य के खिलाफ है.”
खुले प्रश्न, सीमित संसाधन
क़ानून के लागू होने में अब भी कई कमियां हैं और इसके अधिकार क्षेत्र को लेकर भी सवाल उठते हैं.
मार्च में एक संसदीय समिति ने लोकपाल के दो अहम विभागों—जांच शाखा और अभियोजन शाखा—का गठन छह महीनों के भीतर करने की सिफारिश की. पिछले महीने की शुरुआत में, लोकपाल ने केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई), प्रवर्तन निदेशालय (ईडी), केंद्रीय सशस्त्र पुलिस बलों और नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो समेत अन्य एजेंसियों के अनुभवी अधिकारियों से अपने जांच विभाग में प्रतिनियुक्ति पर शामिल होने के लिए आवेदन भी मांगे.
2013 अधिनियम के अध्याय III और IV में एक स्वतंत्र जांच शाखा और अभियोजन शाखा की कल्पना की गई है। लेकिन जब तक इन शाखाओं का गठन नहीं हो जाता, तब तक केंद्रीय सतर्कता आयोग (सीवीसी) और सीबीआई जैसी एजेंसियां इस अधिनियम के तहत प्राथमिक जांच और जांच के कार्य करती हैं.
“इससे फर्क तो पड़ता है,” जस्टिस अभिलाषा कुमारी ने कहा। उन्होंने समझाया, “वरना हमारे पास सिर्फ सीबीआई को जांच देने का विकल्प रह जाता है. अगर अपनी ‘अभियोजन शाखा’ होगी तो काम तेज़ी से हो सकता है. सीबीआई पहले से ही बहुत काम के बोझ में है.”
इस साल की शुरुआत में लोकपाल एक विवाद का केंद्र भी बन गया. जनवरी में लोकपाल की पूर्ण पीठ, जिसकी अध्यक्षता पूर्व सुप्रीम कोर्ट जज जस्टिस ए.एम. खानविलकर कर रहे थे, ने यह फैसला सुनाया कि संसद द्वारा स्थापित हाई कोर्ट्स के वर्तमान जज भी लोकपाल और लोकायुक्त अधिनियम के तहत “लोक सेवक” माने जाएंगे.
यह आदेश एक शिकायत पर दिया गया था जिसमें आरोप था कि एक हाई कोर्ट के अतिरिक्त जज ने एक अतिरिक्त जिला जज और एक अन्य हाई कोर्ट के जज को एक निजी कंपनी के पक्ष में फैसला देने के लिए प्रभावित किया, जो एक मामले में शिकायतकर्ता के खिलाफ थी. यह फैसला विवादास्पद रहा और सुप्रीम कोर्ट ने तुरंत इस पर स्वतः संज्ञान लेते हुए हस्तक्षेप किया. जस्टिस भूषण आर. गवई, सूर्यकांत और अभय एस. ओका की पीठ ने लोकपाल की व्याख्या को “बेहद परेशान करने वाला” बताया और आदेश पर रोक लगा दी.
केंद्र सरकार ने भी सुप्रीम कोर्ट की इस राय का समर्थन किया. सरकार का कहना था कि हाई कोर्ट संवैधानिक संस्थाएं हैं, और उनके न्यायाधीश संवैधानिक पद पर होते हैं, इसलिए वे लोकपाल के अधिकार क्षेत्र में नहीं आते.
एक फाइव स्टार होटल
लोकपाल की शुरुआत बहुत धीमी रही. इसके पहले चेयरपर्सन की नियुक्ति 2019 में हुई—सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश और तब के राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के सदस्य पिनाकी चंद्र घोष.
सरकार ने इस देरी का कारण लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष (LoP) की गैर मौजूदगी को बताया, जो चयन समिति का हिस्सा होता है. लेकिन अप्रैल 2017 में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि सिर्फ नेता प्रतिपक्ष की अनुपस्थिति लोकपाल की नियुक्ति प्रक्रिया में देरी का कारण नहीं बन सकती. सुप्रीम कोर्ट के बार-बार दबाव और एक निश्चित समयसीमा ने इस प्रक्रिया को आगे बढ़ाया.
जस्टिस अभिलाषा कुमारी ने याद किया कि यह संस्था बिना किसी दफ्तर या ढांचे के शुरू हुई थी और नई दिल्ली के अशोक होटल की “आधी गलियारे” से काम कर रही थी.
उन्होंने याद किया, “लोग लिखते थे कि लोकपाल फाइव-स्टार होटल से काम कर रहा है. लेकिन असलियत बहुत अलग थी … हमने शुरुआत में ट्रैवल कंपनियों से वाहन और ड्राइवर किराए पर लिए और बहुत कम स्टाफ के साथ काम किया.” जस्टिस कुमारी ने बताया, “हम पहली लोकपाल संस्था थे और ईंट दर ईंट इस संस्था को बनाया, नियम और प्रक्रियाएं तय कीं और कामकाज की रूपरेखा बनाई. कोविड महामारी के दौरान भी लोकपाल ने काम करना बंद नहीं किया, हालांकि हमने दुखद रूप से न्यायिक सदस्य जस्टिस अजय त्रिपाठी को खो दिया.”
लोकपाल की आलोचना की शुरुआत भी जल्दी ही हो गई थी, जब न्यायिक सदस्य जस्टिस डी.बी. भोसले ने अपनी नियुक्ति के सिर्फ नौ महीने बाद इस्तीफा दे दिया. इस्तीफे से पहले, इलाहाबाद हाई कोर्ट के पूर्व चीफ जस्टिस ने जस्टिस घोष को पत्र लिखे, जिनमें संस्था में काम की कमी और धीमी गति की शिकायत की गई थी.
जस्टिस घोष के मई 2022 में रिटायर होने के बाद, अगले लोकपाल की नियुक्ति में दो साल और लग गए. सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज, जस्टिस ए.एम. खानविलकर ने फरवरी 2024 में पदभार संभाला. सुप्रीम कोर्ट में अपने कार्यकाल के दौरान, जस्टिस खानविलकर को कई ऐसे फैसलों को लेकर आलोचना झेलनी पड़ी, जो आलोचकों के अनुसार, मौजूदा सरकार की नीतियों के अनुरूप थे.
कानून के अनुसार, लोकपाल में एक चेयरपर्सन और आठ सदस्य होने चाहिए, जिनमें से चार न्यायिक सदस्य होने जरूरी हैं. फिलहाल लोकपाल में एक चेयरपर्सन और छह सदस्य हैं, जिनमें तीन न्यायिक सदस्य शामिल हैं.
‘भगवान का डर’
पिछले पांच वर्षों में लोकपाल के कुल प्रदर्शन को देखते हुए आलोचक इसकी प्रभावशीलता पर सवाल उठा रहे हैं.
“अगर लोकपाल की कार्यप्रणाली को देखें, तो यह साफ है कि जितने भी बड़े भ्रष्टाचार के घोटाले सामने आए, जिन पर लोकपाल से तुरंत कार्रवाई की उम्मीद थी, उनमें से किसी पर भी लोकपाल ने कोई कदम नहीं उठाया,” अंजलि भारद्वाज ने कहा.
जस्टिस हेगड़े के लिए, कर्नाटक लोकायुक्त के साथ उनका अनुभव भारत के लोकपाल के भविष्य के लिए आशा देता है.
उन्होंने दिप्रिंट को बताया कि 1984 में कर्नाटक लोकायुक्त की स्थापना के लगभग 15 साल बाद, जब 2000 में जस्टिस एन. वेंकटचलैया लोकायुक्त बने, तभी राज्य के कई लोगों को इस संस्था के बारे में पता चला.
जस्टिस वेंकटचलैया को अक्सर राज्य के लोकायुक्त को पुनर्जीवित करने का श्रेय दिया जाता है. उन्होंने कर्नाटक के प्रशासन में “भगवान का डर” बैठा दिया था और अगले दशक में कई ऊंचे पदों पर बैठे सरकारी अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई की थी.
जस्टिस हेगड़े ने बताया कि प्रशासनिक सुधार आयोग ने सार्वजनिक अधिकारियों के खिलाफ शिकायतों की जांच के लिए स्वतंत्र संस्थाओं की स्थापना की सिफारिश की थी.
जस्टिस हेगड़े ने दिप्रिंट को बताया, “यह सिफारिश दशकों बाद लागू हुई क्योंकि कोई भी सरकार ऐसा जांच संस्थान नहीं चाहती थी जो उनके खिलाफ प्रभावी हो सके. जनभावनाओं को शांत करने के लिए उन्होंने एक ऐसी संस्था बना दी जिसे कोई ढांचा ही नहीं मिला.”
उन्होंने इस बात पर ज़ोर दिया कि लोकपाल की विश्वसनीयता को मजबूत करने के लिए जनदबाव होना चाहिए. “कोई भी संस्था नहीं चाहती कि उसके खिलाफ कोई प्रभावी जांच एजेंसी हो. इसमें जनता की भी ज़िम्मेदारी है.”
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